डा. श्याम सखा श्याम का ग़ज़ल संग्रह "शुक्रिया ज़िन्दगी ' |
शुक्रिया ज़िन्दगी” के लिये शुक्रिया। सकारात्मक होना इस अवसाद के दौर में एक महती और दुर्लभ उपलब्धि है। बीस में से उन्नीस प्रकाशित ग़ज़ल –संग्रहों के उन्वान में हताशा , अवसाद या पलायन का अर्थ रखने वाले शब्द मिलते हैं। इसलिये यदि किसी पुस्तक का शीर्षक “शुक्रिया-ज़िन्दगी” दिखाई दे तो नि:सन्देह हर्षमिश्रित कौतूहल का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है। लेकिन इसके फौरन बाद ग़ज़लकार का नाम डा. श्याम सखा “श्याम” देखने के बाद एक गहरी आश्वस्ति भी हो जाती है क्योंकि साहित्य के क्ष्रेत्र में यह नाम अपनी पुख़्तगी के साथ साथ अपनी सकारात्मक सोच के लिये भी विख्यात है। डा श्याम सखा “श्याम” साहित्य के खितमतगार ही नहीं संरक्षक , उत्प्रेरक और दिशा –निर्देशक भी हैं और उनके व्यक्तित्व के इन आयामो के आलोक में उनके इस गज़ल –संग्रह को पढा जाय तो यह ग़ज़ल
संग्रह ग़ज़ल की दुनिया में एक विशेष मिशन और मुहिम के प्रतिनिधि की भूमिका के रूप में भी दिखाई देता है। ग़ज़लों के कथ्य जहाँ एक ओर सामाजिक सन्दर्भों के प्रति सचेष्ट हैं वहीं भाषा के लोकप्रिय और स्वीकार्य सेतुओं को बनाने का कार्य भी इस पुस्तक में बख़ूबी किया गया है – डा साहब की तख़्लीक रिवायत और ज़दीदियत का सम्यक निर्वाह भी करती है और ग़ज़ल की दुनिया में एक अर्से से उनकी मजबूत उपस्थिति का सबब भी है। भाषा के व्यावहारिक स्वरूप की पैरवी उनके चैतन्य का अखण्ड अंश भी है – सुबूत के तौर पर परिचय में अंतिम पृष्ठ पर मोबाइल फोन हेतु घुमंतू भाष शब्द का इस्तेमाल किया गया है – प्रभाव यह है कि मैं अब यह पढने के बाद मोबाइल फोन को घुमंतू भाष ही कहने लगा हूँ। पुस्तक के अंतिम पृष्ठों पर डा0 साहब के 5 प्रभावशाली आलेख हैं जो न केवल पुस्तक पढने के बाद उपजी जिज्ञासायें शांत करते हैं बल्कि ग़ज़ल के आदर्शभूत ढाँचे के बारे में पाठकों में एक नयी सोच भी उत्पन्न करते हैं साथ ही इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व की आइडियोलोजी , तर्क शक्ति और रचना –प्रक्रिया पर पर्याप्त प्रकाश भी डालते हैं। छन्द और उसकी वैदिक उत्पत्ति , उर्दू भाषा के देवनागरी प्रारूप की तर्कसम्मत व्याख्या तथा नवग़ज़लकारों के लिये उल्लेखनीय सन्देश इन आलेखों की उपलब्धि है।डा श्याम सखा “श्याम” ग़ज़ल की दुनिया में हैसियत और दख़्ल दोनो रखते हैं और वे भाषा के इस संक्रमण काल में भाषा के व्यावहारिक स्वरूप की सन्धि रेखा पर खड़े हैं जहाँ हिन्दी गज़ल और उर्दू गज़ल दोनो हिन्दुस्तानी ग़ज़ल में विलीन होती हैं, उनके तर्क स्वागतयोग्य हैं। ये भी तय है कि ग़ज़ल के स्वरूप के सन्दर्भ में उनके तर्कों को विरोधों का भरपूर सामना करना पड़ेगा लेकिन यह भी सच है कि उनका दमदार वयक्तित्व और साहित्य में उनकी मजबूत हैसियत गज़ल के स्वरूप को ले कर एक दिलचस्प बहस को जन्म देगी और इस बहस मे उत्तरोत्तर उनके तर्क प्रभावी होते चले जायेंगे – कोई आश्चर्य नहीं कि ग़ज़ल के जिस स्वरूप के वो पैरोकार हैं उसी को अंतत: सर्वमान्य स्वीकार किया जाय। इस समय आवश्यकता ग़ज़ल के देवनागरी स्वरूप को एक स्वीकार्य प्रारूप देने की है। नुक्ता , बहर वज़्न और तलफ़्फ़ुस पर देवनागरी ग़ज़लकारों को लम्बे समय से मायूस किया जाता रहा है और इस समूह को अर्से से किसी सशक्त विचारधारा और नायक की तलाश है जो मान्य ग़ज़ल की विचारधारा के साथ वैसी ही गज़लें कह कर भी उनका पथ प्रदर्शन करे। डा0 श्याम सखा श्याम के रूप में शायद दिशा और निर्देशक दोनो ही ग़ज़ल को प्राप्त हो गये हैं।
मस्तमौला व्यक्तित्व डा. श्याम सखा श्याम |
शुक्रिया-ज़िन्दगी मानदण्ड भी है और मील का पत्थर भी और इस परिप्रेक्ष्य में जितनी कीमती इस संकलन की गज़लें हैं उतने ही कीमती इसके आलेख भी हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में की –लेकिन हर अध्याय के आरम्भ में संस्कृत के श्लोक लिख कर उन्होंने पण्डितों को यह बता दिया कि उनमें सामर्थ्य काशी के सभी पण्डितों से अधिक है परंतु वे उस भाषा में ही रचना करेंगे जो जनसामान्य के ह्रदयों तक अपनी पैठ बना सके। डा साहब ने भी "ज़ख़्म था ज़ख़्म का निशान भी था" और इतने "नाज़ुक सवाल मत पूछो" जैसी कई मेयारी गज़लें कह कर विद्वानों को संकेत दे दिया है कि ग़ज़ल की स्तरीयता को ले कर उनकी गज़ल से सवाल नहीं किया जा सकता। साथ ही लड़कियों की ज़िन्दगी और गलतियाँ.. जैसी नितांत अप्रचलित रदीफें लेकर उन्होने प्रयोगधर्मिता का परचम भी बुलन्द रखा है। संकलन में छोटी बहर की अनेक शानदार प्रस्तुतियाँ हैं तो तवील बहर पर भी अधिकारी सृजन किया गया है। तख़ल्लुस का कमोबेश बेहद सुन्दर इस्तेमाल हर मक्ते में किया गया है।हर गज़ल में बहर का नामकरण भी है जो कि परम्परा के प्रति उनका सम्मान का भाव प्रदर्शित करता है। साथ ही उन्होंने ग़रीब शब्दो को भी वक़ार दिया है जहाँ-जहाँ गज़ल की रदीफ को किसी विशिष्ट लहजे की दरकार हुई है वहाँ डा. साहब की गज़ल ने भावभूमि के साथ पूरा न्याय किया है।
मिले हैं आज जो हम तुम अचानक
ये सच है या कोई सपना कहो ना
कि बस..... रदीफ में भी लहजा बरकरार रखा है। कहीं कहीं चमत्कृत करने वाले मनाज़िर भी हैं
खुदकुशी ठान ली चरागों ने
आँधियाँ बदहवास बैठी हैं
रूह रौशन हुई मुहब्बत से
जिस्म बेशक बहुत पुराना था
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूँ किस्तों में बिकना पड़ा शयाम मुझको
उनकी गज़ल पर्यावरण संचेतना जैसे समकालीन गम्भीर मुद्दों पर भी सचेष्ट है--
आँधियाँ बदहवास बैठी हैं
रूह रौशन हुई मुहब्बत से
जिस्म बेशक बहुत पुराना था
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूँ किस्तों में बिकना पड़ा शयाम मुझको
उनकी गज़ल पर्यावरण संचेतना जैसे समकालीन गम्भीर मुद्दों पर भी सचेष्ट है--
जंगल गर ओझल होगा
नभ भी बिन बादल होगा
नभ भी बिन बादल होगा
और उनके अन्दर का अध्येता भी कई अशआर में नुमाया हुआ है –मसअलन –कालिसदास की मेघदूत के आषाढस्य प्रथम दिवसे....के मंज़र को याद दिलाने वाला शेर...
करे मेघ से श्याम फरियाद यारों
मेरे दर्द आज उनको जा कर सुनायें
और मीर तक़ी मीर के शेर “गोर किस दिलजले की है ये फ़लक.....
कौन सोया है यहाँ पर कैस राँझा या सखा
रोज ही इस कब्र से उठता धुँआ है दोस्तो
कहीं बहुत आसानी से कहे गये यादगार शेर भी हैं
मुझे छोड़ कर तुम कहाँ जा रहे हो
हमी दो तो हैं इस सफर के मुसाफिर
गज़ल राज दरबारों से निकल चुकी है –जामो-मीना-साक़ी का मरहला पार कर चुकी है – अंग्रेज़ी के शब्दों और इक्कीसवीं सदी के भाषागत परिवर्तनों को आत्मसात कर चुकी है –इसकी अपार लोकप्रियता का 90% श्रेय देवनागरी पाठकवर्ग और श्रोतावर्ग को जाता है क्योंकि यदि यह वर्ग न पसन्द करता तो गज़ल के दायरे बेहद मुख़्तसर होते। और इसीलिये यह भी आवश्यक है कि गज़ल के जिस स्वरूप को यह वर्ग अंतिम मान्यता दे वही इसका अधिकृत स्वरूप भी होना चाहिये।
कौन सोया है यहाँ पर कैस राँझा या सखा
रोज ही इस कब्र से उठता धुँआ है दोस्तो
कहीं बहुत आसानी से कहे गये यादगार शेर भी हैं
मुझे छोड़ कर तुम कहाँ जा रहे हो
हमी दो तो हैं इस सफर के मुसाफिर
गज़ल राज दरबारों से निकल चुकी है –जामो-मीना-साक़ी का मरहला पार कर चुकी है – अंग्रेज़ी के शब्दों और इक्कीसवीं सदी के भाषागत परिवर्तनों को आत्मसात कर चुकी है –इसकी अपार लोकप्रियता का 90% श्रेय देवनागरी पाठकवर्ग और श्रोतावर्ग को जाता है क्योंकि यदि यह वर्ग न पसन्द करता तो गज़ल के दायरे बेहद मुख़्तसर होते। और इसीलिये यह भी आवश्यक है कि गज़ल के जिस स्वरूप को यह वर्ग अंतिम मान्यता दे वही इसका अधिकृत स्वरूप भी होना चाहिये।
उन्होंने गीत ग़ज़ल और नज़्म को कहीं कहीं यकज़ा कर दिया है—
मन्मोहक अन्दाज़ तुम्हारे ......
पल में तोला पल में माशा......
खारा है सचमुच खारा है........
पल में तोला पल में माशा......
खारा है सचमुच खारा है........
और तब्स्रानिगारो तनक़ीदकारो आलोचको को भी चेतावनी दे दी है--
सवाल आप हैं गर तो जवाब हम भी हैं
हैं आप ईंट तो पत्थर जनाब हम भी हैं
यारियाँ , अट्टारियाँ , धारियाँ , लाचारियाँ , आरियाँ जैसे प्रचलित लेकिन गज़ल में कम इस्तेमाल होने वाले शब्दो को स्थान दिलाया है। लड़कियों की ज़िन्दगी ग़ज़ल तो सामाजिक चिंतन का खण्ड काव्य है । वो चाहते तो कामिल शायर बनकर सरसब्ज़ हो सकते थे लेकिन वैयक्तिक तुष्टीकरण का रास्ता न पकड़कर उन्होंने प्रयोगधर्मिता और और प्रथम दृष्टया हठधर्मिता का रास्ता अख़्तियार किया है –यह उस नदी का सफर है जो अपने किनारे इसलिये काटती है ताकि अगम्य और उपेक्षित ज़मीनें शादाब हो सकें।
डा श्याम सखा श्याम एक शायर या साहित्यकार भर का नाम न हो कर एक मिशन और मुहिम का नाम है । वो दीदावर हैं जिन्होंने भाषा के मान्य स्वरूप और ग़ज़ल विधा के संतुलित मान्य स्वरूप का मानक आने वाले वक़्तों के लिये देख लिया है। ग़ज़लकारों क एक बड़ा तबका ऐसी पहल के लिये मुंतज़िर और बेचैन भी है। अब आवश्यकता है कि वे इस आबयारी को मुसल्सल जारी रखें ताकि जैसे उनकी गज़लें रंग और खुश्बू से अपना रिशता बरकरार रखते हुये अपना मूल्य और मान्यता भी बनाये रखती हैं वैसे ही उनके अनुयायी भी उल्लेखनीय सृजन करें ।
हैं आप ईंट तो पत्थर जनाब हम भी हैं
यारियाँ , अट्टारियाँ , धारियाँ , लाचारियाँ , आरियाँ जैसे प्रचलित लेकिन गज़ल में कम इस्तेमाल होने वाले शब्दो को स्थान दिलाया है। लड़कियों की ज़िन्दगी ग़ज़ल तो सामाजिक चिंतन का खण्ड काव्य है । वो चाहते तो कामिल शायर बनकर सरसब्ज़ हो सकते थे लेकिन वैयक्तिक तुष्टीकरण का रास्ता न पकड़कर उन्होंने प्रयोगधर्मिता और और प्रथम दृष्टया हठधर्मिता का रास्ता अख़्तियार किया है –यह उस नदी का सफर है जो अपने किनारे इसलिये काटती है ताकि अगम्य और उपेक्षित ज़मीनें शादाब हो सकें।
डा श्याम सखा श्याम एक शायर या साहित्यकार भर का नाम न हो कर एक मिशन और मुहिम का नाम है । वो दीदावर हैं जिन्होंने भाषा के मान्य स्वरूप और ग़ज़ल विधा के संतुलित मान्य स्वरूप का मानक आने वाले वक़्तों के लिये देख लिया है। ग़ज़लकारों क एक बड़ा तबका ऐसी पहल के लिये मुंतज़िर और बेचैन भी है। अब आवश्यकता है कि वे इस आबयारी को मुसल्सल जारी रखें ताकि जैसे उनकी गज़लें रंग और खुश्बू से अपना रिशता बरकरार रखते हुये अपना मूल्य और मान्यता भी बनाये रखती हैं वैसे ही उनके अनुयायी भी उल्लेखनीय सृजन करें ।
चंद अशआर
उनकी बातें हुई झिडकियों की तरह
जख्म मेरे खुले खिड़कियों की तरह
दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था
कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूं किश्तों में बिकना पड़ा श्याम मुझको
है घाटे का सौदा मुहब्बत सदा
हिसाब अब लिखें कि जुबानी करें
हकीम ने तो कह दिया दवा नहीं मरीज की
दुआ भी गर करे नहीं करे भला क्या आदमी
असीमित शुभकामनाओं सहित
मयंक अवस्थी |
मयंक अवस्थी
आ-4/13 रिज़र्व बैक कालोनी
तिलक नगर , कानपुर –208002
+91 78 977 16 173
पुस्तक flipcort.com पर on line उपलब्ध है
शायर से संपर्क कर के भी क़िताब मँगवाई जा सकती है
डा. श्याम सखा 'श्याम'
+91 94163 59019
shyamskha1973@gmail.com
मूल्य- २०० रू है लेकिन ठाले बेठे के फ़ालोअर को यह क़िताब विशेष रियायत पर यानि सिर्फ़ १२० रू में रजिस्ट्रड डाक से प्राप्त कर सकते हैं।
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डा. श्याम सखा 'श्याम'
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मूल्य- २०० रू है लेकिन ठाले बेठे के फ़ालोअर को यह क़िताब विशेष रियायत पर यानि सिर्फ़ १२० रू में रजिस्ट्रड डाक से प्राप्त कर सकते हैं।
आदरणीय श्याम सखा ’श्याम’ की किसी कृति पर आदरणीय मयंक जी का तब्सिरा, यानि सोने पर सुहागा.. !
जवाब देंहटाएंजिन विन्दुओं के झंडाबरदार आदरणीय श्यामजी हैं या जिन विन्दुओं को प्रस्तुत समीक्षा में बेहतर ढंग से उठाया गया है वे विन्दु ग़ज़लों की दुनिया में आज मात्र आग्रह न होकर स्पष्ट मांग की तरह उभरे हैं. संशय ही नहीं कि ग़ज़ल को लिपि के लिहाज़ से देवनागरी में ले आना इसके पुनर्जीवित होने का बेहतर कारण बना है.
इस समीक्षा में कई ऐसे विन्दु साझा हुए हैं जिनके प्रति बस ’आम’ कह कर आगे पढ़ते/बढ़ते जाना ही उचित लगा है. यह लेखक और पाठक के मध्य हो रहे संवाद के एक-तार होने का परिचायक है.
अपने शुरुआती दौर में हर नया ग़ज़लकार अप्रचलित या ज़मीन से हटकर जीते हुए शब्दों के साथ बाज़ीग़री और ज़ादूग़री करता है. लेकिन भावों और प्रस्तुतियों के संयत होते-न-होते उसकी भाषा अपने आप उनके लिए होती चली जाती है, जो ग़ज़लकार की प्रस्तुतियों और संप्रेषण के वास्तविक हेतु हैं. ’बोलचाल की आम भाषा’ जैसी किसी संज्ञा का मैं भी धुर विरोधी हूँ. किन्तु, जिनके लिए भावोद्गार हैं, यदि वे ही इसका आनन्द ले पाये तो फिर क्या उद्बोधन, क्या निवेदन या फिर कैसा कहना ?!
मैं श्यामजी को उनके इस संग्रह ’ शुक़्रिया ज़िन्दग़ी’ पर सादर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ.
मयंकभाई जी ने जिस अंदाज़ में इस संग्रह से संबंधित बातें साझा की हैं वे इसके प्रति आवश्यक उत्सुकता बढ़ा देने के लिए पर्याप्त हैं. लेकिन प्रकाशक, संग्रह प्राप्ति का पता, मूल्य आदि की चर्चा न होने से अति आवश्यक का छूटा-छूटा-सा होना गया है.
सादर
Mayank ji ne Shyam sakha ji ki kruti ke saath poora insaaf karate hue use bhasha, vichar aur abhivyakti se ek onchee udaan di hai
जवाब देंहटाएंBahut Bahut Badhayi aur shubhkamnayein