सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
धर्मेन्द्र भाई के अद्भुत छन्द पढे हमने पिछली पोस्ट में। परंतु इतने सुंदर छंदों पर इतने कम कमेंट्स!!!!!!!!!! खैर, हमें तो अपना काम ज़ारी रखना है। आइये आज पढ़ते आ. आशा दीदी के अनोखे छन्द। कल्पना और शब्दकारी का एक और अनोखा संगम।
आशा सक्सेना |
जिस साधना की नव विधा के, स्वर सिखाये आपने।
वो गीत गाये गुनगुनाये, जो सुनाये आपने।।
वो गीत गाये गुनगुनाये, जो सुनाये आपने।।
वो थे मदिर इतने कि कानों - में, मधुरता चढ़ गयी।
है गीत की यह रीत, गाने - की विकलता, बढ़ गयी।१।
है गीत की यह रीत, गाने - की विकलता, बढ़ गयी।१।
वह गीत गाती, गुनगुनाती, वादियों में घूमती।
मौसम मधुर का पान करती, मस्तियों में झूमती।।
ढेरों किये तब जतन उसने, आपसे दूरी रही।
मिलना न था सो मिल न पाई, क्वचिद मज़बूरी रही।२।
मिलना न था सो मिल न पाई, क्वचिद मज़बूरी रही।२।
बीते दिनों की याद उसको, जब सताने लग गयी।
तब याद जो मुखड़े रहे, वह, गुनगुनाने लग गयी।।
वह आत्म विस्मृत भटकनों में, भटकती जीने लगी।
फिर भूल कर सुध-बुध, मगन-मन, भक्ति-रस पीने लगी।३।
फिर भूल कर सुध-बुध, मगन-मन, भक्ति-रस पीने लगी।३।
तब तोड़ कर बंधन जगत से, प्रभु भजन में खो गयी।
अनुरोध मन का मान कर, वह, कृष्ण प्यारी हो गयी।।
हर श्वास में प्रभु थे बसे, वश, लेश, तन-मन पर न था।
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था।४।
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था।४।
मन में कुछ आया और लिख दिया, यूँ तो यह भी रचनाधर्म ही होता है। परंतु किसी दिये गए कार्य को पूरी तन्मयता से करना वह भी अनुशासित ढंग से - कल्पनाओं के कपोतों को उच्च गगन में उड़ाते हुए - इसे अद्भुत रचनाधर्म कहा जाता है।
साहित्यिक पर्व समस्या पूर्ति की सघन कसौटी पर सही सिद्ध होते ऐसे सुंदर-सुंदर छंदों पर टिप्पणियों के लिए अनुरोध की आवश्यकता है क्या? अब ??
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जय माँ शारदे!
* आदरणीया आशा अम्मा *
ReplyDeleteसादर प्रणाम !
आपके इतने सुंदर छंद पढ़ कर मन आनंदित हो गया …
तब तोड़ कर बंधन जगत से, प्रभु भजन में खो गयी।
अनुरोध मन का मान कर, वह, कृष्ण प्यारी हो गयी।।
हर श्वास में प्रभु थे बसे, वश, लेश, तन-मन पर न था।
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था
मन मुग्ध हो गया मेरा… इन पंक्तियों को पढ़ कर …
वाह वाऽऽह !
निस्संदेह नवीन जी को साधुवाद है …
हरिगीतिका की इस शृंखला में अब तक जितने रचनाकारों के छंद यहां प्रकाशित हुए हैं , उन सबको श्रेष्ठ प्रयासों के लिए बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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ReplyDeleteनवीन जी
निराश न हों …
अभी गूगल की बहुत सारी समस्याओं के चलते जो जहां पहुंचना चाह रहे हैं , मार्ग अवरुद्ध मिल रहे हैं :)
बहुत सारे ब्लॉग खुल नहीं रहे , कई जगह कमेंट नहीं हो पा रहे , ब्लॉग्स की अपडेट नहीं आ रही , कुछ मेल आई डीs निष्क्रिय चल रही हैं …
आपने जहां जहां फाइनल टच दिया है … निखार स्वयं बोल रहा है … :)))
आशा दीदी की इतनी सुन्दर प्रस्तुति ने तो मुझे भी भक्ति रस में डुबो दिया है आज ! बहुत ही रसपूर्ण प्रस्तुति ! आपको व उन्हें भी बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteभक्ति भाव में साराबोर करने वाले इन छंदों के लिए आशा जी को बहुत बहुत बधाई। इस आयोजन में कोई रस बाकी नहीं रह जायगा इसका मुझे विश्वास है। नवीन भाई को बहुत बहुत साधुवाद ऐसा आयोजन करने के लिए।
ReplyDeleteधर्मेन्द्र कुमार सिंह
आशा जी सादर प्रणाम !! बहुत सुन्दर छंद सृजन किया है आपने . मेरे पास कोई शब्द नहीं तारीफ़ के लिए | बस इतना कह सकता हूँ की मन मंत्र मुग्ध हो गया |
ReplyDeleteवाह! वाह !!वाह!!!
दीदी बहुत सुंदर - अदभुद - हमें इतना तकनीकी ज्ञान तो नही हैं पर पढ़ने के बाद जब अच्छा लगता है तो तारीफ कर देते हैं - वाकई मैं बहुत सुंदर | मधुरम चतुर्वेदी
ReplyDeletebahut sundar ..
ReplyDeletepravahmayi chhand-rachna.
SUNDAR RACHNA HAI . BAHUT BADHAAEE .
ReplyDeleteaasha ji pahle bhi padha hai aapko.aaj bhi padhkar bahut accha laga.aabhar
ReplyDeleteआप सब की टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद |इसी प्रकार उत्साह वर्धन करते रहें |नवीन जी का आभार इस कठिन कार्य को करने की प्रेरणा देने के लिए |
ReplyDeleteआशा
भक्ति रस की चाशनी में सराबोर सभी छंद बहुत मनमोहक बने हैं, और आत्मा को ठंडक प्रदान करते हैं ! मेरी दिली बधाई स्वीकार करें आदरणीया आशा सक्सेना जी !
ReplyDeleteभक्तिमय छंदों की सुषमा खूब सजी है!
ReplyDeleteआशा जी को बधाई!
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था-- सूली ऊपर सेज पिया की और कसौटी प्रेम की यही है कि प्रेम गली अति साँकरी --जा में दोऊ न समायें ---
ReplyDeleteपूज्या !! आशा जी !!आपने मीरा की व्यथा और अनुभूति दोनो को मुखर किया लेकिन यह कह कर --हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था--इस व्यथा और अनुभूति को एक शाश्वत उपलब्धि भी बना दिया जोकि एक सच है -- मीरा की विरह वेदना ने इस आध्यत्मिक जीवन-मूल्य को प्रछन्न कर रखा है--अधिकाँश साहित्य उसके विरह पक्ष से पटा पड़ा है--लेकिन मीरा ने क्या पाया ये इतना सुन्दर व्यक्त हुआ है कि ये पंक्तियाँ -हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था-- कभी न भूलेंगी -- आपकी लेखनी को शत शत नमन !!!
आशा जी के इन छंदों ने भक्तिरस की जो धारा प्रवाहित की है उससे वाकई मीराबाई के छंदों की याद आ गई। हृदय से बधाई इन छंदों के लिए
ReplyDeleteकल 02/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
नई पुराणी हलचल में फिर से अपनी रचना पढ़ी और उस पर आप सब की टिप्पणियाँ मन उत्साह से भर गया |इसी तरह प्रोत्साहन देते रहिये |एक बार फिर आभार आप सब का मेरी पोस्ट पट टिप्पणी के लिए |
ReplyDeleteआशा