साहित्य
समाज से कटता जा रहा है। पाठक और श्रोता कम हो रहे हैं। ये एक तथ्य है और इस के कारण
साहित्यकारों में ये विचार आम है कि हम सही काम नहीं कर पा रहे। कुछ अधूरापन, लक्ष्य
से भटकाव आ गया है। हमारा काम समाज के हित-अहित को उदघाटित, परिभाषित करना है। हम जिस
समाज का अंग हैं उसके संरक्षण,संवर्धन का लक्ष्य ही साहित्य का लक्ष्य होना चाहिये।
ऊपरलिखित वाक्यों में ही हिंदी-उर्दू साहित्य की दुर्दशा, समाज से कट जाने, मूलविहीन
हो जाने की गाथा छिपी हुई है।
1947
में लगभग दो तिहाई भारत स्वतंत्र हुआ। ये वो समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
विश्व भर में मंदी थी। समाज अभावों से घिरा था। करोड़ों लोग मारे गये थे। विस्थापित,
बरबाद हुए थे। ये समय आँखों से सपने छिन जाने, जीवन के ताने-बाने के उधड़ जाने,बिखर
जाने का था। सृष्टि में निर्वात कहीं नहीं रहता। ज़ाहिर है इस शून्य को भी भरा ही जाना
था। मज़ेदार बात ये है कि आँखों में वापस सपने सजाने की घोषणा उन लोगों ने की जिन्होंने
अभी-अभी सपने उजाड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी राष्ट्र जर्मनी, इटली का अनन्य
सहयोगी रूस था और इस कारण सारी दुनिया के कम्युनिस्ट उसकी ढपली बजा रहे थे। अच्छे-ख़ासे
समय तक ये युद्ध के आक्रामक पक्ष में बने रहे। हिटलर की मदद करते रहे। बाद में हिटलर
ने रूस पर हमला कर दिया तो रातों-रात धुरी राष्ट्रों के विरोधी हो गये। जिस समय रूस
की सीमाओं पर जर्मनी की फ़ौजें करोड़ों रूसियों को मार रही थीं, उसी काल में स्टालिन
के नेतृत्व में रुसी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने ही करोड़ों नागरिकों की हत्या कर रही
थी।
वो
राजनैतिक विचारधारा जिसने अपने ही करोड़ों लोगों को मार डाला मज़दूरों,किसानों, कमज़ोर
वर्गों की हितैषी होने का ड्रामा करती थी। नेहरू वामपंथ के प्रति भावुक थे और उनके
हिमायतियों के प्रति उदार थे। इस उदारता के कारण पद, प्रतिष्ठा, धन पाने के लिये रोमांटिक
मुखौटा लगाये हथौड़ाधारी हत्यारी विचारधारा का पोषण साहित्यकारों का का उद्देश्य बन
गया। साहित्य की श्रेष्टता इस बात से तय होने लगी ‘ पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या
है ‘ जो इस ख़ेमे में नहीं वो साहित्यकार नहीं। साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी विचारधारा
ही हो सकती है। साहित्य से समाज से कटते जाने के लिये ये सोच और इसका क्रियान्वन ज़िम्मेदार
है। यहाँ प्रश्न ये है की ये कसौटी ठीक भी है ?
जयशंकर
प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त जैसे लोग मुक्तिबोध द्वारा रचित इस कसौटी
के कारण कवि नहीं रहते और निराला ‘सुन बे गुलाब’ लिखने के कारण कवि हो जाते हैं। इसी
से जुडी है साहित्य को हाशिये पर धकेले जाने की दुखद गाथा। साहित्य मूलतः अपने को व्यक्त
करने की प्रक्रिया है। इसी का विस्तार अपने से सम्बंधित अन्यों को उद्घाटित करने में
भी होता है। यहाँ उल्टा हुआ प्रक्रिया की जगह लक्ष्य तय कर दिये गये। राष्ट्रवादी विचारधारा
किसी भी वैश्विक विचारधारा चाहे वो मार्क्सवाद हो, चाहे इस्लाम हो, के अन्त-पन्त विरोध
में जाती है। अतः राष्ट्रवाद की जड़ में मट्ठा डालना रणनीतिक ज़ुरूरत बनी। राष्ट्र
की, राष्ट्रवाद की रगड़ाई करनी है ….उग्रवाद, आतंकवाद चूंकि राष्ट्रवाद को नुक़सान
पहुंचता है, इसलिये उस पर मौन रहना रणनीतिक हथियार बने। साहित्य स्व के विस्तार की
प्रक्रिया की जगह कुछ तयशुदा फ्रेमों में विचार ठूंसने का नाम हो गया।
जैसे
एक चालक वकील सच और झूट के चक्कर में नहीं पड़ता। अपने मुक़द्दमे को जीतने के लिये
दोनों तरह के दाँव-पेच इकट्ठे करता है, आज़माता है। उसी तरह लक्ष्य तय हुआ साम्यवादी
विद्रोह … उपलक्ष्य तय हुआ राष्ट्र की शक्तियों का कमज़ोर किया जाना। राष्ट्र का विरोध
करने वाली सभी शक्तियों से हाथ मिलाना।
ये
अकस्मात नहीं है कि देश के विभाजन का कारण बनी मुस्लिम लीग को विभाजन का दर्शन और तर्क
के तीर-तमंचे कम्युनिस्ट पार्टी के सज्जाद ज़हीर ‘बन्ने भाई’ सप्लाई किये। सज्जाद ज़हीर
जिनके साम्प्रदायिकता के विरोधी होने की बातें करते कम्युनिस्ट लोग नहीं थकते, अंततोगत्वा
पाकिस्तान चले गये। अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी जैसे लोग कभी मुस्लिम लीग, जमाते-इस्लामी
पर कभी कुछ नहीं बोले, हाँ राष्ट्रवादियों के नाम पर इनके मिर्चें लगती रहीं। ये दो
नाम तो समुद्र में तैरते हिम खंड की तरह केवल नोक हैं। ऐसे असंख्य लोग हैं जिनके सतत
राष्ट्रवाद के विरोध को देख कर ऐसा लगता है जैसे महमूद गज़नवी ने मूर्ति-भंजन करने
के लिये हरे की जगह लाल कपडे पहन लिये हों। ये वही लोग हैं जो उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार
किशन चंदर के सलमा सिद्दीक़ी से विवाह करने के लिये मुसलमान बनने का दबाव डालते हैं
और उसके बाद निकाह कराते हैं। उर्दू की प्रसिद्ध कहानीकार इस्मत चुगताई की अंतिम इच्छा
‘मैं मिट्टी में दब कर अपना जिस्म कीड़ों को नहीं खिलाना चाहती। मुझे इस ख़याल से ही
घिन आती है। मुझे मरने के बाद जलाया जाये’ पर इतने बौखला जाते हैं कि मुंबई में उनके
जनाज़े में केवल एक मुसलमान उनके पति ही शरीक होते हैं। कैफ़ी आज़मी, शबाना आज़मी,
जावेद अख्तर जैसों का साम्यवाद हवा हो जाता है, मुल्लाइयत चढ़ बैठती है।
इस्लाम
की अपनी समझ है और वो काफ़िरों, मुशरिकों, मुल्हिदों, मुर्तदों के प्रति भयानक रूप
से क्रूर है। इस हद तक कि इस्लामी न्यायशास्त्र के 4 इमामों में से केवल एक काफ़िरों
को जज़िया देने और ज़िम्मी बन कर रहने पर ही जीवित छोड़ने का अधिकार देते हैं, बाक़ी
को वो भी जिंदा नहीं छोड़ने की व्यवस्था देते हैं। शेष तीन इमाम किसी भी स्थिति में
इन सब को जिंदा नहीं रहने देना चाहते। कम्युनिस्ट मुल्हिदों में आते हैं। होना ये चाहिये
था कि एक आतताई के दो पीड़ित एक हो जाते मगर हुआ उल्टा कि कम्युनिस्टों और इस्लाम ने
राष्ट्रवाद के विरोध में हाथ मिला लिये। देश से सम्बंधित हर बात के विरोध में खड़े
हो गये, शत्रुता निभाने लगे। एफ़ एम हुसैन की दुष्ट पेंटिंगों के पक्ष में खड़े होना,
सहमत की धूर्तताओं का बचाव करना, रोमिला थापर द्वारा महमूद गज़नवी में गुणों को ढूँढने
और उसके बचाव में किताब लिख मरने को आख़िर किस तरह समझा जा सकता है
मार्क्स
के मनमाने सिद्धांत ‘समाज का विकास द्वंद से होता है’ के आधार पर साहित्य में भी सदैव
द्वंद खड़े किये गए,रोपे गये। कविता की छंद से मुक्ति, फिर विचार से मुक्ति, फिर एब्सर्ड
लेखन जैसे बेसिरपैर के वाद चलाये ही इस लिये गये। कविता का आधार छंद मार्क्सवाद की
नारेबाज़ी पालकी ढो ही नहीं सकता था। उसे परोसने के लिये कविता के मानकों में तोड़फोड़
करनी ज़ुरूरी थी। नयी कविता के नाम पर मुक्तिबोध से प्रारंभ कर राजेश जोशी , अनुज लुगुन
तक जो परोसते हैं वो कल्पित ब्योरों, अपठनीयता से भरा हुआ है। वो सब रौशनाई से दूर
केवल सियाही का अंकन है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यकों पर प्रलाप जानबूझ
कर किये जा रहे ऐसे ही विलाप हैं जिनके कारण पाठक भाग खड़ा हुआ है। आख़िर राग दरबारी
के पचीसों संस्करण क्यों निकलते हैं और विष्णु खरे की किताब खोटी क्यों साबित होती
है ? उबाऊ होने की सीमा का अतिक्रमण करती, आत्महत्या या हत्या पर उकसाने वाली रचनायें
या किताबें किसी को कोई पढ़वा तो नहीं सकता। अकादमी के पुरस्कार पाठक तो नहीं दिला
सकते।
इस
देश की मिट्टी से जुड़े, अपने समाज के पक्ष में खड़े लोगों पर आरोप चस्पां करने के
लिये उन्हें फ़ासीवादी, संस्कृतिवादी, राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, प्रतिक्रियावादी,
शुद्धतावादी, आदर्शवादी और न जाने कैसे-कैसे शब्द गढ़ डालने वाले इन साम्यवादियों की
छन-फटक की जाये तो ये स्वयं इसी परिभाषा में आते हैं। आइये इनके सबसे प्रिय आरोप फ़ासीवाद
को ही लेते हैं। फ़ासीवाद मोटे तौर पर उस विचारधारा को कहते हैं जो अपने से असहमत हर
विचार को ग़लत मानती है, नष्ट का देने योग्य समझती है। जिस विचारधारा के हाथ में शासन
सूत्र आने पर प्रत्येक दूसरी विचारधारा को नष्ट किया जाता है। जिसके समय में कोई स्वतंत्र
प्रेस नहीं होता। स्वतंत्र न्याय-पालिका नहीं होती … लगभग तानाशाही होती है। इस परिभाषा
पर सारे साम्यवादी देश और इस्लामिक शासन-प्रणाली ही खरे उतरते हैं। यही विचारधारायें
अपने अलावा किसी को भी वर्ग-शत्रु या काफ़िर घोषित करके उसको समूल नष्ट करने के तर्क
गढ़ती हैं / वाजिबुल-क़त्ल ठहरती हैं। कोई वकील, कोई दलील, कोई अपील कुछ नहीं।
भारत
का वैशिष्ट्य ही यही है कि हम एक दूसरे की धुर विरोधी विचारधाराओं का सहजीवन संभव बनाते
हैं। हम इस माफियागर्दी को भी अपनी बात कहने का अवसर देते हैं। इसी कारण हम लोकतंत्र
हैं।
हँस
पत्रिका के वार्षिक कार्यक्रम में ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध’ विषय पर आयोजित गोष्ठी
में स्वीकृति देने के बाद भी वरवरा कवि और अरुंधती रॉय का न दिल्ली आ कर भी अंतिम क्षण
में न आना इसी बात की पुष्टि करता है। वरवरा कवि का स्पष्टीकरण आया है कि उन्होंने
ऐसा इस लिये किया कि उन्हें इस मंच पर अशोक बाजपेयी और गोविन्दाचार्य के साथ बैठना
था। ये दोनों नाम देश के प्रतिष्ठित नाम हैं। कोई भी श्री अशोक बाजपेयी और श्री गोविन्दाचार्य
से असहमत हो सकता है मगर उन्हें अस्पृश्य समझना ? अपनी मनमानी सोच को इस हद तक सही
समझना कि अपने से इतर किसी की बात को सुने बिना रद कर देना, फ़ासीवाद है। साम्यवादी
हमेशा यही करते आ रहे हैं और आरोप दूसरों पर लगाते हैं।
जब
तक साहित्य इन अंगुलिमालों से मुक्त नहीं होता, पठनीय साहित्य नहीं उभर सकता। पाठक,
श्रोता इन बेहूदगियों के कारण ही साथ छोड़ गया। भारतीय स्वभाव से ही शांतिप्रिय हैं।
वो इस कोलाहल से भरे तांडव को पसंद नहीं करते। समाज में एक बड़ी शक्ति ये भी होती है
कि वो किसी भी तीसमारखां की अवहेलना करके आगे बढ़ जाता है। इसे गौर से देखिये …..वो
आगे बढ़ गया है। वो मुशायरे, कवि-सम्मेलन में जाता है। वो श्री लाल शुक्ल, शिवानी,
ज्ञान चतुर्वेदी को खोज कर पढ़ता है। उसे नरेन्द्र कोहली की राम कथा, महासमर पसंद हैं।
वो सुनील लोढा द्वारा संचालित कार्यक्रम सुनता है। अपनी प्यास बुझाने के लिये वो पचासों
तरीक़े अपनाता है किन्तु अकादमी पुरस्कार से सम्मानित स्वयंभू महाकवियों, लेखकों की
किताबें की 100 प्रतियां भी नहीं ख़रीदता।
साम्यवाद
में एक रोमांटिक अपील होती है। साम्यवाद चूँकि दुनिया भर में कूड़ेदान में फेंका जा
चूका है इसलिये भारत में ये बिरादरी अब अपने आप को पोलिटिकल एक्टिविस्ट, मानवाधिकार
कार्यकर्त्ता बताने लगी है। यहाँ एक एक कहानी का ज़िक्र करना उपयुक्त होगा जिसमें एक
तवायफ़ पुलिस के पकड़ने पर अपने आप को सोशल वर्कर बताती है और अपने काम को समाज सेवा
कहती है। उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के अनुसार ‘जो चीज़ अक़्ल के
ज़रिये खोपड़ी में नहीं घुसी वो अक़्ल के ज़रिये बाहर कैसे निकलेगी।’ तो साहिबो साहित्य
में पाठक अपने आप नहीं लौटेंगे। इसके लिये साहित्य की दिशा तय करने वाले, साहित्य पर
क़ब्ज़ा जमाये लोगों की सफ़ाई आवश्यक है। ये कूड़ा विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों,
पत्रिकाओं में बुहारी लगाये बिना बाहर नहीं जाने वाला।
तुफ़ैल
चतुर्वेदी
लिखने वाले बने रहेंगे,
जवाब देंहटाएंपढ़ने वाले बने रहेंगे,
हम क्यों उन पर अश्रु बहायें,
शब्द सदा ही तने रहेंगे।
काफ़ी मेहनत से लिखा गया अच्छा आलेख है। मैंने फ़ेसबुक पर भी साझा कर दिया है। ये भी एक नज़रिया है देखने का, इसका भी स्वागत है।
जवाब देंहटाएंहर शब्द को गौर से पढा........कुछ कहेनी की स्थिती मेण नही हु........................
जवाब देंहटाएंयह सचमुच एक मीमांसात्मक आलेख है. जो समाज और साहित्य से जुड़े हर व्यक्ति को कुछ सोचने के लिए अवश्य विवश करता है.
जवाब देंहटाएंजिंदाबाद ... ऐसे लाजवाब लेख की जितनी भी तारीफ़ हो कम है ... खरी खरी सब को ... जरूरत है इसकी आज ...
जवाब देंहटाएंपाठक तो वर्तमान में भी है, किन्तु संसार में धनकामुकता इस प्रकार से व्याप्त हो गई है कि उन्हें साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, चित्रकार, नेता, अभिनेता आदि सारे ही दार्शनिक दिखते हैं, कोई दो कहानी लिख के पत्रकारिता करने लगता है, कोई दो गाने लिख के अभिनेता बन जा रहा है, कोई खेल खेल में नेता बन जा रहा है, अर्थात जहां कालाधन देखा नहीं की कार वहीँ लगा दिया
जवाब देंहटाएंअब दर्शक,श्रोता, पाठक को समझ नहीं आ रहा की वे इन्हें देखें, सुने, पढ़ें की नेता बनाकर अपने सिर पर बैठाएं
ये कूड़ा विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, पत्रिकाओं में बुहारी लगाये बिना बाहर नहीं जाने वाला।
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख....मगर बुहारी लगाने वाली टीम कौन बनाएगा?
lekh sangraneey hai .
जवाब देंहटाएंThis is a fantastic evolutionary article exposing so called revolutionary movements. Though not 100% agreed, but still get carried away with the writer as he has provided me with many logical and almost convincing points to think upon again and again. I am reading this person for the first time and openly say if writer is not representing any political party, my true respect to his efforts.
जवाब देंहटाएंSamir Tanna
सुन्दर व सटीक आलेख ...
जवाब देंहटाएं-----जब तक साहित्य इन अंगुलिमालों( साम्यवादियों ) से मुक्त नहीं होता, पठनीय साहित्य नहीं उभर सकता...एक दम सत्य तथ्य उद्घाटित किया है ...बधाई.....
---- सबको अपनी बात रखने का अधिकार है ..चाहे वह पूर्ण सत्य हो या न हो वही लेखक ने भी किया है ...बधाई के पात्र हैं |
---क्या करना चाहिए....बुहारी कौन लगाएगा ...कवि-साहित्यकार स्वयं...यदि वह स्वयं ईमानदार है तो....
"कवि जागो और जगाओ,
द्वेष-द्वंद्व अब बहुत लिख चुके,
नवल गीत गाओ |"
"इतिहास पुराण शास्त्रों के,
शुचि भावों को जो दोहराये|
उत्तम कर्मठ नर वीरों की
गाथाओं को गाया जाए|
यदि व्यंग्य व्यवस्थाओं पर हो
तो निराकरण की बात भी हो |
बैठे ठाले रोना-रोना ,
कागज़ से बेईमानी है | "
--- जहाँ तक कविता के छंद मुक्त होने की बात है यहाँ लेखक भ्रम में है कि कोइ कविता छंद-मुक्त भी हो सकती है ( भ्रम यह है कि सिर्फ तुकांत और विशेष गठन वाले शास्त्रीय छंद ही छंद हैं अन्य नहीं जबकि सारे वैदिक मन्त्र अतुकांत छंद हैं )...वह तुकांत या अतुकांत छंदयुक्त हो सकती है ..काव्य में छंद मुक्त नाम की कोइ बस्तु नहीं होती| लय, गति यति युक्त हर कथ्य छंद होता है चाहे वह तुकांत हो या न हो....हमें एक पूर्वाग्रह त्याग के साथ अन्य पूर्वाग्रह नहीं समेटना चाहिए,,
श्याम जी आप ठीक कह रहे हैं। मैं इस बात जो जानता और मानता हूँ। छंद मुक्त, मुक्त छंद, तुकांत, अतुकांत से बहुत आगे जा कर राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अनुज लुगुन, अरुण कमल जैसे अनगिनत लोग काव्य के नाम पर जो मार्क्सवादी मरकट नृत्य कर रहे हैं, मैं उसकी बात कर रहा हूँ। निराला जी इस कबाड़ के प्रवर्तक थे। उनके बाद तो साहित्य गंगा में न जाने कितना पानी बह गया बल्कि अब तो गंगा ही बह गयी।
जवाब देंहटाएंआपके गीत को पढ़ कर इच्छा हुई की lafzgroup.com के लिए आपके गीत लिये जायें। कृपया अपने गीत tufailchaturvedi.com पर भेजिये
तुफ़ैल चतुर्वेदी
क्या तुफैल चतुर्वेदी व अनोनीमस एक ही व्यक्ति हैं.....स्पष्ट करें तो गीत भेजने के सम्बन्ध में सोचा जाए....
जवाब देंहटाएं---- निराला कबाड़ के प्रवर्तक नहीं थे, उनकी आज के साम्यवादियों से कोइ समानता नहीं है,निराला ने नवीन विधा दी, द्वंद्ववाद, असामाजिकता, देश-समाज की बुराई को ही कविता नहीं कहा...
....कोई भी कबाड़, सदानीरा व सत्प्रवह्मान नहीं बन सकता.... कबाड़-प्रवर्तक जैसे ही चला जाता है उसका कबाड़ भी तुरंत विलुप्त हो जाता है..... निराला द्वारा प्रवर्तित अतुकांत कविता वैदिक छंदों से समानधर्मी है अतः आज भी वह धारा प्रवहमान है...एवं नए नए भाव प्रस्तुत कर रही है...
साम्यवादियों ने साहित्य को कितना नुक्सान पहुँचाया या नहीं पहुँचाया, अपने आप में एक विषय है। परन्तु शिष्यों की रचनाओं में ज़बरदस्ती ठुसने को उतावले गुरुजनों, रंग रोगन कर के विचार की परछाई मात्र ऐसे व्यक्तियों को लेखकों / कवियों / शायरों के रूप में प्रस्तुत करते रहने वाले तथा प्रतिभाओं को सरेआम अपमानित करते रहने वाले सम्पादकों / मंच-संचालकों की भूमिकाओं पर गौर करना अवश्य ही ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंकपिल