18 जून 2011

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद, कर जोड़

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


कल अचानक ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया क्यूँ न ब्लॉग के फ़ॉर्मेट में कुछ फेरफार किया जाए| फिर क्या, लग पड़ा, और जो परिवर्तन हुए आप के समक्ष हैं| ब्लॉग के दाएँ-बाएँ वाली पट्टियों को देख कर अपनी राय अवश्य दें| "ई- क़िताब" तथा ठाले-बैठे ब्लॉग की 200वीं पोस्ट पर आप लोगों की प्रतिक्रियाएँ पढ़ कर उत्साह में अभिवृद्धि हो रही है|

समस्या पूर्ति मंच द्वारा घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस छठे चक्र में आज हम उन को पढ़ते हैं जो कई वर्षों से अन्तर्जाल पर छन्दों को ले कर सघन और सतत प्रयास कर रहे हैं|


लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों,
भाई को हमेशा गले हँस के लगाइए|

लात मार दूर करें, दशमुख सा -अनुज,
दुश्मन को न्योत घर, कभी भी न लाइए|

भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें,
नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|

छल-छद्म, दाँव-पेंच, द्वंद-फंद अपना के
राज नीति का अखाड़ा घर न बनाइये||

[सलिल जी का छन्द और शब्दों की कारीगरी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता| 'इंच भर भूमि'
और 'दशमुख सा अनुज' को इंगित कर के आपने 'राजनीति का अखाड़ा' वाली इस
पंक्ति को महाभारत तथा 'रामायण' काल की घटनाओं से जोड़ दिया है]



जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार,
कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|

पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले,
साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|

चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह,
कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|

गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़,
देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||

[क्षृंगार रस में हास्य रस का तड़का, क्या बात है आचार्य जी| चाह, वाह, दाह, आह, अथाह.
प्रवाह जैसे शब्दों से आपने इस छन्द को जो अलंकृत किया है, भई वाह|
'आँख मूँद - कर - जोड़' वाला प्रयोग भी जबर्दस्त रहा]



शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर,
जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|

आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन,
नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|

चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे,
सासू की समधन पे, जग बलिहार है|

गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल,
बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||

[हास्य रस के साथ साथ इस छन्द में अनुप्रास अलंकार की छटा देखते ही बनती है| इस के सिवाय 'माँ' शब्द का एक नया पर्यायवाची शब्द भी पढ़ने में आया है इस छन्द में - 'सासू की समधन']


ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं,
जग है असार पर, सार बिन चले ना|

मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच,
काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|

मनुहार इनकार, इकरार इज़हार,
भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|

रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी,
दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||

[श्लेष अलंकार वाली इस विशेष पंक्ति पर आप के द्वारा 'नार' शब्द के तीन अर्थ लिए गये हैं -
ज्ञान-पानी और स्त्री| आचार्य जी के ज्ञान के बारे में क्या कहा जाए, हम सभी जानते हैं|
इस विशेष पंक्ति वाले विशेष छन्द में आप ने अनुप्रास अलंकार
की जो जादूगरी की है, देखते ही बनती है]


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खुद हमें भी पता नहीं था कि अब तक कुल जमा २८ कवि / कवियत्री इस मंच की शोभा बन चुके हैं| कल गिना तो मालुम पड़ा| आज के दौर में, 'छन्द साहित्य' जैसे कम रुचिकर विषय पर, जुम्मा जुम्मा ६ महीनों के अल्प काल में २८ कवि / कवियत्री, ३३ चौपाइयाँ, १०६ दोहे, ३६ कुण्डलिया और अब तक २० घनाक्षरी छन्दों के अलावा ४२००+ हिट्स के साथ आप लोगों ने जो चमत्कार किया है - उस की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिल रहे| ये आप लोगों के सक्रिय सहयोग के कारण ही सम्भव हुआ है|

हमारे जो साथी किसी कारण वश वर्तमान में हम से दूर हैं, हम दिल से उन का आभार प्रकट करते हैं| मसलन, हमें याद है - इस मंच की सब से पहली प्रस्तुति - जब कंचन बनारसी भाई उर्फ उमा शंकर चतुर्वेदी जी द्वारा दी गई, तो मंच ने किस अंदाज़ में खुशी मनाई थी| कंचन बनारसी भाई, यह मंच आप का सदैव आभारी रहेगा| जिन लोगों ने समय समय पर मंच का मार्गदर्शन किया, उन के लिए भी मंच कृतज्ञ है| आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप लोग इस मंच को नित नई ऊँचाइयाँ प्रदान करने में सदैव आगे रहेंगे|

अगली पोस्ट में पढ़ते हैं विशेष पंक्ति वाले छन्द पर जादू करने वाले अगले जादूगर धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन 'को|

जय माँ शारदे!

24 टिप्‍पणियां:

  1. सलिल जी की रचनाओं ने मन एवं मस्तिष्क दोनों को ही चमत्कृत कर दिया है ! छंद विन्यास पर उनका अधिकार देखते ही बनता है ! तीनों रचनाएं एक से बढ़ कर एक हैं ! उन्हें हार्दिक बधाई एवं अभिनन्दन !

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  2. सलिल जी शब्दों के जादूगर हैं और छंदों के बाजीगर। कितनी भी प्रशंसा की जाए इन छंदों की कम पड़ जाएगी। सलिल जी को हार्दिक बधाई।

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  3. यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.

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  4. नवीन जी!
    वन्देमातरम.
    आपने इस चिट्ठे को नयनाभिराम और अधिक उपयोगी बना दिया बधाई.
    प्रस्तुत चारों छन्दों का सम्यक विश्लेषण कर आपने पाठकों का काम सरल कर दिया है. आभार.
    साधना जी! यहाँ ३ नहीं ४ छंद प्रस्तुत किये हैं. आपको तथा सज्जन जी को धन्यवाद.
    आप तीनों को समर्पित ३ अप्रकाशित घनाक्षरियाँ:
    अपनी भी कहें कुछ, औरों की भी सुनें कुछ,
    बात-बात में न बात, अपनी चलाइए.
    कोई दूर जाये गर, कोई रूठ जाये गर,
    नेह-प्रेम बात कर उसको मनाइए.
    बेटी हो, बहू हो, या हो बेटा या जमाई ही,
    भूल से भी भूलकर, शीश न चढ़ाइए.
    'सलिल' जैसा चाहें आप, वैसा व्यवहार करें,
    राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइए..
    *
    एक देश अपना है, माटी अपनी है एक,
    भिन्नता का भाव कोई मन में न लाइए.
    भारत की, भारती की,आरती उतारकर,
    हथेली पे जान धरें, शीश भी चढ़ाइए..
    भाषा-भूषा, जात-पांत,वाद-पंथ कोई भी हो,
    हाथ मिला, गले मिलें, दूरियाँ मिटाइए.
    पक्ष या विपक्ष में हों, राष्ट्र-हित सर्वोपरि,
    राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइए..
    **
    सुख-दुःख, धूप-छाँव, आते-जाते जिंदगी में,
    डरिए न धैर्य धर, बढ़ते ही जाइये.
    संकटों में, कंटकों में, एक-एक पग रख,
    कठिनाई सीढ़ी पर, चढ़ते ही जाइये..
    रसलीन, रसनिधि, रसखान बनें आप,
    श्वास-श्वास महाकाव्य, पढ़ते ही जाइये.
    शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी की मेवा वरें,
    शक्ति-युक्ति साधना भी, नित्य करे जाइये..
    ***

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  5. सर्वप्रथम आपका नवीन फार्मेट बहुत अच्‍छा लगा, क्‍योंकि हमारा नाम भी यहाँ दिखायी दे रहा है। आपने कक्षा के विद्यार्थियों की उपस्थिति पंजिका बना दी हो जैसे।
    सलिल जी की रचना को भी और उनके व्‍यक्तित्‍व को भी सादर नमन। मुझे एक बात पूछनी है - आपने घनाक्षरी छंद में लिखा था कि प्रत्‍येक चरण के अन्‍त में गुरु आएगा, साथ में यह भी लिखा था कि लघु भी आता है। सलिल जी ने लघु प्रयोग किया है। कृपया स्‍पष्‍ट करें।

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  6. वाह! आनन्द आ गया सलिल जी को पढ़कर.....

    ब्लॉग के फॉर्मेट का बदलाव मनभावन है, बधाई आपको.

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  7. आद० सलिल जी के चारों छंद भाव और शिल्प सौन्दर्य में बेजोड़ हैं .....मनमोहक हैं |
    नवीन जी , आपका यह पुनीत प्रयास हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दे रहा है ...

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  8. सलिल जी के सतत प्रयास को अक्सर हर मंच पे देखा जा सकता है .. हिन्दी और हिन्दी से जुड़े किसी ही कार्य में आचार्य जी की उपस्थिति पूर्णता दे देती है ... आनद ले रहा हूँ आज इतने लाजवाब छंदों का ...

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  9. मेरी टिप्पणी में
    मेरी नादानी दिख जाएगी |
    ये वो कला है
    जिसे सीखने समझने में
    नानी याद आ जायेगी ||

    ये नौनिहाल
    आता रहेगा ननिहाल

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  10. आचार्य जी के सभी छंद बेजोड़ है।
    इन छंदों में शब्दों की जादूगरी देखते ही बन रही है।

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  11. @अजित जी :-

    प्रस्तुत आयोजन वाली घनाक्षरी 31 अक्षर वाली है जिसे 8+8+8+7 = 31 यूं चार भागों में बाँटा गया है| यहाँ आखिरी अक्षर गुरु है| सलिल जी के जिस छंद में लघु आ रहा हो, उस का उल्लेख करें|

    हालांकि कुछ कवियों ने [सलिल जी ने भी टिप्पणी वाले छंदों में] 16+15 विधान को भी अपनाया है| इस केस में भी आखिरी अक्षर गुरु ही है|

    जिन घनाक्षरियों में अंत में लघु आता है, वो समान्यत: 32 अक्षर वाले कवित्त होते हैं|

    एक बार फिर से दोहराने की जरूरत महसूस हो रही है कि घनाक्षरी / कवित्तों के कई प्रकार हैं, फिलहाल हम यहाँ गुरु अक्षर के साथ समाप्त होने वाले 31 अक्षरों वाले [8+8+8+7=31 को प्राथमिलकता] छंद पर काम कर रहे हैं|

    एक बार में एक छन्द का तरीका सहज और सुगम्य रहेगा|

    आशा है आप की शंका का समाधान हो गया होगा|

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  12. [विशेष:- यह टिप्पणी आचार्य जी के कहने पर दी गई है| आचार्य जी चाहते हैं कि लोग देखें और सीखें कि गलतियाँ कहाँ होती हैं और उन्हें कैसे सुधारा जाता है]


    सलिल जी के टिप्पणी वाले छंदों में कुछ त्रुटियों पर ध्यान देना चाहिए:-

    [1]
    बेटी हो, बहू हो, या हो बेटा या जमाई ही, - पूर्वार्ध भाग होने के कारण यहाँ कुल 16 अक्षर होने चाहिए| पर कवि ने यहाँ 1 अक्षर कम लिया है| सही यूं होना चाहिए :-
    बेटी हो, बहू हो, या हो बेटा या जमाई ही हो

    [2]
    'सलिल' जैसा चाहें आप, वैसा व्यवहार करें, - पूर्वार्ध भाग होने के कारण यहाँ 16 अक्षर होने चाहिए| पर यहाँ 1 अक्षर ज्यादा है| सही यूँ होना चाहिए:-
    'सलिल' जो चाहें आप, वैसा व्यवहार करें

    [3]
    शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी की मेवा वरें, - पूर्वार्ध भाग होने के कारण यहाँ 16 अक्षरों की आवश्यकता है| परंतु कवि ने 1 अक्षर कम लिया है| दो सुधार प्रस्तावित हैं - या तो लक्ष्मी को यूं लिखना और बोलना पढ़ेगा - 'लक्षमी'
    या फिर यूँ हो :-
    शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी जी की मेवा वरें

    [4]
    टिप्पणी के आखिरी वाले छन्द में तुकांत दोष भी है| पहले तीन चरणों में कवि ने लिया है - 'बढ़ते ही' / 'चढ़ते ही' / 'पढ़ते ही' - पर अंत में 'नित्य करे' ले लिया है| ये नीतिगत नहीं है| नीति अनुसार यहाँ होना चाहिए - कढ़ते ही / लड़ते ही / मढ़ते ही इत्यादि|

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  13. नवीन जी कृपया इन पंक्तियों को समझाए -
    शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर,

    लात मार दूर करें, दशमुख सा -अनुज

    ऐसी कई पंक्तियां है। प्रथम चरण के आखिरी वर्ण को देखें। या शायद दूसरे चरण में ही गुरु का विधान हो?

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  14. यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.

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  15. आचार्य जी की रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं |त्रुटि सुधार के लिए दी गई रचना में त्रुटियाँ मैं सरलता से अब खोज पाई |अथ अब लग रहा है कि यह छदंऔर इसके नियम पूर्ण रूप से समझ गई हूँ |
    आशा

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  16. @ अजित जी
    आप की शंका है कि गुरु अक्षर जिस 'अंत' में आता है वह कौन सा 'अक्षर' होना चाहिए| यह 'इकत्तीसवाँ' [इस छन्द के केस में] अक्षर होता है| इसे एक और सरल उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं|

    पहले जमाने की किसी हजारा पुस्तक [जिस पुस्तक में विभिन्न कवियों के विभिन्न विषयों पर १००० कवित्त प्रकाशित होते थे, उसे हजारा कहते थे / हैं] में कवियों के कवित्त यूं लिखे जाते थे:-

    १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ / ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ / १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ / २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१| यानी पेराग्राफ स्टाइल में| वैदिक ऋचाएँ भी ऐसे ही लिखी गई हैं|

    बाद के समय में कवियों के कवित्त यूं लिखे जाने लगे:-

    १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ / ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ /
    १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ / २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१|

    श्लोक, गीत, मुक्तक वगैरह इसी तरह लिखे गए हैं / लिखे जा रहे हैं|

    दोनों ही केस में १ से १६ तक के अक्षर फ़र्स्ट हाफ / पूर्वार्ध भाग हुए, तथा १७ से ३१ तक के अक्षर लेटर हाफ / उत्तरार्ध भाग हुए|

    ३१ अक्षर वाला चरण ८ - १६ - २४ पर यति [यति अर्थात बोलते हुए क्षणिक रुकना] लेते हुए ३१ पर पूर्णता को प्राप्त होता है, लिहाजा अपेक्षित गुरु / दीर्घ / २ मात्रा वाला अक्षर भी यहीं आना चाहिए|

    आशा है शंका का समाधान हो गया है| फिर भी यदि, कोई शंका रह जाती है तो मित्र गण निस्संदेह यहाँ पर पूछ सकते हैं, या तो फिर navincchaturvedi@gmail.com पर मेल भेजने की कृपा करें| संकोच रत्ती भर भी न करें|

    जो सदस्य नए हैं, वो इस वार्तालाप से कतई हतोत्साहित न हों, छंदों की बात हो या किसी और विधा की, हमें प्रयास तो करना ही होता है| आज यहाँ हम लोग भी जो इन बातों को बतिया रहे हैं, माँ के पेट से सीख के थोड़े ही ना आए हैं, अभ्यास करते करते ही सीखे हैं| तो कृपया अपने अपने सत्प्रयास जारी रखें|

    जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, अजित जी, आप दोहा कक्षाओं से भी जुड़ी रही हैं| आप के रूप में एक और सक्रिय सहयोगी पाना इस आयोजन की उपलब्धि रही| आप का सक्रिय सहयोग जारी रखिएगा|

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  17. आचार्य जी की रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं.....

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  18. आचार्य जी को पढ़ना सदा की तरह मन मोहक ही रहा | आपकी शब्दों पे पकड़ कमाल की है | जिस सुन्दरता से आप छंदों को अलंकृत करते हैं | क्या कहने !! बहुत आनंद आया
    भाई साब !!
    आपका प्रयास सराहनीय है | हिंदी छंदों के लिए आप बहुत अच्छा कर रहे हैं |
    ब्लॉग पेज की नयी संरचना बहुत सुन्दर बन पड़ी है | आपको बधाई !!!

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  19. नवीनजी, अब मुझे समझ आ गया हैं। मैं पहले 16 और 31 दोनों को अर्थात दोनों पंक्तियों के अन्‍त में गुरु अक्षर समझ रही थी।

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  20. बहुत सुन्दर रचनाएं...आभार

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  21. आचार्य जी की सारस्वत-साधना प्रणम्य है। छांदस विधाओं के प्रति आपका समर्पित प्रयास अनुकरणीय है। रम्य रचनाओं ने मन मोह लिया।

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  22. नवीन जी ने टिप्पणी में दिये छन्दों का उत्तम संशोधन कर पाठकों का मार्गदर्शन किया है. मूल छंद निम्न हैं .... इनमें ८-८-८-७ वर्णों पर यति (विराम) का पालन करने का प्रयास है... कितना सफल हुआ यह पाठक ही बता सकेंगे.

    घनाक्षरी छंद :

    राजनीति का अखाड़ा.....

    संजीव 'सलिल'

    *

    अपनी भी कहें कुछ, औरों की भी सुनें कुछ, बात-बात में न बात, अपनी चलाइए.

    कोई दूर जाए गर, कोई रूठ जाए गर, नेह-प्रेम बात कर, उसको मनाइए.

    बेटी हो, जमाई हो या, बेटा-बहू, नाती-पोते, भूल से भी भूलकर, शीश न चढ़ाइए.

    दूसरों से जैसा चाहें, वैसा व्यवहार करें, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..

    *

    एक देश अपना है, माटी अपनी है एक, भिन्नता का भाव कोई, मन में न लाइए.

    भारत की, भारती की, आरती उतारकर, हथेली पे जान धरें, शीश भी चढ़ाइए..

    भाषा-भूषा, जात-पांत,वाद-पंथ कोई भी हो, हाथ मिला, गले मिलें, दूरियाँ मिटाइए.

    पक्ष या विपक्ष में हों, राष्ट्र-हित सर्वोपरि, राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए..

    **

    सुख-दुःख, धूप-छाँव, आते-जाते जिंदगी में, डरिए न धैर्य धर, बढ़ते ही जाइये.

    संकटों में, कंटकों में, एक-एक पग रख, कठिनाई सीढ़ी पर, चढ़ते ही जाइये..

    रसलीन, रसनिधि, रसखान बनें आप, श्वास-श्वास महाकाव्य, पढ़ते ही जाइये.

    शारदा की सेवा करें, लक्ष्मी मैया! मेवा वरें, शक्ति साधना की राह, गढ़ते ही जाइये..

    ***
    रसलीन, रसनिधि, रसखान= हिंदी के ३ महाकवि
    मुहावरे : बात में बात, अपनी चलाना, शीश चढ़ाना, आरती उतारना, हथेली पर जां धरना, शीश चढ़ाना, हाथ मिलाना, दूरियाँ मिटाना .

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  23. आभार सलिल घनाक्षरी के आनंद वर्षं के लिए .

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