नमस्कार.
ठिठुराने वाली ठण्ड तो अभी दूर है मगर हाँ गर्मागर्म गाजर के हलवे और आलू के पराठों की याद दिलाने वाला मौसम अवश्य आ चूका है. आप में से अनेक लोग इनका स्वाद ले भी चुके होंगे. आइये अगले अद्यतन का आनन्द लिया जाए.
नमस्कार.
ठिठुराने वाली ठण्ड तो अभी दूर है मगर हाँ गर्मागर्म गाजर के हलवे और आलू के पराठों की याद दिलाने वाला मौसम अवश्य आ चूका है. आप में से अनेक लोग इनका स्वाद ले भी चुके होंगे. आइये अगले अद्यतन का आनन्द लिया जाए.
यक़ीन ही नहीं होता कि चीनी और स्वीटी को दस बरस हो गए इस घर में आए। सामने डटे हुए सोफ़े को तो शायद पंद्रह या बीस साल हो गए होंगे।
डाल से टूट कर
बिछुड़ते हुए पत्तों को देखा
है
टूटती हुई डालियाँ चरमराती
हुईं टूटती हैं
एक इन्सान को टूटते हुए देखना बड़ा भयानक होता है
खिड़की भर दुनिया
अस्पताल की खिड़की से
दुनिया कुछ अलग दिखती है—
यहाँ समय की चाल धीमी,
पर बाहर ज़िंदगी तेज़ भागती है।
माना कि तुझसा है नहीं तैराक
यार देख
इस फील्ड में है तू बड़ा ही
होनहार देख
लेकिन ज़माने पर नहीं है एतबार देख
वो भी एक आम आदमी ही है, इसमें संदेह की कोई गुंजाईश नहीं दिखती। इस वजह के अलावा कि सीजन के सबसे आम फल आम को वो खूब पसंद करता है, और अपने परिवेश में शक्तिशाली व्यक्ति या संस्थाओं को खुद इसी रसीले फल सरीखा नज़र आता है, कुछ और तथ्य भी हैं जो उसे आम सिद्ध करते हैं।
ये मेरी माँ जो चला करती है
लाठी लेकर
चाल में इसकी भी हिरनी सी
लचक थी पहले
जिस्म से इसके अब आती है
दवाओं की महक
जिस्म में इसके भी सन्दल सी महक थी पहले
चराग़दान था, कन्दील थी, सुराही
थी
दुलाईयाँ थीं, रजाई थी, चारपाई
थी
एक इत्रदान था, एक पानदान, एक गुलदान
एक आफ़ताबा, नमकदान, एक
दस्तर-ख़्वान
इस जहाँ के सारे शहरों में
बडा़ जाँबाज़ है,
तेरी ये तारीख़ सुनकर होता
ये दिलसाज़ है,
हर हुनरवाले बशर पे
होता हमको नाज़ है,
सुन के शोहरत के फसाने होता
ये दिलसाज़ है!
विद्यालय के बाहर एक लड़का अक्सर अकेला बैठा मिलता था। उसकी निगाहें उन चेहरों पर होतीं जो उस बरामदे से गुज़रते समय रो चुके होते। वह कुछ नहीं पूछता था।
रात्रि साढ़े दस बजे उसकी हरिद्वार की ट्रेन थी। निर्धारित कार्यक्रमानुसार उसने श्मशान-भूमि के विशेष कक्ष में रखी माँ की अस्थियाँ लीं और वहीं से सीधे स्टेशन पहुँचा।
समकालीन हिन्दी काव्य में युगल-स्वर या संवाद-आधारित काव्य-संरचना अत्यंत विरल है। “चाँद अब हरा हो गया है”—अनामिका कनौजिया ‘प्रतीक्षा’ और के.पी. अनमोल का संयुक्त काव्य-संग्रह—इस दृष्टि से हिन्दी में एक विशिष्ट और उल्लेखनीय प्रयोग के रूप में सामने आता है।
सोश्यल मिडिया ने जिन अद्भुत और अनूठे व्यक्तियों से परिचित करवाया आप उनमें से एक हैं. एक ऐसा व्यक्तित्व जिसमें सहजता, संवेदना, साहित्य और मानवता की चारों दिशाएँ एक साथ मिलकर एक पूर्ण वृत्त का निर्माण करती हैं.
चौं तुम
झूठी रार करौ हौ
हमैं पतौ
है प्यार करौ हौ
खुस है रयै हो घाटो खायकैं
जे कैसो
ब्योपार करौ हौ
हम काँटन्नैं
फूल करैं हैं
तुम फूलन्नैं
हार करौ हौ
या ठगनी
माया के पीछे
चौं जूतम - पैजार
करौ हौ
जो तुमकूँ ध्यावे तुम वा की
जीवन नैया
पार करौ हौ
जनता भूकी
है राजा जी
तुम छिक कें ज्यौनार करौ हौ
वा’ जी कलम के चलवैया’औ
'दीप' बिना
उजियार करौ हौ
नमस्कार
पर्वों के गुलिस्तान हिन्दुस्तान के कहने ही क्या. एक के बाद एक उत्सवों का आनन्द ले रहे हैं हम लोग. सभी उत्सवों की सभी साहित्यानुरागियों को ढेर सारी बधाइयाँ. उत्तरोत्तर अपने गन्तव्य की दिशा में अग्रगामी वेबपोर्टल साहित्यम के वर्तमानाद्यातन के साथ हम पुनः उपस्थित हैं.
एक बात बहुत अधिक सुनने में आती थी कि बड़े प्रोग्राम्स को छोड़ दें तो लोग टिकट लेकर सनीमा तो देख सकते हैं मगर किसी कवि को सुनने नहीं जाते.
इस बात में कोई दो राय नहीं कि सोश्यल मीडिया की इस अन्धी दौड़ में और विशेषकर बुलेट ट्रेन की स्पीड में दौड़ती रीलों वाले इस दौर में शायरी नयी चुनौतियों से जूझ रही है.
पिछले कुछ वर्षों में मुंबई महानगरी में शाइरी की लोकप्रियता में बहुत अधिक उठान आया है। इसका श्रेय जिन संस्थाओं के अथक प्रयासों को दिया जाता है उनमें इंशाद फाउंडेशन एक प्रमुख नाम बन कर उभरा है।
राष्ट्र जागरण धर्म हमारा के ध्येय वाक्य के अनुसार लेखनी का उत्तरदायित्व राष्ट्र के प्रति सकारात्मक और राष्ट्रवादी विचारों का जन जन में अलख जगाना कवियों का पवित्र कार्य रहा है। इसी उद्देश्य हेतु राष्ट्रीय कवि संगम का गठन किया गया तथा इसका प्रथम अधिवेशन दिल्ली में रखा गया।
प्रेम ...
1)अपनी बेकारी के दिनों में
एक लोहे का कड़ा खरीद
दिया था उसने जन्मदिन पर
आज भी सोने के कंगन
के साथ पहनती हूँ
"मंदिर का चढ़ावा है " पूछने पर
कविता की निराली है जाति घनी
कवि के अधरान हँसै कविता।
कविता जु उमंग रहै हित सौं
प्रिय के हिय माँहिं बसै कविता।
कविता इक प्रेम कौ आश्रय है, बिरहीन
के नैन खसै कविता।
कविता कहूँ मंचन पै ठुमकै जु अमीरन कैं बिलसै कविता।
पर्णकुटी में तुम्हें न पाया जिस क्षण सीते!
उस क्षण से तुम्हीं को पाया
कण कण में।
शब्दशः मन बसी छवि को उतार
दिया
वन वासियों को दिये हुए विवरण में।
आवरण मन के सारे हटा दीजिए
आवरण युक्त मन मिल सकेंगे
नहीं
बाग़ सम्वेदना के लगेंगे मगर
प्यार के फूल तो खिल सकेंगे नहीं