ग़ज़ल - मै ऊबता हूँ न क़िस्से को और लम्बा खींच – सुभाष पाठक ‘ज़िया’

 


मै ऊबता हूँ न क़िस्से को और लम्बा खींच

अगर है हाथ में डोरी तो फिर ये पर्दा खींच

चुरा के  नींद  मेरी चैन  से  जो  सोया  है

उसे दिखा तू बुरे ख़्वाब सर से तकिया खींच

 

बता  कि जिस्म  का आज़ार लाइलाज हुआ

तबीब जान की परवा न कर तू पैसा खींच

 

सुरंग ए जिस्म है लम्बी सो एहतियात बरत

भटक न जाय कहीं साँस को न इतना खींच

 

कुएँ में गिर गई गगरी तो जाने कब निकले

अभी है हाथ में रस्सी, सिरा इसी का खींच

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