कविता – मन का टूटना – हृदयेश मयंक

 


डाल से टूट कर

बिछुड़ते हुए पत्तों को देखा है

टूटती हुई डालियाँ चरमराती हुईं टूटती हैं

एक इन्सान को टूटते हुए देखना बड़ा भयानक होता है

वह मन ही मनधीरे-धीरे टूटता है

उसे रोते बिलखते टूटते हुए कोई नहीं देखता

स्थितियाँ और हालात

चुपचाप उसे तोड़ते रहते हैं

और वह टूटता रहता है अहर्निश

 

टूटते-घर अरमराते हुए टूटते हैं

टूटते-किनारे धीरे-धीरे आरर होकर टूटते  जाते हैं

नदी और धरती दोनों गम्भीर होती हैं

शायद यही कारण है कि

उनका टूटना और टूटकर गिरना देखते सब हैं

पर कम लोग आँक पाते हैं

 

आँखों का छलक कर टूटना

दिखलाई पड जाता है

दिल का टूटना समझ में आ जाता है, पर,

मन के टूटने रहने की प्रकिया

गुप-चुप होते रहने की वजह से दिखलाई नहीं पडती

 

दुखदाई हर किसी का टूटना होता है

पर मन से टूट जाना अति दुखदाई होता है

यह एक दुखद प्रक्रिया है

 

धीर-गम्भीर टूटते हुए भी नहीं टूटते हैं

बाकी कमजोर चूर-चूर होकर टूट जाते हैं।

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