समकालीन हिन्दी काव्य में युगल-स्वर या संवाद-आधारित काव्य-संरचना अत्यंत विरल है। “चाँद अब हरा हो गया है”—अनामिका कनौजिया ‘प्रतीक्षा’ और के.पी. अनमोल का संयुक्त काव्य-संग्रह—इस दृष्टि से हिन्दी में एक विशिष्ट और उल्लेखनीय प्रयोग के रूप में सामने आता है।
यह संग्रह न केवल प्रेम को विषय बनाकर लिखा गया
है, बल्कि प्रेम को संवाद, अंतर्द्वंद्व और रागात्मक वैचारिकता के रूप में पुनर्परिभाषित करता है। तीन
सुविभाजित खंडों में विस्तारित यह कृति प्रेम की भावनात्मक प्रक्रिया को क्रमशः
संवादात्मक, आत्मानुभूतिक एवं आत्माभिव्यक्तिगत रूपों में
रूपायित करती है।
पहले खंड की केंद्रीय विशेषता इसका प्रश्नोत्तर या क्रिया–प्रतिक्रिया संरूप है। यहाँ प्रेम मात्र अनुभूति नहीं, बल्कि दो व्यक्तियों के बीच चलने वाला एक सतत रचनात्मक संवाद है। ‘प्रतीक्षा’ की कविता “मोहब्बत–1” जहाँ प्रेम को अनुभवात्मक और आंतरिक स्पंदन के रूप में व्यक्त करती है—
“कुछ चीज़ें महसूसने की होती हैं,
कहने-बताने की नहीं…”
वहीं अनमोल अपनी उत्तर-रचना “मोहब्बत–2” में
उसी भाव-अनुभूति को समर्थन तथा पूर्णता प्रदान करते हैं—
“मैंने महसूस किया है तुम्हारा अहसास—शब्द बनने से पहले।”
इस प्रकार दोनों कविताएँ
मिलकर एक समग्र भाव-जाल रचती हैं, जहाँ कवियों
के अनुभव परस्पर पूरक बनकर उभरते हैं। इस शैली में कविताओं का रचा जाना हिन्दी
काव्य-परंपरा में अपवाद की तरह है, और इसी विशेषता के कारण
यह खंड संग्रह का सबसे विशिष्ट अंश बनकर सामने आता है।
इसी प्रकार “ऐसा भी हो कभी”
(अनमोल) और “हाँ, कभी हो ऐसा” (प्रतीक्षा) प्रेम की
परिकल्पनाओं को दो पक्षों से विस्तृत करती हैं। यहाँ प्रेम किसी एक पक्ष का आग्रह
नहीं; बल्कि दोनो पक्षों की सहमतियों, इच्छाओं और भावनात्मक विस्तारों का संयोजन है।
अन्य
प्रश्नोत्तर-रचनाएँ—जैसे “ले चलूँ तुम्हें” एवं “ले चलो मुझे”, “पाती प्रेम की–1” और “पाती प्रेम की–2”—प्रेम को एक परस्पर-निर्भर, संवादरत प्रक्रिया के
रूप में स्थापित करती हैं। इन कविताओं का अध्ययन स्पष्ट करता है कि दोनों कवि
एक-दूसरे के अनुभव-क्षेत्र में प्रवेश कर उसे अपने ढंग से विस्तार देते हैं। यह
प्रक्रिया संग्रह को एक बहुस्तरीय भाव-संरचना में परिवर्तित करती है।
संग्रह की काव्य-भाषा में उपमा, मानवीकरण और प्रतीकात्मकता का संतुलित प्रयोग मिलता है। ‘चाँद’, ‘ओस’, ‘धूप’, ‘रात’, ‘गंध’ जैसे प्राकृतिक बिम्ब न केवल सौन्दर्य-विधान रचते हैं, बल्कि प्रेम के आंतरिक मनोभावों का रूपान्तरण भी करते हैं। शीर्षक “चाँद अब हरा हो गया है” स्वयं एक अप्रत्याशित प्रतीक है—जो प्रेम में होने वाले मनोवैज्ञानिक रूपांतरणों को संकेतित करता है।
भाषा की दृष्टि से प्रतीक्षा
अधिक भावप्रधान, सहज और प्रवाहशील हैं, जबकि अनमोल की भाषा नियंत्रित, शांत और सूक्ष्म
संवेदनाओं की ओर झुकाव लिए हुए है। यही द्वैत संग्रह को आवाज़ और अर्थ दोनों के
स्तर पर बहुविध बनाता है।
दूसरे खंड में कवयित्री प्रतीक्षा का स्वर एकांगी है, परन्तु उनकी कविता में प्रेमी की उपस्थिति अनुपस्थित नहीं होती। इस खंड की कविताएँ आत्मावलोकन, प्रतीक्षा, करुणा और आत्मीय समर्पण की दृष्टियों को उद्घाटित करती हैं।
“उदास से दिन”
में भाव-चित्रण अत्यंत सूक्ष्म है—
“उनकी आँखों में इंतज़ार था और लबों पर ज़िंदा रहने की तिश्नगी…”
यहाँ प्रेम मानसिक अवस्थाओं
का बारीक अवलोकन बनकर सामने आता है। “झूलती हुई
डाल” में एक गोरैया का प्रतीक रिश्ते की नाज़ुकता और टूटी स्मृतियों को धारण करता
है। इसी प्रकार “नसीबों वाली” प्रेम को उच्चतम समर्पण के स्तर पर ले जाती है—
“क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम्हारी माथे की शिकन मेरी हथेली की
लकीर बन जाए…”
यह खंड स्पष्ट करता है कि
प्रतीक्षा का प्रेम काव्यात्मक कोमलता और मानवीय करुणा के बीच संतुलन बनाए
रखता है। यह स्त्री संवेदना के उस रूप को अभिव्यक्त करता है जो भावनात्मक ही नहीं, बल्कि चेष्टामूलक और आत्म-व्यक्तिक भी है।
अनमोल की कविताएँ अधिक संयत, चिंतनशील और भाषा-अनुशासित हैं। उनके यहाँ प्रेम अनुभूति के स्तर पर है, परंतु वह अनुभूति मुखर न होकर अंतराल में धीमे-धीमे बहने वाली सरिता की भाँति प्रवाहित होती है।
“प्रेम कविता”
में प्रेम-बीज का प्रतीक प्रेम को एक जैविक विकास-प्रक्रिया के रूप में दर्शाता
है। “अनकहा” कविता उन क्षेत्रों पर प्रकाश डालती है जहाँ
प्रेम भाषा से परे जाकर मौन में रूपांतरित हो जाता है—
“जितना कहता हूँ, उतना ही अनकहा रह जाता
है…”
उनकी गज़लें संग्रह को
काव्य-शिल्प की एक और परत प्रदान करती हैं। एक गज़ल की पंक्ति—
“रूह मेरी हर
वक़्त महकती है जैसे,
कोई मुझमें बनके ख़ुशबू रहता
है”—
संग्रह की रूहानी संवेदना का श्रेष्ठ उदाहरण है।
इस प्रकार अनमोल की रचनाएँ
प्रेम के धैर्य, अंतर्मुखता और भाव-गहनता को केंद्र में रखती हैं, जो प्रतीक्षा की रचनाओं
की ऊर्जस्विता और आवेग को संतुलित करती हैं।
इस संग्रह की सबसे विशिष्ट उपलब्धि इसकी द्वि-स्वरीय संरचना है। यह संरचना दर्शाती है कि प्रेम दो व्यक्तियों का संयुक्त भाव-प्रदेश है, जहाँ प्रत्येक अपनी स्वतंत्रता बनाए रखते हुए दूसरे को पूर्ण करता है। यह संग्रह प्रेम की निम्नवर्ती विशेषताओं को रेखांकित करता है—
- प्रेम संवाद है, जिसमें
प्रश्न और उत्तर दोनों समान महत्त्व रखते हैं।
- प्रेम आत्मसमर्पण है, परंतु आत्मविलुप्ति नहीं।
- प्रेम मानवीय करुणा का क्षेत्र है, जहाँ दूसरे की पीड़ा में सहभागिता सर्वोच्च मूल्य बन
जाती है।
- प्रेम मनोवैज्ञानिक रूप से एक विकास-प्रक्रिया है; यहाँ प्रेम न स्थिर, न
एकरेखीय, बल्कि बहुस्तरीय है।
“चाँद अब हरा हो गया है” समकालीन हिन्दी साहित्य में एक ऐसी कृति के रूप में उभरती है जो अपनी शैली, संरचना और भाव–विस्तार—इन तीनों स्तरों पर नवीनता प्रस्तुत करती है। संवाद-आधारित काव्य-रचना, संवेदना की गहराई, प्रतीकात्मक भाषा, और मानवीय करुणा का संतुलन इस संग्रह को मूल्यवान बनाता है।
यह कृति प्रेम की पारंपरिक छवियों को पुनर्परिभाषित करती है और यह प्रमाणित करती है कि प्रेम केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सह-अनुभूति, सह-यात्रा, और सह-सृजन की प्रक्रिया भी है। श्वेतवर्णा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह संग्रह काव्य-प्रेमियों, शोधार्थियों तथा समकालीन साहित्यिक विमर्श में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
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