तपन पीता हूँ मैं सबकी अगन की
नई है रीत मेरी आचमन की
चलो रहने दो इन अधरों को
प्यासा
बुझा दो प्यास तो मेरे नयन
की
थके हों पंख तो लगती अधिक है
ऊँचाई है नहीं उतनी गगन की
न होंगे फिर वरन गौतम व नानक
प्रवृत्ति त्याग दो यह
अनुगमन की
सिरों से लाख रण कर ले
अवस्था
कहाँ खुलती हैं गाँठें बाँकपन की
किया विध्वंस सर्वाधिक
तुम्हीं ने
बड़ी करते थे तुम बातें सृजन
की
अभी इच्छाओं की मदिरा है
फेनिल
अभी चर्चा न कर आवागमन की
क्षुधा को मार कर दिखलाइये
तो
सहज शिक्षा बहुत है संयमन की

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