ग़ज़ल - देख चाहत से न यूँ देखने वाले मुझको - सिद्धार्थ शाण्डिल्य


देख चाहत से न यूँ देखने वाले मुझको

ये करम तेरा कहीं मार न डाले मुझको

कितने पत्थर थे जिन्हें तूने बनाया है ख़ुदा

मैं भी इक संग हूँ रस्ते से उठा ले मुझको

 

कम से कम तुझको अँधेरों से बचा सकता हूँ

लाख रस्ते का दिया हूँ तू जला ले मुझको

 

अब न दौलत है न रुतबा है ना ताक़त कोई

क्या कोई है कि जो इस वक़्त सम्हाले मुझको

 

फेंक देना मुझे कल राह में मुरझाने पर

आज ताज़ा हूँ, तू ज़ुल्फ़ों में सजा ले मुझको

 

फूँक डालूँ न कहीं ख़ुदही को आख़िर ‘सिद्धार्थ’

आतिशे-रंज़ हूँ लफ़्ज़ों में छुपा ले मुझको


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