लघुकथा - आँसुओं की भाषावली - योगराज प्रभाकर

विद्यालय के बाहर एक लड़का अक्सर अकेला बैठा मिलता था। उसकी निगाहें उन चेहरों पर होतीं जो उस बरामदे से गुज़रते समय रो चुके होते। वह कुछ नहीं पूछता था। 

पर जब कोई उसके पास बैठता और आँखें नम होतीं, तो वह एकदम आँखों से उसका मन पढ़ लेता और आँसुओं का कारण बता देता, बिना भूमिका, बिना सहानुभूति जताए। उसका उत्तर चौंका देता। यह बात फैल चुकी थी कि वह लड़का आँसुओं की भाषा पढ़ लेता है।


स्कूल के प्रधानाचार्य ने पहले इसे अफ़वाह माना। फिर एक दिन उन्होंने उस लड़के को बुलाया। उनकी आँखों में हल्की-सी नमी थी, बहुत महीन-सी, लगभग अदृश्य। उन्होंने धीमे से पूछा, “क्या तुम बता सकते हो, मैं क्यों रोया था?”


लड़के ने बिना झिझक कहा, “आपकी बेटी ग़लत रास्ते पर चल पड़ी है और ख़ानदान की इज़्ज़त को मिट्टी में मिला रही है।”


प्रधानाचार्य सिहर उठे। कुछ नहीं कहा। बस जड़वत-से वहीं बैठे रहे।


एक थानेदार आया और एक आरोपी को साथ लाया, जो लगातार चीख़-चीख़कर कह रहा था कि वह निर्दोष है। लड़के ने उसे देखा और बस इतना कहा, “ये आँसू नक़ली हैं, असली नहीं।”


एक नवविवाहिता आई। चुपचाप। माँग सिंदूरी थी, पर उसकी आँखों में उजास नहीं, केवल नमी थी। उसने कुछ नहीं कहा, बस आँसू थे। लड़के ने उसे ध्यान से देखा, कुछ देर शांत रहा, फिर बोला, “जिस पति का सपना आपकी आँखों में है,  उसकी आँखों में अब किसी और का सपना पल रहा है।”


उस दिन अचानक, वर्षों बाद, उसकी माँ गाँव से उसे मिलने आई। वह थकी हुई थी। लड़का पहले उसे देखता रहा, बहुत देर तक। फिर अचानक उठकर उसके गले से लिपट गया। माँ की आँखें भीगती रहीं। वह अब उसकी गोद में सिर रखे बैठा था।


किसी ने धीरे-से पूछा, “बताओ… तुम्हारी माँ के आँसू क्या कह रहे हैं?”


बहुत देर तक वह चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “माँ के आँसुओं का अनुवाद  नहीं हो सकता।”  

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