एक रोचक दास्तान - वाक़ई 'नाम चलने लग गया'

एक बात बहुत अधिक सुनने में आती थी कि बड़े प्रोग्राम्स को छोड़ दें तो लोग टिकट लेकर सनीमा तो देख सकते हैं मगर किसी कवि को सुनने नहीं जाते. 

यह बात जब तनोज दाधीच के मन में घर करने लगी तो उन्होंने मन ही मन कुछ करने की ठान ली. मुशायरों को अटेंड करने के क्रम में जब ये मुम्बई आये तो इन्होंने पाया कि आज भी गुजराती और मराठी के श्रोता बाक़ायदा टिकट ले कर शो देखने जाते हैं. बस फिर क्या था तनोज को अँधेरे में किरन दिखाई पड़ गयी और इन्होंने अपने शुभचिन्तकों के साथ मिलकर एक शो प्लान किया जिसका नाम रखा गया “नाम चलने लग गया”.

 


देखते ही देखते तनोज के चाहने वालों ने उन्हें सर आँखों पर बिठा लिया और वाक़ई नाम चलने लग गया”. यह तनोज दाधीच का एक आत्मीय और प्रभावशाली सोलो शो है जिसमें वे अपनी ज़िंदगी की कहानियों, कवि सम्मेलनों के किस्सों और दिल छू लेने वाले शेरों को एक सुंदर कहानी की तरह पेश करते हैं. इस एक घंटे की प्रस्तुति में हँसी, भावनाओं और अनुभवों का ऐसा संगम सृजित होता हैं कि दर्शक अनायास ही उनसे जुड़ते चले जाते हैं.

 


हाल ही में इस शो की ट्रिप्स इंदौर, मुंबई, पुणे और अहमदाबाद में हुईं, जहाँ तनोज को दर्शकों से बेहतरीन प्यार और सराहना मिली. हर शहर में लोग उनके शब्दों से प्रभावित हुए — कहीं मुस्कानें बिखरीं तो कहीं आँखें नम हुईं, तालियों की गूंज तो हर मंच पर सुनाई दी. तनोज अब इस शो को देश के और शहरों तक ले जाने की तैयारी में हैं.

 


अब लगने लगा है कि साहित्य के क्षेत्र में यह एक सकारात्मक और महत्वपूर्ण बदलाव है. यदि कविता पढने वाले तय कर लें कि उन्हें उनकी कविता को (मित्रतापूर्ण समारोहों को छोड़ कर) फ़ोकट में नहीं सुनाना है तो यक़ीनन ही अच्छी कविता सुनने वाले आज भी टिकट खरीद कर कविता सुनने के लिए तैयार हैं.

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