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व्यक्तित्व - फलक पर नूर का शजरा –"तुफैल चतुर्वेदी"

फलक पर नूर का शजरा –"तुफैल चतुर्वेदी"

एक स्केच : मयङ्क अवस्थी

 

देवनागरी लिपि मे ग़ज़ल की लोकप्रियता चार नामो की कृतज्ञ है –पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय –सरदार बलवंत सिंह यानी प्रकाश पण्डित –नरेन्द्र नाथ और जिनके बारे मे हम आगे बात कर्ंगे –यानी जनाब मुहत्तरम तुफैल चतुर्वेदी जिनका पूरा नाम विनय कृष्ण  चतुर्वेदी तख़्ल्लुस "तुफैल" है और यह नाम आज गज़ल के दयार मे प्रेम, प्रशंसा, ,भय ,आतंक और अन्य मानस के संचारी भावों के साथ लिया जाता है जिसमे सबसे ऊपर का भाव आदर का भाव है – एक ऐसा व्यक्ति जिसकी ग़ज़ल कहने और समझने की प्रतिभा निर्विवाद श्रेष्ठतम की श्रेणी मे आती है –जो देवनागरी की सबसे दमदार और सबसे प्रशंसित ग़ज़ल पत्रिका लफ़्ज़ के सर्वेसर्वा हैं और जिनकी आवाज़ अदब के बेशुमार शोर गुल मे भी चुप रह कर सुनी जाती है।

 

पहले नैनीताल और अब ऊधमसिंह नगर की काशीपुर स्टेट के कुलदीपक "तुफैल साहब"चाँदी का चम्मच मुँह मे ले कर पैदा हुये और महज 18 बरस की उम्र मे फकीरी ले कर आध्यात्मिक यात्रा पर  निकल गये –लेकिन ग़ज़ल विधा को अपना सबसे बडा पैरोकार और नुमाइन्दा मिलना था इसलिये मरहूम कृष्ण बिहारी नूर के शाइरी के घराने मे अदब के इस  चश्मो चराग़ की तर्बीयत और परवरिश हुई और बाद मे यही नाम हजारो गज़ल पसन्द  करने वालो और सीखने वालो के लिये परस्तिश और प्रशंसा का सबब बन गया।

 

अमरीका हो या पाकिस्तान , तुफैल साहब जहाँ भी गये हैं वहाँ के अदबी हल्कों और समाचार पत्रों ने उन्हें हाथों हाथ लिया है।तुफैल फूलों का गुलदस्ता है -हमारे अहद की सबसे खुश्बूदार आवाज़ के मालिक जैसा कि उनको फोन पर सुन कर आपको महसूस होगा। ये बहत्तर निश्तरों वाले तनक़ीदकार भी हैं जैसा कि अपनी गज़ल उनको सुना कर आपको महसूस होगा। ये पत्थर की निगहबानी मे शीशे की हिफाज़त के पैरोकार हैं। चाहे कराची हो या न्यूयार्क हर जगह उन्होने अपनी अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवाया है। कुल मिला कर जैसे आध्यात्म मे ओशो रजनीश पर प्रतिक्रिया देना इस दौर के हर तालिबे इल्म की मजबूरी है वैसे ही ग़ज़ल के शहर मे तुफैल के परचम को सलाम करना अदीबों की ज़रूरत ही नही मजबूरी भी है। इनके यहाँ अच्छी ग़ज़ल को वृहत्तर क्षितिज दिये जाते हैं –नामचीन होना कोई पाबन्दी नही है लफ़्ज़ मे छपने के लिये सिर्फ ग़ज़ल पाएदार और ऊंचे मेयार की होनी चाहिये । वो सच कहते हैं सिर्फ सच कहते हैं और सच के सिवा और कुछ नही कहते जिसकी तस्दीक़ उनकी ग़ज़ले और उनके सोशल इश्यूज पर दिये गये तमाम बयानात करते हैं।

 

विभाजन के बाद भारत की भाषा हिन्दी उर्दू के संक्रमण काल से भी गुज़री और आज  हिन्दुस्तान मे जिस भाषा मे संवाद किया जाता है उसमे हिन्दी , उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्द बेहद सहज रूप मे शुमार हैं। अब सवाल यह है कि "भाषा बहता नीर" के इस दैनन्दिन परिवर्ती स्वरूप मे साहित्य और समाज के लिये स्वीकार्य अंश की निशानदेही और पैरवी कौन करेगा ?!! तो हिन्दुस्तान के लिये और ग़ज़ल फार्मेट के लिये कौन सी भाषा सटीक और उपयुक्त हो सकती है इसकी मुहर आज तुफैल चतुर्वेदी के पास है। जब भारत पाकिस्तान ग़ज़ल मंच के एक मोतबर शाइर ने मंच पर ये शेर सुनाया –

 

घरों की तर्बियत क्या आ गई टी वी के हाथों मे

कोई बेटा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता

 

तो “बेटा बाप के ऊपर नही जाता”  –के भाषा –दोष पर फौरन आपति करने वाले तुफैल ही थे –भले ही इस पर प्रकरण मे कितना ही  विवाद क्यों न किया गया हो लेकिन इस संवाद मे जीत तुफैल साहब की ही हुई।

 

इसी प्रकार जब बशीर बद्र जैसे वरिष्ठ शाइर ने शेर कहा --

 

गुसलखाना की चिलमन मे पडे किमख़्वाब के पर्दे

नये नोटो की खरखर है पुरानी रेज़गारी मे

 

तो "गुसलखाना" नही सही लफ़्ज़ "गुस्लखाना" है ये कहने वाले पहले पहले शख़्स तुफैल ही थे। भले ही इस आपत्ति पर उनके बरसों के मरासिम शल हो गये –लेकिन भाषा और उसकी पवित्रता पर उन्होने राई रत्ती आँच नही आने दी। साहित्य और ग़ज़ल विधा अंतस की गहराइयों से इस व्यक्ति की कृतज्ञ है।

 

तुफैल चतुर्वेदी छह फुट के 52 बरस के नौजवान हैं, इनके कुर्ते मे सोने के बटन लगते हैं और इनका बयान सोलह सोने का होता है –शकर नहीं खाते लेकिन इसके मआनी ये नही कि उनके लहजे मे शकर नही है – वो बेहद आत्मीयता से किसी के साथ भी संवाद करते हैं –लेकिन उनके आलोचक कहते हैं कि इस व्यक्ति का लहजा करख़्त है और चाल ख़ुस्रवाना है। इसका कारण पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि ग़ज़ल फार्मेट और भाषा के विकास के शिखर पर रह कर वे इसकी नुमाइन्दगी करते हैं।

 

अपने उस्ताद मरहूम जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" के घराने को उन्होने आबाद कर रखा है और इस घराने की चौथी –पांचवी पीढी के शाइर भी आज गज़ल के मंच पर अपना जल्वा बिखेर रहे हैं।

 

जहाँ तक साहित्य सेवा का प्रश्न है उन्होने पाकिस्तान के श्रीलाल शुक्ल जनाब मुश्ताक अहमद यूसुफी साहब के कार्यों का अनुवाद –"खोया पानी" –"मेरे मुँह मे ख़ाक" और "धनयात्रा" बेहद कम समय मे किया और ऐसे समय मे किया जब वो अनेक पारिवारिक उलझनो मे घिरे थे।

 

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तुफैल चतुर्वेदी अपने इस्लामिक कट्टरपंथ के विरोध के कारण एण्टी –हीरो की छवि रखते हैं। "जिहाद" शब्द और कुरआन पाक की आयतों की मनमानी व्याख्या करने वाले इस नाम से खासे आतंकित रहते हैं और उनके बयान को अपने धर्म मे हस्तक्षेप की श्रेणी मे रखते हैं –लेकिन सच यह है कि उनकी निर्विवाद मेधा अकाट्य तर्क शक्ति के सामने सभी बौने साबित होते हैं।

 

शाइर तुफैल के इब्तिदाई दौर से बाबस्ता होने के लिये आपको उनका आज से 22 बरस पुराना संकलन" सारे वरक तुम्हारे" हासिल करना होगा जो किसी भी अच्छे बुक स्टाल पर आज भी आपको आसानी से मिल जायेगा। तब के नौजवान और युवा शाइर की भाषा इतनी सर्वग्राही और साफ सुथरी थी कि तम्हीद लिखते समय विख्यात तनकीदकार गोपीचन्द नारंग भावुक हो गये और उनकी तम्हीद का मर्कज़ इनकी भाषा ही रही। आप भी इन साफ सुथरे , चमकदार और दिल को छू लेने वाले नर्म नाज़ुक अशआर का ज़ायका लीजिये --

 

मेरे पैरों  मे चुभ जायेंगे लेकिन

इस रस्ते के काँटे कम हो जायेंगे

 

जिगर के टुकडे मेरे आँसुओं मे आने लगे

बहाव तेज़ था पुश्ता नदी ने काट दिया

  

हम तो समझे थे कि अब अश्कों की किस्तें चुक गयीं

रात इक तस्वीर ने फिर से तकाज़ा कर दिया

 

ज़रूरत पेश आती दुश्मनी की

तआल्लुक इस कदर गहरा नही था

 

अपना विरसा है ये किरदार, संभाले हुए हैं

इस हवा में हमीं दस्तार संभाले हुए हैं

 

कोई वीराना बसाना तो बहुत आसां था

हम तिरे शहर में घर-बार संभाले हुए हैं

 

तमाम शहर को फूलों से ढँक दिया मैंने

मगर बहार को उसने बहार माना क्या

 

छोड़ देता है दिन किसी सूरत

शाम सीने पे बैठ जाती है

 

दिन नहीं आता मेरी दुनिया में

रात जाती है रात आती है

 

दुनिया तिरे अहसास में नर्मी भी चुभन भी

रस्ते में मिले फूल भी घमसान का रन भी

 

अच्छा है कि कुछ देर मिरी नींद न टूटे

है ख़ाब के आग़ोश में बिस्तर भी बदन भी

 

अदब मे तुफैल साहब की जो हैसियत है उसको एक वाक्य मे यूँ कहा जा सकता है कि  –इस शख़्सीयत को अदब के बेशतर दायरों मे सराहा गया है जो दायरे इनसे तटस्थ हैं वहाँ इनको महसूस किया गया है और जो दायरे हमलावर हैं वहाँ इन्हे बर्दाशत किया गया है।यानी कि अदीबों के प्रतिक्रिया उनकी निजी भावना के अनुसार है लेकिन ऐसा कभी नही हुआ कि कोई इस व्यक्ति के स्पर्श के बाद खुद को प्रतिक्रियाविहीन रख पाया हो। कुल मिला कर तुफैल "जाकी रही भावना जैसी ....." के मानदण्ड पर खरे उतरते हैं।

 

तुफैल साहब मे अना अधिक है या पिन्दार इस पर बहस दीगर है क्योंकि हमारे लिये वो सबसे आदरणीय नामो मे से एक है –लेकिन यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनमे धैर्य स्नेह क्षमता और समर्पण जैसे कमयाब मानवीय गुण औरो से बहुत अधिक हैं और यही कारण है कि अपने विरोधियों की तमाम साजिशों के बावज़ूद ये नाम आज साहित्य के सबसे सशक्त नामो मे से एक है।

हिन्दू जीवन, हिन्दू तन-मन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय – तुफ़ैल चतुर्वेदी

उपनिषद्-पुराण महाभारत वेदामृत पान किया मैंने
अपने पग काल-कंठ पर रख गीता का ज्ञान दिया मैंने
संसार नग्न जब फिरता था आदिम युग में हो कर अविज्ञ
उस काल-खंड का उच्च-भाल मैं आर्य भट्ट सा खगोलज्ञ
पृथ्वी के अन्य भाग का मानव जब कहलाता था वनचर
मैं कालिदास कहलाता था तब मेघदूत की रचना कर
जब त्रस्त व्याधियों से हो कर अगणित जीवन मिट जाते थे
अश्वनि कुमार, धन्वन्तरि, सुश्रुत मेरे सुत कहलाते थे
कल्याण भाव हर मानव का मेरे अंतरमन का किसलय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

मेरी भृकुटि यदि तन जाये तीसरा नेत्र मैं शंकर का
ब्रह्माण्ड कांपता है जिससे वह तांडव हूँ प्रलयंकर का
मैं रक्तबीज शिर-उच्छेदक काली की मुंडमाल हूँ मैं
मैं इंद्रदेव का तीक्ष्ण वज्र चंडी की खड्ग कराल हूँ मैं
मैं चक्र सुदर्शन कान्हा का मैं काल-क्रोध कल्याणी का
महिषासुर के समरांगण में मैं अट्टहास रुद्राणी का
मैं भैरव का भीषण स्वभाव मैं वीरभद्र की क्रोध ज्वाल
असुरों को जीवित निगल गया मैं वह काली का अंतराल
देवों की श्वांसों से गूंजा करता है निश-दिन वह हूँ जय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय



मैं हूँ शिवि-बलि सा दान-शील मैं हरिश्चंद्र सा दृढ-प्रतिज्ञ
मैं भीष्म-कर्ण सा शपथ-धार मैं धर्मराज सा धर्म-विज्ञ
मैं चतुष्नीति में पारंगत मैं यदुनंदन, यदुकुलभूषण
मैंने ही राघव बन मारे मारीच-ताड़का-खर-दूषण
मैं अजय-धनुर्धन अर्जुन हूँ मैं भीम प्रचंड गदाधारी
अभिमन्यु व्यूह-भेदक हूँ मैं भगदत्त समान शूलधारी
मैं नागपंचमी के दिन यदि नागों को दूध पिलाता हूँ
तो आवश्यकता पड़ने पर जनमेजय भी बन जाता हूँ
अब भी अन्याय हुआ यदि तो कर दूंगा धरती शोणितमय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

शत-प्रबल-खड्ग-रव वेगयुक्त आघातों को मैंने झेला
भीषण शूलों की छाया में मेरा जीवन पल-पल खेला
संसार-विजेता की आशा मेरे ही आगे धूल हुई
यवनों की वह अजेय क्षमता मेरे ही पग पर फूल हुई
मेरी अजेय असि की गाथा संवत्सर का क्रम सुना रहा
यवनों पर मेरी विजय-कथा बलिदानों का क्रम बता रहा
पर नहीं उठायी खड्ग कभी मैंने दुर्बल-पीड़ित तन पर
अपने भाले की धार न परखी मैंने आहत जीवन पर
इतिहास साक्षी दुर्ग नहीं, हैं बने ह्रदय मेरा आलय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

युग-युग से जिसे संजोये हूँ बाप्पा के उर की ज्वाल हूँ मैं
कासिम के सर पर बरसी वह दाहर की खड्ग विशाल हूँ मैं
अस्सी घावों को तन पर ले जो लड़ता है वह शौर्य हूँ मैं
सिल्यूकस को पद-दलित किया जिसने असि से वह मौर्य हूँ मैं
कौटिल्य-ह्रदय की अभिलाषा मैं चन्द्र गुप्त का चन्द्रहास
चमकौर दुर्ग पर चमका था उस वीर युगल का मैं विलास
रण-मत्त शिवा ने किया कभी निश-दिन मेरा रक्ताभिषेक
गोविन्द, हकीकत राय सहित जिस पथ पर पग निकले अनेक
वो ज्वाल आज भी धधक रही है तो इसमें कैसा विस्मय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय


तुफैल चतुर्वेदी

सोनेट - तुफ़ैल चतुर्वेदी

सोनेट मूलतः योरोपीय शायरी की अच्छी-ख़ासी मुश्किल क़िस्म है. 14 मिसरों की इस काव्य विधा के नियम ख़ासे पेचीदा और कठिन हैं। ये विधा इतनी कठिन है कि विश्व साहित्य में सोनेट कह सकने वाले 50 नाम भी दिखायी नहीं देते। माना जाता है कि ये विधा इटली में जन्मी और वहां से फैली। एस्पेंसर, शेक्सपियर, पिटरार्क, टामस हार्डी, हौपकिन्स, जॉन मैसफ़ील्ड, ब्रुक, जी.एम. हौकिंसन, मैथ्यू और्नल्ड, वर्ड्सवर्थ, कूलरिज, शैली, कीट्स आदि इसके प्रमुख नाम हैं। हमारे यहां पहले सोनेटनिगार अज़ीमुद्दीन अहमद हुए हैं। इनका पहला सोनेट 1903 में सामने आया। 1928 में अख्तर जुनागढ़ी के सोनेट का संकलन लम्हाते-अख्तर के नाम से छपा। 1930 में नून. मीम. राशिद का सोनेट का संकलन ज़िन्दगी सामने आया। इस विधा के प्रमुख रचनाकारों में डॉ. हनीफ़ कैफ़ी, डॉ. नाज़िम जाफ़री, डॉ. अज़ीज़ तमन्नाई, आज़ाद गुलाटी, ख़लीलुर्रहमान राज़, नादिम बलखी, मुहम्मद इरफ़ान, निसार अयोलवी आदि हुए हैं।

सोनेट मूलतः तीन प्रकार के हैं मगर हमारे लोगों ने इसके सिवा भी उठा-पटक की है और उर्दू सोनेट की नयी शक्लें भी बनायी हैं।

1:- इटालियन या पिटरार्कन

2:-शेक्सपेरियन

3:- एस्पेंसेरियन

पिटरार्कन:- ये सोनेट की बुनयादी शक्ल है। इसके जनक इटली के शायर पिटरार्क हैं। इस सोनेट में 8 तथा 6 मिसरों के दो क़ितए होते हैं। पहले 8 मिसरों के क़ितए में 1,4,5 तथा 8वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है और 2,3,6 तथा 7वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है। शेष 6 मिसरों का क़ितआ दो तरह से शक्ल पाता है। 9,11,13वां मिसरा और 10,12 और 14वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है। दूसरी शक्ल में 9वां तथा 12वां, 10वां तथा 13वां और 11वां तथा 14वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है

शेक्सपेरियन सोनेट:- सोनेट की यह शैली मूलतः अर्ल ऑफ़ सरे की ईजाद है मगर शेक्सपियर के अधिक प्रसिद्ध हो जाने के कारण उनके नाम से पुकारी जाती है। ये सोनेट दो की जगह चार हिस्सों में बंटा होता है। चार-चार मिसरों के तीन बंद और अंत में बैत सोनेट का निचोड़ पेश करता है

एस्पेंसेरियन सोनेट:- इस शैली का सोनेट शेक्सपेरियन सोनेट की ही तरह हरकत करता है। उसी की तरह इसके हर बंद में पहला और तीसरा मिसरा तथा दूसरा और चौथा मिसरा हमक़ाफ़िया होता है। अंतर इतना है कि हर बंद के चौथे मिसरे का क़ाफ़िया अगले बंद के पहले मिसरे में अपना लिया जाता है

                 पिटरार्कन सोनेट

कुछ नहीं ऐ दिले-बीमार अभी कुछ भी नहीं
कितनी तकलीफ़ अभी सीना-ए-इफ़लास में है
सोज़िशे-ज़ख्मे-जिगर शिद्दते-अहसास में है
दिल धड़कने की ये रफ़्तार अभी कुछ भी नहीं
इक ख़ला है पसे-दीवार अभी कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी दूर बहुत दूर किसी आस में है
इक तअस्सुब की महक फूलों की बू-बास में है
क़िस्सा-ए-गेसु-ए-रुख़सार अभी कुछ भी नहीं

इसी उमीद पे रौशन हैं ये पलकों के चिराग़
इसी उमीद पे ज़िंदा हैं कि आयेगी सहर
मिल ही जायेगा कभी मंज़िले-हस्ती का सुराग़
हमने माना कि हर-इक अपना मुख़ालिफ़ है मगर
मरहमे-वक़्त से मिट जायेगा सीने का ये दाग़
और कुछ देर ठहर और अभी और ठहर ………………….डॉ. नाज़िम जाफ़री


ऐ मिरे चांद, मिरी आंख के तारे, मिरे लाल
ऐ मिरे घर के उजाले मिरे गुलशन की बहार
तेरे क़दमों पे हर इक नेमते-कौनैन निसार
हो सितारों की बुलंदी पे तिरा इस्तक़बाल
तेरी मंज़िल बने इन्सान की मेराजे-कमाल
तेरी महफ़िल में हो दोशीज़ा-ए-गेती का सिंगार
तेरा मक़सूद हो लैला-ए-तमददुन का निखार
तेरा मशहूद हो महबूबा-ए-फ़ितरत का जमाल

किसने देखा है मगर आह रुख़े-मुस्तक़बिल
कब धुआं बन के बिखर जाये ये नैरंगे-मजाज़
रंगे-महफ़िल ही उलट दे न बिसाते-महफ़िल
शिद्दते-नग़मा ही बन जाय न वीरानी-ए-दिल
औजे-फ़र्दा के तसव्वुर से लरज़ जाता है दिल
क्या दुआ दूँ मिरे बच्चे हो तिरी उम्र दराज़ ………………..डॉ. हनीफ़ कैफ़ी

हमें न चाहो कि हम बदनसीब हैं लोगो
हमारे चाहने वाले जिया नहीं करते
ये उनसे पूछो जो हमसे क़रीब हैं लोगो
ख़ुशी के दिन कभी हमसे वफ़ा नहीं करते

बुझी-बुझी सी तबीयत, उड़ा-उड़ा सा दिमाग़
हमारे सीना-ए-इफ़लास में दिले-महरूम
तलाश करने से पाता नहीं है अपना सुराग़
मचल रहा है मगर मुद्दआ नहीं मालूम

हमारी ज़ीस्त थी सादा वरक़ प क्या करते
सियाही वक़्त ने उलटी थी इस सलीक़े से
किसे हम अपनी हक़ीक़त से आशना करते
कि नक़्श कोई न उभरा किसी तरीक़े से
वो तिश्नगी है कि प्यासे ख़याल आते हैं
हमारे ख़ाबों में दरिया भी सूख जाते हैं ………………….डॉ. नाज़िम जाफ़री


तज दे ज़मीन, पंख हटा, बादबान छोड़ - तुफ़ैल चतुर्वेदी

तज दे ज़मीन, पङ्ख हटा, बादबान छोड़
गर तू बग़ावती है, ज़मीं-आसमान छोड़

ये क्या कि पाँव-पाँव सफ़र मोतियों के सम्त
हिम्मत के साथ बिफरे समन्दर में जान छोड़

ख़ुशबू के सिलसिले दे या आहट की राह बख़्श
तू चाहता है तुझसे मिलें, तो निशान छोड़

बुझते ही प्यास तुझको भुला देंगे अहले-दश्त
थोड़ी-सी तश्नगी का सफ़र दरमियान छोड़
अहले-दश्त – जङ्गल के लोग

मैं चाहता हूँ अपना सफ़र अपनी खोज-बीन
इस बार मेरे सर पे खुला आसमान छोड़

क्यों रोकता है मुझको इशारों से बार-बार
सच सुनना चाहता है तो मेरी ज़बान छोड़

मुझको पता चले तो यहाँ कौन है मेरा
आ सामने तो मेरी तरफ, खुल के बान छोड़

:- तुफ़ैल चतुर्वेदी


बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

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एक नज़्म - तुफ़ैल चतुर्वेदी

मुझे उसने बताया है

मई में चंद दिन पहले

बहुत ठंडेबहुत बोझलबुरे हालात का दिन था

जब उसका ज़हन उलझा था ख़यालों में

लहू बर्दाश्त की हद से गुज़र आया

अना ज़ख्मी हुई

माहौल इस दर्जा सुलग उट्ठा

तहय्या कर लिया उसने

कि अब वो ख़ुदकुशी कर ले

कोई भी रास्ता शायद नहीं होगा

यक़ीनन ही नहीं होगा

वगरना क्यों कमल चाहेगा उसकी पत्तियां बिखरें

धनक क्यों अपने हाथों रंग मसलेगी

गिरा देगी ज़मीं पर अपनी पिचकारी

महक क्यों ख़ुद को अफ़सुर्दा करेगीरौंद देगी जिस्म अपना

कोई शफ्फ़ाफ़ चश्मा किस लिये ख़ुद अपने हाथों ख़ुद को मिटटी से भरेगा

सितारा कोईअपनी रौशनी क्यों तीरगी से ख़ुद ही बदलेगा

कोई भी रास्ता शायद नहीं होगा

यक़ीनन ही नहीं होगा

कभी हालत ऐसे मोड़ पर ले आते हैं सांसें

लहू बर्दाश्त की हद से गुज़र जाता है

तेज़ी से सुलगता है बदनतपती हैं शरियानें

ख़यालो-ख़ाब को रस्ता नहीं मिलता

बस इक आवाज़ पैहम गूंजती है ज़हन के गुम्बद में आओ ख़ुदकुशी कर लें

ये मर्ज़ी थी समय की और वो इस कोशिशे-नाकाम से बच कर चला आया

बहुत गहराभयानकसर्द सन्नाटा मुझे घेरे हुए है

कि जैसे कोई अजगर अपनी कुंडली में मुझे जकड़े निगलना चाहता है

बस इक शिकवा है उससे जिसका शायद हक़ नहीं है

मैं उसकी ज़िंदगी के साथ आऊं ये नहीं मुमकिन

मगर जब मौत चाही उसने तो क्योंकरनहीं मुझको पुकारा

मुझको क्यों आवाज़ के लायक़ नहीं समझा

मुझे आवाज़ देता,आज़माताएक तो मौक़ा मुझे देता

मुझे उसने बताया है ………

 

 

तुफ़ैल चतुर्वेदी