कहानी - चीनी की स्वीटी और लाटसाहब – रेखा बब्बल

यक़ीन ही नहीं होता कि चीनी और स्वीटी को दस बरस हो गए इस घर में आए। सामने डटे हुए सोफ़े को तो शायद पंद्रह या बीस साल हो गए होंगे। 

इस घर का बड़ा बेटा सोनू मतलब कि सौरभ की शादी पक्की हो चुकी थी। अचानक सौरभ बोला- ‘मम्मा,सोफ़ा बहुत पुराना हो गया है,शादी से पहले चेंज कर लें क्या?’ 

चीनी और स्वीटी के कान खड़े हो गए। राधिका आंटी बोलीं- ‘अरे क्या ख़राबी है इसमें,ठीक तो है।’

‘आपने ठीक से देखा नहीं है,दोनों साईड से कपड़ा फटने लगा है,और देख-देख कर मन भी भर गया।’

पुष्पा बीच में टपक पड़ी- ‘हाँ दीदी,नया सोफ़ा ले लो,ये वाला मुझे दे देना।’

‘अच्छा,तेरे घर में खड़े होने की तो जगह नहीं है,सोफ़ा कहाँ रखेगी?’

‘मम्मा,मैं ऑनलाइन देखूँ क्या?’

‘अभी रुक जा,सोचेंगे क्या करना है।’

स्वीटी की जैसे पूरी दुनियाँ ही घूम गयी,किसी तरह चीनी ने उसे सम्भाला। चीनी-स्वीटी की आँखों के सामने दस साल पहले का दृश्य घूम गया- ‘न्यू फ़र्निचर हाऊस’ में आते ही दोनों ने ख़ुद ही अपना नामकरण कर लिया था-‘चीनी और स्वीटी।’ तर्क ये,कि दोनों नामों का मतलब एक ही है। हमेशा से उन दोनों ने एक-एक करके सबको शो रूम से जाते देखा था। इसलिए पता था कि कभी भी उनकी बारी आ सकती है। एक तरफ़ तो मन में कौतूहल कि जहां जाएँगे, वहाँ पता नहीं कैसे लोग होंगे? वहीं एक डर भी कि दोनों सहेलियाँ कहीं अलग न हो जाएँ। और वो दिन आ ही गया जब त्रिपाठी जी की हंसमुख पत्नी राधिका को वे दोनों एक ही नज़र में भा गयीं। त्रिपाठी जी ने कहा भी कि- “एक-दो जगह और देख लेते हैं,” पर राधिका जी ने ये कहते हुए उनके सुझाव पर पूर्ण विराम लगा दिया,कि- ‘जो हमें चाहिए था मिल गया,अब कहीं और भटकने की क्या ज़रूरत है।’

जब त्रिपाठी जी ने कहा कि ‘अपने घर में जगह कम है,एक को ही ले चलते हैं,’ तो चीनी- स्वीटी की जैसे सांसें ही थम गयीं। लेकिन भला हो राधिका आंटी का, जिन्होंने ये कहते हुए दोनों को साथ ले जाने का फ़ैसला किया कि ‘नहीं, एक तो बहुत अधूरा लगेगा दोनों ले चलेंगे।’  और त्रिपाठी जी ने मुस्कुराते हुए चुटकी ली ‘जो हुकुम मैडम।’ चीनी-स्वीटी की जान में जान आयी। उसी एक क्षण में राधिका आंटी से प्यार हो गया और त्रिपाठी जी के लिए मन में इज़्ज़त जाग गयी।

जी हाँ, तो इसतरह पंचकुइयाँ रोड के  ‘न्यू  फ़र्निचर हाऊस’ की दोनों कुर्सियाँ चीनी और स्वीटी, नोएडा निवासी मुकुल त्रिपाठी जी के घर जा पहुँचीं। सामनेवाली ममता आंटी की पैनी नज़र ने सबसे पहले चीनी-स्वीटी का निरीक्षण किया- ‘नई कुर्सियाँ ख़रीदकर लायी हैं राधिका जी?’

 ‘जी’ - छोटा सा उत्तर देकर राधिका आंटी घर में घुस गयीं। घर में घुसते ही चीनी-स्वीटी की आँखें चमक उठीं, क़रीने से सजा ड्राइंगरूम, जगह-जगह रखे खूबसूरत पौधे, दीवार पर टंगा बड़ा सा टीवी, कोने में रखा छोटा सा ट्रांजिस्टर, खिड़की पर झूलते आसमानी पर्दे और उन पर्दों के ठीक आगे जमा हुआ शानदार सोफ़ा; स्वीटी की नज़रें तो जैसे अटक कर रह  गयी उस सोफ़े पर; चीनी ने गला साफ़ करने के बहाने उसकी तंद्रा भंग की। सोफ़ा हल्का सा मुस्कुरा दिया, जैसे मुस्कुराकर अहसान कर रहा हो उनपर। चीनी और स्वीटी को उसी सोफ़े के सामने स्थापित कर दिया गया।

अंदर से बिट्टी आई और स्वीटी के ऊपर धमक गयी -

‘ओ वाऊ! मम्मा—दिस इज़ सो कंफर्टेबल ।’

‘अच्छा लगा न?’ कहकर राधिका आंटी शायद अपने लिए चाय लेने रसोई में चली गयीं। रसोई से ही उन्होंने आवाज़ दी- ‘सोनू,अपने कमरे से बाहर भी निकल ज़ाया कर कभी-कभी।’

सोनू ने अंदर से ही जबाब दिया- ‘क्या हुआ मम्मा?’

‘कुछ नहीं।’  

पर बिट्टी कहाँ चुप बैठनेवाली थी- ‘भईया देखो तो,मम्मा कितने ब्यूटिफ़ुल चेयर्स लेकर आयी हैं।’

सोनू बेमन से बाहर निकला- ‘मम्मा,चेयर्स अच्छी हैं।’

राधिका आंटी खुश हो गयीं- ‘पसंद आयी तुझे?’

 ‘हाँ-हाँ,बहुत अच्छी हैं।’

स्वीटी की नज़र सोफ़े की तरफ़ गयी,वो ऐसे देख रहा था जैसे कह रहा हो कि- ‘ज़्यादा इतराने की ज़रूरत नहीं है।’

स्वीटी ने उसी क्षण सोफ़े का नामकरण कर दिया,धीरे से चीनी के कान में फुसफुसाई - ‘अपने आपको बड़ा लाटसाहब समझता है।’

हफ़्ते भर में चीनी को समझ में आ चुका था की ‘स्वीटी मैडम के दिल का कांड हो चुका है,’ क्योंकि उनकी नज़रें थीं, जो सोफ़े महाराज मतलब कि लाटसाहब से हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं। उसदिन दोपहर को तो चीनी के शक पर ठप्पा लग गया, जब राधिका आंटी स्वीटी को खींचकर सोफ़े के पास ले गयीं और उसपर टांग फैलाकर आराम से अपनी फ़ुरसत वाली चाय की चुस्की लेने लगीं। सोफ़े के इतने पास जाते ही स्वीटी एकबारगी शर्म से लाल हो गयी, ख़ुशी से गुलाबी और शॉक से सफ़ेद।वापस जब वो चीनी के पास लौटी, तो चीनी ने छेड़-छेड़ के उसका जीना मुहाल कर दिया। स्वीटी भी हंसती रही,मुस्कुराती रही, खिलखिलाती रही क्योंकि आज उसे सबकुछ बहुत अच्छा लग लग रहा था। शायद राधिका आंटी का नाम इसीलिए राधिका है, क्योंकि वो बिना कहे मन में पनपे प्रेम को महसूस कर लेती हैं। इसीलिए तो काम-धाम निबटाकर स्वीटी को सोफ़े से सटाकर चाय पीना उनकी रोज़ की आदत में शुमार हो गया था। लाटसाहब की अकड़ भी जाने कहाँ उड़न-छू हो गयी है, अब वो भी अक्सर गुलाबी-गुलाबी से ही दिखते, पर रहेंगे तो लाटसाहब ही, अब नामकरण हो गया सो हो गया। चीनी उनको भी छेड़ने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देती, क्योंकि चीनी ने बाक़ायदा ख़ुद को साली की गद्दी पर विराजमान कर लिया था। उनतीनों को भी कहाँ पता था कि ज़िंदगी एक दिन ऐसे ईत्र की डिबिया का ढक्कन खोल देगी, जिसकी ख़ुशबू से  सारा जहां महक उठेगा। दिन मेट्रो की तरह भागने लगेगा और रातें नीले आसमान में चाँद-तारों के बीच हवाई जहाज़ की तरह।

घर की मेड पुष्पा जब भी झाडू लगाती, स्वीटी-चीनी में से एक को तो खिसका देती, दूसरे को सोफ़े पर रखने की कोशिश करती। चीनी हर बार जान-बूझकर लुढ़क जाती, जबकि स्वीटी के लिए सोफ़े की बाहों में एडजस्ट होना दिन का सबसे सुंदर पल होता। पुष्पा स्वीटी के लिए राधिका आंटी से बोली- ‘दीदी, इधर वाली कुर्सी अच्छी है, सोफ़े पर झट से फ़िट बैठ जाती है, दूसरी वाली तो लुढ़कती रहती है। लगता है दो तरह की बनावट है दोनों की।’

अंदर से सोनू कहता  हुआ बाहर आया- ‘मम्मा,आप पापा से बोल देना मुंबई से हापुस मैंगो की पेटी लेते आएँगे।’

पुष्पा टपक पड़ी- ‘ दीदी,भईया तो हमेशा टूरिंग में ही रहते हैं। सबकुछ अकेले सम्भालना पड़ता है आपको।’’

‘अरे उनकी जॉब ही ऐसी है,तो क्या कर सकते हैं।’

 अगले दिन सुबह-सुबह ११ बजे डोरबेल बजी। राधिका आंटी को लगा कि उनकी मेड पुष्पा होगी, पर दरवाज़ा खोलने पर  सामने वाली ममता आंटी को अपनी सुंदर बत्तीसी दिखाते हुए पाया।

’अरे नमस्ते भाभी जी,आइए न।’

राधिका आंटी के कहने से पहले ही ममता आंटी घर के अंदर थीं।

’बैठिए’

‘नहीं, बैठूँगी नहीं, वो आज शाम को न  मेरे मेरठ वाले ननद-ननदोई और उनके बच्चे आ रहे हैं-‘

‘अच्छा-अच्छा,आपका तो बड़ा प्यार है उनके साथ, है न?’

ममता आंटी को जैसे राधिका आंटी की बात अच्छी नहीं लगी। ‘ससुराल वालों से तो बना के रखना ही पड़ता है ।’

‘बना के तो सबसे ही रखना चाहिए भाभीजी। ख़ुशियाँ जितनी बाँटो, उतनी बढ़ती है’

‘आपकी तो सच में बात ही निराली है। अच्छा,मैं कह रही थी कि बच्चे-वच्चे आ जाते हैं, तो हॉल में बैठने की जगह की थोड़ी दिक़्क़त हो जाती है, तो सिर्फ़ आज के लिए क्या मैं आपकी ये दोनों कुर्सियाँ ले जा सकती हूँ?’

एक तरफ़ तो चीनी-स्वीटी और लाटसाहब की आँखें मिलीं, और तीनों की आँखों में एक साथ कई सवाल तैर गए; दूसरी तरफ़ राधिका आंटी को शायद पहली बार लगा कि इतना अच्छा होना भी कई बार बहुत बुरा होता है। उनके कुछ बोलने से पहले ही ममता आंटी बोलीं-

‘मैं साहिल से कह देती हूँ,वो खिसका के ले जाएगा। थैंक यू राधिका जी।’

उन्होंने मामला ठंडा नहीं होने दिया, हाथ के हाथ साहिल को वहीं से आवाज़ देकर बोलीं-

‘साहिल, ज़रा ये दोनों कुर्सियाँ अपने घर ले चल तो।’

‘इसकी क्या ज़रूरत है मम्मी।’

राधिका आंटी के साथ-साथ चीनी-स्वीटी और लाटसाहब  महाराज की त्रिमूर्ति को भी थोड़ी उम्मीद बंधी।

‘ज़रूरत है,तभी कह रही हूँ। चल,लेके चल।’

साहिल कुढ़ता हुआ बोला- ‘मम्मी आप भी न—-अरे पहले भी तो सब आते ही थे न, कहाँ ज़रूरत पड़ती थी एक्स्ट्रा चेयर की।’

‘बिना बहस किए कोई काम नहीं कर सकता क्या?’

और मजबूरन साहिल को हथियार डालना पड़ा, क्योंकि वो भी समझता तो था ही कि बहस का कोई फ़ायदा नहीं। एक साथ चार-पाँच दिल ममता आंटी की इस हरकत से बेज़ार हो उठे। बड़ी मुश्किल से मन को तसल्ली दी कि चलो एक ही दिन की तो बात है। सच में,नाम सिर्फ़ ममता है, पर ममता रत्ती भर नहीं है उनके अंदर। दरवाज़ा बंद होते ही बिट्टी ने आँखें तरेरी-

‘मम्मा आप भी न, मना नहीं कर सकते थे?’

‘पूछा कहाँ उन्होंने जो।’

बात भी सही थी, पूछने की तो ज़रूरत ही नहीं समझी ममता आंटी ने। राधिका आंटी धम्म से सोफ़े पर बैठ गयीं और लाटसाहब को एक तरफ़ से धीरे-धीरे सहलाने लगीं, जैसे लाटसाहब की उदासी भाँपकर उन्हें तसल्ली दे रही हों। शाम को सामने के घर से आती हंसी-ठहाकों की आवाज़ सुनकर लाटसाहब  के दिल पर जैसे साँप लोट गया।

‘ये मनुष्य भी न,जब देखो अपनी मनमानी करते रहते हैं।’

उधर चीनी-स्वीटी बेहाल हो रहे थे। ममता आंटी के ज़रूरत से ज़्यादा मोटे ननद-ननदोई ने उन दोनों के ऊपर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया था। ऐसा लग रहा था कि अपने मरियल से सोफ़ा-सेट की सुरक्षा का ध्यान करके ही ममता आंटी के दिमाग़ में चीनी-स्वीटी को लाने की प्लानिंग उपजी होगी। वे दोनों लगातार कुछ न कुछ खाए जा रहे थे, और बार-बार अपने गंदे हाथ सबकी नज़र बचाकर चीनी-स्वीटी में ही पोंछे जा रहे थे। सच!किसी-किसी मनुष्य में शायद शऊर नाम की चीज़ ही नहीं होती। हद तो तब हो गयी जब शोर-शराबे का फ़ायदा उठाकर ननदोई जी बार-बार गैस पास करते, उनकी वाइफ़ उनको धीरे से कोहनी मारती, वे निर्विकार भाव से उनकी तरफ़ देखते और थोड़ी देर बाद  बड़ी बेशर्मी से फिरसे वही क्रिया दोहराते। साहिल ने छोटे राहुल से कहा भी -

‘ओए राहुल, गड़बड़ कर रहा है क्या, बड़ी बदबू आ रही है यार, जा टॉयलेट होके आ जा।’

वो फैल गया- ‘मैंने कुछ नहीं किया।’

लेकिन मोटे ननद-ननदोई टस से मस नहीं हुए, साहिल की बात पर मुस्कुरा के रह गए बस। ममता आंटी के मेहमान टाटा-बाय बाय करके विदा हो गए, पर इस सन्नाटे में भी इधर लाटसाहब  और उधर स्वीटी के मन में कोहराम मचा हुआ था। आँखों-आँखों में सुबह हुई,सुबह से शाम और शाम से रात।

‘मम्मा, आंटी ने कुर्सियाँ नहीं लौटाईं?’

‘लौटा देंगी बिट्टी, हो सकता है,बिज़ी होंगी, कल इतने सारे मेहमान जो आए थे उनके घर?’

‘हद है, कुर्सी लौटाने में कितना टाइम लगता है जो।’

राधिका आंटी भी समझ रही थीं कि बिट्टी की बात सही है, पर कहें तो कहें क्या? लाटसाहब को हमेशा शिकायत रहती थी कि बिट्टी अक्सर उनके ऊपर गीले तौलिए, और कपड़े डाल दिया करती थी, लेकिन वही बिट्टी आज उन्हें अपनी सी  लगी।

अगले दिन सुबह अपनी फ़्रेंड के यहाँ जाते हुए बिट्टी बोली- ‘मम्मा मैं रिया के घर प्रोजेक्ट करने जा रही हूँ, शाम तक लौटूँगी। ममता आंटी से आज कुर्सियाँ ज़रूर मँगवा लेना।’

‘अरे दे देंगी बेटा।’

सोनू भी तैयार होकर आया और रोज़ की तरह सोफ़े पर बैठकर खूब सारा डियो लगाने लग गया। अक्सर बिट्टी के गीले तौलिए और कपड़ों की स्मेल से सोनू का ये डियो-स्नान ही बचाता था लाटसाहब  को। सोनू भी अपने काम पर निकल गया। राधिका आंटी अपनी फ़ुरसत वाली चाय की प्याली लेकर आयीं, तो अचानक स्वीटी को मिस करने लगीं। आलथी-पालथी मारकर सोफ़े पर बैठ गयीं और चाय का घूँट भरने लगीं, पर जाने क्यों आज चाय में रोज़ वाला स्वाद ही नहीं था।

इधर लाटसाहब और उधर  स्वीटी दोनों के मन में यही चल रहा था कि- ‘काश!हमारे पास भी मोबाईल होता,तो कम से कम विडियो कॉल करके एक-दूसरे की शकल तो देख लेते।

साहिल ने कहा भी- ‘मम्मी,आंटी की कुर्सियाँ तो लौटा दो।’

‘लौटा देंगे आराम से, अभी काम का समय है, भाभी जी बिज़ी होंगी।’

साहिल बस सर हिलाकर रह गया। कल से लेकर आजतक ममता आंटी ने अपने घर के सोफ़ा-कुर्सियों की तरफ़ पलटकर नहीं देखा है। कभी स्वीटी के ऊपर बैठती हैं, तो कभी चीनी के। चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब चीनी-स्वीटी की गोद में ही निबटाया जा रहा है।

चीनी के मन में आशंका जागी- ‘आज भी हम अपने घर जा पाएँगे की नहीं?’

‘ऐसा मत बोल चीनी,मर जाऊँगी मैं।’ पहली बार चीनी का मन स्वीटी को छेड़ने का या उसका मज़ाक़ उड़ाने का नहीं हुआ।

 शाम को घर के अंदर घुसते ही बिट्टी का पारा हाई हो गया- ‘आंटी ने अभीतक कुर्सियाँ नहीं भिजवाईं ?’

कंधे से बैग निकालकर उसने सोफ़े पर पटका और दरवाज़े की तरफ़ झपटी।राधिका आंटी ने पीछे से आवाज़ दी- ‘बिट्टी,कहाँ जा रही है,सुन तो; पर बिट्टी अब कहाँ सुननेवाली थी किसी की। सामनेवाले फ़्लैट की बेल बजाते ही साहिल ने दरवाज़ा खोला।

‘साहिल भईया, शाम को सोनू भईया के फ़्रेंड्स आ रहे हैं घरपर, तो कुर्सियाँ चाहिए थीं।’

अंदर से ममता आंटी भागती हुई आयीं- ‘अरे बिट्टी, मैं बस भिजवाने ही वाली थी।’

‘कोई बात नहीं आंटी, मैं  ले जाऊँगी।’ कहकर बिट्टी ख़ुद ही कुर्सियाँ खिसकाने लगी। साहिल ने उसे रोका- ‘मैं छोड़ता हूँ।’

देखते ही देखते बिट्टी चीनी-स्वीटी और लाटसाहब,तीनों की नज़र में हीरोईन बन गयी। स्वीटी और लाटसाहब की आँखें मिली और जैसे बादलों के कई सारे टुकड़े तैरने लगे उन आँखों में। राधिका आंटी ने स्वीटी को सोफ़े के पास खींचा और आँखें मूँद टांगें फैलाकर बैठ गयीं। लाटसाहब  ने जैसे धीरे से हाथ पकड़ लिया स्वीटी का।

यूँ ही बीत गए ज़िंदगी के खूबसूरत दस साल। आज जब सौरभ ने सोफ़े को बदलने की बात की तो अचानक चीनी-स्वीटी और लाटसाहब को तूफ़ान के आने की आहट सुनाई देने लगी। तीनों के हाथ दुआओं में उठ गए। घंटी बजी, राधिका आंटी ने दरवाज़ा खोला, सामने ममता आंटी थीं। जबसे साहिल नौकरी के लिए दुबई गया है, वे अक्सर दोपहर में राधिका आंटी के साथ अपना अकेलापन बाँटने आ जाती हैं।

‘और भाभी जी, सौरभ की शादी की तैयारियाँ चल रही हैं?’

‘हाँ, सौरभ सोफ़ा बदलने को बोल रहा है, पर मेरा मन नहीं मान रहा। बहुत सारी यादें जुड़ी हैं इन सोफ़ा और कुर्सियों के साथ। पर बच्चे भी अपनी जगह ठीक हैं, उनको तो चेंज चाहिए होता है न?’

‘अरे बदलने की ज़रूरत ही नहीं है, आप सोफ़े का कपड़ा चेंज करवा के  पौलिश करवा लीजिए, एकदम नये जैसा हो जाएगा। मेरी बहन ने अभी हफ़्ता पहले ही करवाया है। ये देखिए, मैं आपको अपनी बहन के सोफ़े की पहले और अब की फ़ोटो दिखाती हूँ।’

और ममता आंटी ने झट अपने मोबाइल से सारी फ़ोटो राधिका आंटी को दिखा दी। राधिका आंटी का चेहरा खिल गया।

‘अरे ये तो बिलकुल नया लग रहा है। थैंक यू भाभी जी,आपने मेरे मन से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया। मैं कल ही बच्चों से बात करके इसका कपड़ा बदलवाती हूँ। भगवान करे बच्चों को भी ये आइडिया पसंद आए।’

डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिल गया, चीनी-स्वीटी और लाटसाहब के मन में ममता आंटी ने अचानक एक अलग सी जगह बना ली थी, उनका मन हुआ कि आगे बढ़कर ममता आंटी के चरण छू लें ।

चिलचिलाती दोपहरी में खिड़की से आती ठंडी हवा के झोंके ने अचानक माहौल को शीतल कर दिया था।

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