रात्रि साढ़े दस बजे उसकी हरिद्वार की ट्रेन थी। निर्धारित कार्यक्रमानुसार उसने श्मशान-भूमि के विशेष कक्ष में रखी माँ की अस्थियाँ लीं और वहीं से सीधे स्टेशन पहुँचा।
ट्रेन में सवार होकर उसने अस्थियों वाला लाल थैला बर्थ के साथ बनी खूँटी पर टाँग दिया। अन्य यात्रियों को सोने की तैयारी में देखकर वह भी लेट गया। बचपन से अब तक माँ की स्नेहिल छाया में बीते वर्षों की कितनी ही घटनाएँ, ढेरों यादें उसके मन-मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगीं। बहुत छुटपन में रात को अकेले में जब उसे डर लगता तो माँ उसे अपने साथ चिमटाकर सुला लेती थी। अंतिम संस्कार के दिन माँ को मुखाग्नि देते वक़्त वह बुरी तरह भावविह्वल हो गया था, तब कई मित्र और सगे-संबंधियों ने बड़ी मुश्किल से उसे सँभाला। सुबह गऊघाट पर दसवें की विशेष पूजा के साथ ही माँ अब सदैव के लिए गंगा मैया की पावन, अविरल धारा का हिस्सा बन जाने वाली थी।
ऐसे ही देर तक विचारमग्न रहने के पश्चात् उसने ध्यान किया कि अधिकांश सहयात्री बत्तियाँ बुझाकर सो चुके थे। थकान और कई दिनों से ठीक से न सो पाने के कारण उसकी अपनी आँखें भी बोझिल हो चली थीं। सहसा उठकर उसने लाल थैला उतारा और अपने साथ भींचकर सो गया।

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