नज़्म - मेरी माँ - अजय सहाब

 


ये मेरी माँ जो चला करती है लाठी लेकर

चाल में इसकी भी हिरनी सी लचक थी पहले

जिस्म से इसके अब आती है दवाओं की महक

जिस्म में इसके भी सन्दल सी महक थी पहले

मोतियाबिन्द से बुझती हुई आँखें इसकी

अपने वक़्तो में ये सूरज सी चमकती होंगी

जिनमें अब सिर्फ़ सफे़दी के सिवा कुछ भी नहीं

यही ज़ुल्फ़ें कभी फूलों सी महकती होंगी

किसी शायर ने कभी इसको भी देखा होगा

और इस हुस्न पे नग़्मात बनाये होंगे

छुप के कितनों ने इसे दिल ही में चाहा होगा

इसकी खा़तिर भी कई ख़्वाब सजाये होंगे

इसके ये हाथ जो ढाँचों से नज़र आते हैं

इन्हीं हाथों ने कभी मुझको सम्हाला था यहाँ

इसका जो पेट है ढलका हुआ ढीला ढीला

इसने इस कोख से ही मुझको निकाला था यहाँ

ख़र्च ख़ुद को किया हम सबको बनाने के लिए

अपनी रानाई को क़ुर्बान किया है इसने

हम पे बरसी है कोई प्यार का बादल बनकर

हमको एक बीज से इंसान किया है इसने

वक़्त कितने भी करे ज़ुल्म बदन पर इस के

मेरी माँ मुझको हमेशा ही हसीं लगती है

माँ का ये हुस्न न ढलता है न बदलेगा कभी

अब भी माँ मुझको कोई माहजबीं लगती है

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