13 जनवरी 2017

क्षेत्रीय भाषाओं से हिन्दी को नुकसान - नवीन

लोहड़ी, पोंगल और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ। 

एक महत्वपूर्ण विषय पर स्वस्थ-विमर्श हेतु सभी साथियों से निवेदन। 

पूरे देश में आज कल जहाँ एक तरफ़ भोजपुरी व अवधी को भाषाओं की सूची (आठवीं अनुसूची) में स्थान दिलवाने हेतु प्रयास चल रहे हैं वहीं दूसरी ओर कुछ विद्वान इस के विरोध में भी उठ खड़े हुये हैं। 

जो पक्ष में हैं वह अपने अस्तित्व, अपने पुरखों की पहिचान को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। जो विपक्ष में हैं उन का कहना है कि अगर क्षेत्रीय भाषा-बोलियों को सूची में शामिल किया गया तो हिन्दी अपना दर्ज़ा खो देगी एवम् उस की जगह उर्दू ले लेगी। 

मैं समझता रहा हूँ कि उर्दू भाषा या बोली न हो कर एक लहजा (pattern) है जो नस्तालीक़ (फ़ारसी स्क्रिप्ट) और देवनागरी के साथ-साथ रोमन में भी लिखी जाती है। यक़ीन जानिये इसे हिब्रू में भी लिखा जा सकता है। इसी तरह संस्कृत को भी बहुत पहले से नस्तालीक़ व रोमन आदि लिपियों में लिखा जाता रहा है। 

मैं समझता रहा हूँ कि भले ही आजकल हिंगलिश लहजा (pattern) सर चढ कर बोल रहा है मगर यह एक स्वतन्त्र भाषा या बोली नहीं है - कम-अज़-कम अब तक तो नहीं ही है। 

मैं समझता रहा हूँ कि भाषा-बोली एवम् लिपि दो अलग विषय-वस्तु हैं। आज दुनिया की तमाम भाषाएँ रोमन में भी लिखी जा रही हैं। मगर इस के चलते सारी दुनिया का ब्रिटेनीकरण तो नहीं हो गया। 

मैं समझता रहा हूँ कि ब्रजभाषा एक समय पूरे संसार की साहित्यिक भाषा रही है। मगर अफ़सोस आज ब्रजभाषा चर्चाओं में नहीं है। शायद समय को यही स्वीकार्य हो। शायद ब्रजभाषा सद्य-प्रासंगिक स्तरों  से बचते हुये संक्रमण काल की प्रतीक्षा कर रही हो। 

मैं समझता रहा हूँ कि आज भी हम तथाकथित हिन्दी-उर्दू भाषी व्यक्ति, तथाकथित हिन्दी-उर्दू की बजाय, अवधी-भोजपुरी-राजस्थानी-ब्रज-हिमाचली-गुजराती-मराठी आदि ही अधिकांशत: बोलते हैं। या फिर हिन्दुस्तानी या हिंगलिश या इंगलिश। दक्षिण भारत का मुसलमान तुलू-कन्नड़-तमिल आदि बोलता है। बांग्लादेश में आज भी बंगाली बोली जाती है। 

मैं समझता रहा हूँ कि यदि हमारी हिन्दवी या हिन्दुस्तानी ज़ुबान को तथाकथित हिन्दी या उर्दू के दायरों में न बाँटा जाता तो कहीं ज़ियादा बेहतर होता।  

विमर्श का केन्द्र - क्षेत्रीय बोलियों को सूची में शामिल करने से हिन्दी को होने वाले नुकसान - है। 

आप सभी साथियों से निवेदन है कि इस स्वस्थ-विमर्श में अपने मूल्यवान विचारों को अवश्य रखें। 

सादर, 

नवीन सी• चतुर्वेदी 


9967024593 
13.01.2016

12 जनवरी 2017

सीधे-सीधे ढाई करोड़ रुपयों की बचत

सुनार कहे वह सोना, डॅाक्टर बताये वह दवाई और मैडिकल स्टोर वाला माँगे वही दवा का दाम - यही नियति रही है हम लोगों की। मगर कुछ युग-दृष्टा ऐसी नियतियों को तोड़ते भी हैं।

जिन दिनों हिन्दुस्तान टू जी थ्री जी फोर जी एट्सेक्ट्रा से गुज़र रहा था उन्हीं दिनों एस वी सी फाउण्डेशन वृहत्तर सामाजिक लाभार्थ कुछ करने के प्रयत्नों में लगा हुआ था। इन प्रयत्नों को अमली जामा पहनाया गया तक़रीबन दो साल पहले - २०१५ की शुरुआत में। एस वी सी फाउण्डेशन के चिकित्सकीय प्रकल्प के द्वारा मथुरा में सर्व-साधारण को एमआरपी से कम मूल्य पर दवाएँ उपलब्ध करवाई गईं जो कि आज भी सर्व-साधारण को सहज उपलब्ध हैं।

फाउण्डेशन द्वारा ज़ारी किये गये आँकड़ों के अनुसार १० करोड़ रुपये मूल्य की दवाइयाँ सर्व-साधारण को लगभग साढे सात करोड़ रुपयों में उपलब्ध करवाई गईं। परिणामस्वरूप जनता-जनार्दन की गाढी कमाई के ढाई करोड़ रुपयों की सीधे-सीधे बचत हुई।

हालाँकि अग्रोद्धरित दौनों उदाहरणों में कोई साम्य नहीं है फिर भी दूरदर्शिता व व्यापक-असर के उदाहरण के मद्देनज़र कहा जा सकता है कि जिस तरह भले ही कोई व्यक्ति नोटबन्दी के पक्ष में हो या विपक्ष में परन्तु इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि नोटबन्दी प्रक्रिया ने सवा सौ करोड़ देशवासियों को मितव्ययिता का पाठ पढाते हुए, फिजूलखर्ची का अर्थ समझाते हुए, एक लम्बे अन्तराल बाद लोगों को कम से कम जागरुक तो ज़ुरूर ही बनाया है; उसी तरह एस वी सी फाउण्डेशन ने भी सिर्फ़ एक ही मद यानि दवाई के ख़र्चे में एक अपेक्षाकृत छोटे शहर के कुल जमा दो लाख लोगों के कुछ ही महीनों के कालखण्ड में दो करोड़ अड़सठ लाख रुपये बचा कर एक बड़ी पहल की है। इस बचत को यदि आँकड़े-विशेषज्ञ राष्ट्रीय-गुणनफल के पैमाने पर परखें तो हैरत-अंगेज़ नतीज़े बरामद होंगे।

मुझे याद नहीं आ पा रहा कि मैडिकल स्टोर वालों से दवा के दाम को ले कर मोलभाव होता हो। यहाँ तक कि इस्कोन वालों के भक्ति वेदान्त अस्पताल में भी दवाएँ सम्भवत: एमआरपी पर ही बेची जाती हैं। ऐसे में एस वी सी फाउण्डेशन द्वारा १० करोड़ १० लाख मूल्य की दवाएँ ७ करोड़ ४२ लाख रुपयों में उपलब्ध करवाते हुये तक़रीबन दो लाख लोगों के २ करोड़ ६८ लाख रुपये बचाना यानि एमआरपी पर 26•53% की छूट यानि बहुत बड़ी बचत है।

इस महत्कर्म के लिये एस वी सी फाउण्डेशन के कर्ता-धर्ता आदरणीय सुरेश विठ्ठलदास पाठक जी एवम् उन की टीम के हर एक सदस्य को बारम्बार साधुवाद। जमना मैया सदैव आप कों सहाय रहें और आप लोग इसी तरह आप के माता-पिता-कुल-समाज आदि का नाम रौशन करते रहें। जय श्री कृष्ण।
सादर, 
नवीन सी• चतुर्वेदी 

१२ जनवरी २०१६