20 दिसंबर 2017

ग़ज़लें - रामबाबू रस्तोगी

हम उनको प्यार करते हैं उन्हें अपना समझते हैं।
हमारा दर्द ये है वो हमें झूठा समझते हैं॥

सियासी गुफ़्तगू मत कीजिये तकलीफ़ होती है।
ज़ुबाँ चुप है मगर हम आपका लहजा समझते हैं॥

कहा कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने आगे बढ़ो अर्जुन।
ये सारे दुष्ट केवल युद्ध की भाषा समझते हैं॥

ये कैसा दौर है बेटे नसीहत भी नहीं सुनते।
इधर हम आज भी माँ- बाप का चेहरा समझते हैं॥

हम अपने ख़ून से जिस सरज़मीं को सींचते आये।
सियासतदाँ उसे चौपाल का हुक्का समझते है॥

 * 

समंदर के जिगर में आजकल सहरा निकलता है।
जिसे भी मोम कहता हूँ वही शीशा निकलता है॥

र'वादारी , मोहब्बत , दोस्ती , एहसान , कुर्बानी।
हमारे दौर में हर रंग क्यों कच्चा निकलता है॥

सियासत फूल में , पत्तों में ,काँटों में , हवाओं में।
जिसे सच्चा समझता हूँ , वही झूठा निकलता है॥

सियासत में कई अनहोनियाँ होती ही रहती हैं।
यहाँ अमरूद के पौधे से चिलगोज़ा निकलता है॥

इसी जम्हूरियत के ख़्वाब ने जी भर हमें लूटा।
मैं जो सिक्का उठाता हूँ वही खोटा निकलता है॥

बदलते मौसमों में हाल है ऐसा गुलाबों का।
जहाँ से इत्र मिलता था वहाँ सिरका निकलता है॥


घर में बैठे रहें तो भीगें कब।
बारिशों से बचें तो भीगें कब॥

पत्थरों का मिज़ाज रख के हम।
यूँ ही ऐंठे रहें तो भीगें कब॥

आँसुओं का लिबास आँखों पर।
ये भी सूखी रहें तो भीगें कब॥

जिस्म कपडें का जान पत्तों की।
हम भी काग़ज़ बनें तो भीगें कब॥

उनके बालों से गिर रही बूँदें।
हम ये शबनम पियें तो भीगें कब॥

तेरे हाथों में हाथ साहिल पर।
अब न आगे बढ़ें तो भीगें कब॥

दूर तक बादलों का गीलापन।
और हम घर चलें तो भीगें कब॥



बदली नज़र जो उसने तो मंज़र बदल गये।
क़ातिल वही हैं हाथ के खंज़र बदल गये॥

किसका करें यक़ीन करें किस पे एतबार।
दरिया की प्यास देख समंदर बदल गये॥

गाँधी निराश हो के यही देखते रहे।
आबो- हवा के साथ ही बंदर बदल गये॥

दुनिया को जीतने की हवस दिल में रह गयी।
होके कफ़न में क़ैद सिकन्दर बदल गये॥

अरसे के बाद लौटा हूँ मैं अपने गाँव में।
हैरान हूँ कि राह के पत्थर बदल गये॥


जफ़ायें साथ चलती हैं ख़तायें साथ चलती हैं।
मैं मुजरिम हूँ मेरी सारी सज़ायें साथ चलती हैं॥

चरागों को तभी इस युद्ध का एहसास होता है।
खुले मैदान में जब भी हवायें साथ चलती हैं॥

हमारी ज़िंदगी इस दौर की है इक महाभारत।
यहाँ सच- झूठ की सारी कथायें साथ चलती हैं॥

यहाँ भगवान भी हर एक को ख़ुश रख नहीं सकते।
ये दुनिया है यहाँ आलोचनायें साथ चलती हैं॥

मुझे मायूसियाँ अक्सर डराती हैं मगर लोगो।
हर इक मुश्किल में मेरी आस्थायें साथ चलती हैं॥


रामबाबू रस्तोगी 

18 दिसंबर 2017

दोहे - रामबाबू रस्तोगी

हंस रेत चुगने लगे, बिना नीर का ताल।
मछुआरे खाने लगे , काट- काट कर जाल॥

जिसकी जैसी साधना , उसके वैसे भाग।
तितली कड़वी नीम पर , बैठी पिये पराग॥

सपनों के बाज़ार में , आँसू का क्या मोल।
यह पत्थर दिल गाँव है , यहाँ ज़ख़्म मत खोल॥

हरसिंगार की चाह में , हम हो गये बबूल।
शापित हाथों में हुआ , मोती आकर धूल॥

अलग-अलग हर ख़्वाब का, अलग- अलग महसूल।
एक भाव बिकते नहीं सेमल और बबूल॥

राजपथों पर रौशनी , बाकी नगर उदास।
उम्र क़ैद है चाँद को , सूरज को वनवास॥

घर का कचरा हो गये , अब बूढ़े माँ- बाप।
बेटे इंचीटेप से उम्र रहे हैं नाप॥


12 दिसंबर 2017

स्पर्श का आनंद - गणेश कानाटे


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मेरे दिल के नन्हे नर्म गालों पर उम्र चढ़ी ही नहीं!

स्पर्श क्षणिक होता है
स्पर्श का आनंद अमर होता है
माँ और बाबूजी का चूमना
मेरे नन्हे नर्म गालों को
मेरे दिल के नन्हे नर्म गालों को अब भी याद है
मेरे दिल के गालों पर
उम्र चढ़ी ही नहीं!

बाबूजी तो रहे नहीं
उनके गाल चूमने का स्मरण है
अम्मा अब बूढ़ा गयी है
मैं भी अधेड़ हो गया हूँ
अम्मा अब भी चूमती है मेरे गाल
मेरी सालगिरह पर

मै इस नए चूमने का स्मरण
और बचपन के चूमने का स्मरण
दोनों को मिला देता हूँ
मेरे दिल के नन्हे नर्म गाल
सुरक्षित रखेंगे यह सारे स्मरण
उस क्षण तक
जब मैं खुद एक स्मरण हो जाऊंगा

अंततः धरती माँ सहेज कर रखती है
हर बच्चे के नन्हे नर्म गालों को चूमने के स्मरण
जब वें आसमान को चूमने चलें जाते हैं...


गणेश कनाटे

मृद्गन्ध - गणेश कनाटे

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अब जो बारिश आती है 
अब जो मिट्टी भीग जाती है
अब जो गीली मिट्टी की गंध आती है
- बदली बदली सी आती है

इस मृद्गन्ध में अब घुल गयी है सड़ांध
सड़ांध उन मुर्दा जिस्मों की
जो बेटे थे मिट्टी के
पर मिट्टी में मिल गए
उसी मिट्टी में मजबूती से खड़े
पेड़ों पर लटक कर

मैं इस नई गंध के लिए
ढूंढ रहा हूँ, एक नया नाम

आपको सूझे तो लिख दीजियेगा
अपने पास ही कहीं गीली मिट्टी पर
मुझ तक वह गंध पहुंच जाएगी...

गणेश कनाटे

हजारों की संख्या में आत्महत्या करते किसानों को श्रद्धांजलि देते हुए...


* औसतन, हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या, यह हमारे देश का सच है.

मृद्गन्ध का नया नाम ढूंढ रहा हूँ...

"Philosophers have hitherto interpreted the world; the point however, is to change it." - Karl Marx

दोहे - मधुर बिहारी गोस्वामी

चहूँ ओर भूखे नयन, चाहें कुछ भी दान।
सूखी बासी रोटियाँ, लगतीं रस की खान।।

भूखीं आँखें देखतीं, रोटी के कुछ कौर।
एक बार फिर ले गया, कागा अपने ठौर ।।

लुटती पिटती द्रौपदी, आती सबके बीच ।
अंधे राजा से सभी, रहते नज़रें खींच।।

पेट धँसा, मुख पीतिमा, आँखें थीं लाचार।
कल फिर एक गरीब का, टूटा जीवन तार।।

यह कैसा युग आ गया, कदम कदम पर रोग।
डरे - डरे रस्ते दिखें, मरे-मरे सब लोग।।

जहाँ चलें दिखती वहाँ, पगलायी सी भीड़।
आओ बैठें दूर अब , अलग बना कर नीड़।।


डा. मधुर बिहारी गोस्वामी

तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये - सालिम शुजा अंसारी

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तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये
लौट आया हूँ मैं, दरिया से नई प्यास लिये

वक़्त ने नौच ली चेहरे से तमाज़त लेकिन
मैं भटकता हूँ अभी तक वही बू बास लिये

ये अगर सर भी उतारें, तो क़बाहत क्या है
लोग आये हैं , मिरे दर पे बड़ी आस लिये

मुन्तख़िब होगी बयाज़ों की ज़ख़ामत अब के
और मैं हूँ यहाँ इक पुर्ज़ा ए क़िरतास लिये

आज़माइश है शहीदान ए वफ़ा की "सालिम"
मैं तह ए ख़ाक हूँ गन्जीना ए इनफ़ास लिये
~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•
📚{लुग़त}📚
तिश्ना कामी=प्यास, तमाज़त=चमक, क़बाहत= दिक्क़त, मुनतख़िब= चुना जाना, बयाज़= वो डायरी जिस पर शेर नोट होते हैं, ज़ख़ामत= मोटाई, पुर्ज़ा ए क़िरतास= काग़ज़ का टुकड़ा, गंजीना= ख़ज़ाना, इनफ़ास= साँसें

हो रहा जो देखकर विस्मित हुए - अशोक नीरद


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हो रहा जो देखकर विस्मित हुए
जो अवांछित थे वो ही चयनित हुए

बुद्धि पथदर्शक हुई तो यह हुआ
मन की काशी से बहुत वंचित हुए

रंगमंचों का है जीवन सिलसिला
कैसे-कैसे नाट्य हैं मंचित हुए

टिप्पणी उपलब्धियों पर व्यर्थ है
कोष में सुख के कलह संचित हुए

राम जाने अब कहाँ हैं ऐसे लोग
जो समय की मार से प्रेरित हुए

सर छिपाए आचरण जाकर कहाँ
संत जब लंपट यहाँ साबित हुए

हर तरफ़ "नीरद" विरोधाभास है
यश जिन्हें मिलना था अपमानित हुए

:- अशोक नीरद 

अंतिम आलिंगन के आगोश में प्रवेश - गणेश कनाटे


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अंतिम आलिंगन के आगोश में प्रवेश
मेरे प्राणतत्त्व की थकान
अब थक चुकी है, पूर्णतः

मुश्किल है अब
पलकों को उलटकर देखना
सपनों की आंखों में
जो बेहद डरी डरी है हकीकत देखकर

मुश्किल है अब
कानों में प्राण रखना और सुनना
वो आदिम चीखें, चीत्कार
जो उपस्थित है अब भी हवाओं में

मुश्किल है अब
देखना प्राणवान उंगलियों को
जिनसे झरते हैं रंग सतरंगी
और बनाते हैं एक चित्र -
आदम और हव्वा की वेदना का

मुश्किल है अब
साक्षीभाव से देखना
अपने ही शुक्राणुओं को
जीवन का बोझ ढोते हुए...
बड़ा ही मुश्किल है....

मैं और मेरा प्राणतत्त्व अब खड़े हैं थकान के इस अंतिम छोर पर
तुम भी तो थक चुकी हो इस सफर में और खड़ी हो यहां मेरे पास

चल, अब हम छोड़ देते है सारी फिक्र
- फिक्र इस दुनिया के वीभत्स होने की
- फिक्र इस दुनिया के विषम होने की
- फिक्र ये दुनिया बदलेगी या नहीं इसकी

चल ओढ़ लेते हैं एक रजाई
और करते हैं प्रवेश
हमारे अंतिम आलिंगन के आगोश में!


गणेश कनाटे

23 जून 2017

मराठी गझले - शिल्पा देशपांडे

शहर असे स्फोटक बनलेले- दाद नको फिर्याद नको
म्हणे कालच्या पुतळ्यांनाही आता गांधीवाद नको

काळोखाच्या पलित्याने उजळून टाकुया गाभारा
अंतर्यामी मज मिणमिणत्या सूर्याची अवलाद  नको..

रस्त्यावरच्या एखाद्या नागड्या मुलाला घास भरव
विवंचनेच्या शेरापुरती सुखवस्तु मज दाद नको ...

थेट भेटुया बागेमध्ये...  लाड करुन घे हवे तसे
वॉट्स अपमधुनी तेच इमोजी नावाचे वस्ताद नको

फक्त स्वत:वर दृढनिष्ठा असली की होते साध्य कला
ओ पी नय्यर कधी म्हणाले - लता हवी शमशाद नको !

वादळ अनुभवण्यासाठी मी स्वत:समोरच नग्न उभी
दर्यावर्दी होण्यासाठी लाटेशी संवाद नको ?


गझल-2

कसा भूकंप होता, शोधुया का....
ढिगातुन खेळणीही उकरुया का ?

तुझ्या मूर्तीत ओलावा नसावा
मुलामा सोलवटुनी पाहुया का....

कडी वाजून आली जाग तर उठ
तसा छोटा अलार्मच लावुया का....

घड्याळाची सुई जागीच हलते
चला मृत्यूस चावी देउया का ...

तसेही पाॅपकाॅर्नच खात बसलो
तिकीट फाडुन घरी चल परतुया का...

कुणी कुंडीतला कचरा उधळला
मनाच्या कस्पटांना वेचुया का..

जुनी... पण  जिंदगीची जीन्स आहे
नव्या शर्टाबरोबर घालुया का ...

लयाला चालली चवचाल दुनिया
सुमेरीयन नव्याने होवुया का ...

तिचे पोर्ट्रेट की ती न्यूड दिसते
स्वत:ची सभ्यता पडताळुया का


गझल- 3

जिथे आकाश आहे त्या तिथे होते सरोवर
अशी मी कोरडी नव्हते तुझी होण्या अगोदर....

जखम प्रत्येक हिरवीगार आहे पालवीगत
चढू नाही दिले वारूळ मीही सांत्वनावर...

जिथे भिडली नजर फूलपाखरू जन्मास येई
तुझ्या स्पर्शात आला रोकडा व्यवहार नंतर...

नभाला टांगलेल्या पाळण्यातच झोपते जग
जरी आकाशगंगा वर नभाच्याही नभावर...

नको माघार ! दुनिये वासना मोकाट कर तू..
तुझी आहे तशीही भिस्त कोठे संयमावर ?


गझल-4

अंधाराच्या फटीतुनी पणती भगभगते
काया थकलेल्या आईची तशीच दिसते

वारा नसतो तरी उगाचच पडदा हलतो....
वारा असतो तेव्हा खिडकी कुठे खडकते?

थकल्यावर तो गादीला हमखास बिलगतो
भिंतीवरल्या छायांशी ती सलगी करते...

हिरव्या पानांचे जग फांद्यांपुरते आहे..
वारा शिरता पाचोळ्यांचे विमान बनते!

अर्ध्यामुर्ध्या जन्मानेही बरे शिकवले
उरलेल्यातुन मिळेल का काही ते बघते!



गझल- 5

डोहाचे हिरवे पाणी निर्धोक समजणे योग्य नव्हे ...
माझ्यामध्ये माझे हे बिनधास्त उतरणे योग्य नव्हे...

पडशिल मरशिल अपघाताने इच्छेला सांगतो किती...
जसे लटकती ट्रेनमधे , माझ्यात लटकणे योग्य नव्हे

मंदिरातल्या मूर्तीहुनही जरी लाघवी रुप तिचे...
तिच्या चेह-यावर नजरेची फुले उधळणे योग्य नव्हे

फुलासारखे उचलुन घे अन् तिला स्पर्शु दे ऊर तुझा
नुसत्या शब्दांच्या चुपणीवर गझल पोसणे योग्य नव्हे

गुन्हे नको तर - मुलीस नाही  मुलास ठणकावून पहा-
सातच्यापुढे गल्लीबोऴी तुझे भटकणे योग्य नव्हे

थकलेले आयुष्य म्हणाले मिसरुड फुटल्या जगण्याला
गिटार खांद्याला घेउन, शू-लेस बांधणे योग्य नव्हे....



गझल-6

कधी बहर ल्यावे, कधी घमघमावे
फुलासारखे सोहळे मज मिळावे

कधी गुप्त व्हावे.. कधी  सभ्य व्हावे...
मनातील चोरास सारेच ठावे ....

प्रसंगी भरारी कशी उंच घ्यावी ?
कसे ठेंगणे या नभाला करावे ?

जुन्या खोकला की दिवस आजचा हा
उबळ येत नाही तरी खाकरावे

तिने चार वेळा फिरवलाय फडका
तिला वाटते घर घरागत दिसावे

कुणीही दिसेना तरी किलबिले ते
रिकामेपणाने असे घर भरावे


गझल 7

शमा वगैरे बागेमध्ये लाव अता
मुशाय-यांतुन होऊ देत उठाव अता

श्वासाचे झुरके संपत आले बहुधा
नवे कुणी आयुष्या तू शिलगाव अता

भिंती तोडुन प्रशस्त घर झाले आहे
आत घरातच धाव धाव भरधाव अता

रंग काढला डागडुजी केली आहे
पहिल्यापेक्षा वधारेल बघ भाव अता

देव होवुनी स्वप्नामध्ये अभय दिले
काळ होवुनी मार निरंतर ताव अता

पोटापाण्यासाठी आहे शहर इथे
कवितेपुरता उरला आहे गाव अता


गझल -8

जर कुणाची चाकरी करणार नाही
तो जिथे आहे तिथे दिसणार नाही ...

नग्नता निर्ढावली आहे जगी या
पारदर्शकता इथे रुचणार नाही

दार,खिडक्या, उंबरे ठेवू हवे तर
भिंत दोघांच्यामधे असणार नाही

उतर वस्त्रे बेशरम हो आज दुनिये
झाकली लज्जा इथे खपणार नाही...

संशयाची मारली पाचर अशी की
मी स्वत:शीही कधी जुळणार नाही ...



गझल- 9

रिचवली आहे त्सुनामी वेदनांची..
रात्र की सारा शगुफ्ता तू व्यथांची ...

धूळ का तू फेकसी डोळ्यात देवा ?
आंधळी श्रद्धा तशीही माणसांची

चिवचिवाया एक चिमणीही न येते
व्यर्थ खिडकी पंचतारांकीत त्यांची...

संयमाचा उंबरा लावून घेऊ
काल वेटोळी मिळाली वासनांची

एक गल्ली रात्रभर उजळून निघते
थाटती जेथे दुकाने चांदण्यांची

प्रार्थनांचा वाढला आहे ढिगारा
स्वच्छता झाली कुठे आहे व्यथांची ...


गझल -10

राखेमध्ये दडलेला अंगार असावा
सणकी दिसणारा कोणी फनकार असावा...

डोळ्यांना दिसते ते निव्वळ सत्य नसावे
आभाळाला स्वत:चा आकार असावा

रानोमाळी एक उदासी भरली आहे
माझी लागण झालेला आजार असावा....

ज्योत जळाली पुरती पण 'तो' उजळत नाही
पणती खाली लपलेला अंधार असावा..

काठावरती बसल्या बसल्या झोपी गेला
घरच्यापेक्षा वारा तेथे गार असावा

रोज खरडतो पब्लिश करतो इतक्या गजला
ऑफिसमध्ये बसण्याचाच पगार असावा

ज्याला पाहुन नतमस्तक होते ही दुनिया
तो माझ्या अंतस्थाचा विस्तार असावा


:- शिल्पा देशपांडे