12 दिसंबर 2017

तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये - सालिम शुजा अंसारी

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तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये
लौट आया हूँ मैं, दरिया से नई प्यास लिये

वक़्त ने नौच ली चेहरे से तमाज़त लेकिन
मैं भटकता हूँ अभी तक वही बू बास लिये

ये अगर सर भी उतारें, तो क़बाहत क्या है
लोग आये हैं , मिरे दर पे बड़ी आस लिये

मुन्तख़िब होगी बयाज़ों की ज़ख़ामत अब के
और मैं हूँ यहाँ इक पुर्ज़ा ए क़िरतास लिये

आज़माइश है शहीदान ए वफ़ा की "सालिम"
मैं तह ए ख़ाक हूँ गन्जीना ए इनफ़ास लिये
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📚{लुग़त}📚
तिश्ना कामी=प्यास, तमाज़त=चमक, क़बाहत= दिक्क़त, मुनतख़िब= चुना जाना, बयाज़= वो डायरी जिस पर शेर नोट होते हैं, ज़ख़ामत= मोटाई, पुर्ज़ा ए क़िरतास= काग़ज़ का टुकड़ा, गंजीना= ख़ज़ाना, इनफ़ास= साँसें

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