30 जनवरी 2018

मुहम्मद अल्वी... शब्दों का चित्रकार.. - असलम राशिद

Image result for मोहम्मद अलवीमेरे बड़े भाई मरहूम आरिफ़ "मीर" के मुँह से पहली बार ये लफ़्ज़ सुने तो अजीब लगा था, "शब्दों का चित्रकार" कैसे हो सकता है कोई, चूँकि बड़े भाई बहुत कम उम्र में भी बड़े अदबनवाज़ और पाये के शायर थे तो ऐसे ही तो कोई बात न कह सकते थे, बड़ी हिम्मत करके पूछा कि कौन हैं ये, तब उन्होंने मुहम्मद अल्वी साहब के ढेर सारे शेर सुनाये.. और अल्वी साहब की निदा फ़ाज़ली साहब की संपादित एक किताब दी, एक ही बैठक में वो छोटी सी पेपरबैक पढ़ डाली, फिर उसे कितनी बार पढ़ा ये भी याद नहीं. 

अल्वी साहब को पढ़ कर तय कर लिया कि इनको और ढूंढ़ कर पढ़ा जायेगा, उस वक़्त इंटरनेट हमारे यहां नया नया था और एक वेबसाइट थी उरडुपोएटरी.कॉम, जो आज के ज़माने की रेख़्ता की तरह ही शायरी का बेहतरीन इन्तेख़ाब रखती थी, उस पर मुहम्मद अल्वी साहब मिल गए, जितनी ग़ज़लें थीं सब पढ़ डालीं, पढ़ क्या डालीं याद कर लीं.. और मरहूम जौन एलिया के साथ साथ (जॉन एलिया साहब को हम 1994 से पढ़ सुन रहे हैं जब मरहूम उस्ताद कृष्णबिहारी नूर साहब ने अपने शागिर्द और मेरे बड़े भाई दीपक जैन 'दीप' भाई को दुबई, कराची, लाहौर के मुशायरों की वीडियो कैसेट्स दीं थीं कहा था कि इन लोगों को सुनो, और मेरे बड़े भाई आसिफ़ सर, दीपक भाई और मैंने बेशुमार बार उन कैसेट्स को सुना। आज जब इस दौर के नौजवान जॉन एलिया को अपने फ्ब स्टेटस पर जगह दे रहे हैं, हम तब उस दौर में जॉन एलिया को दिल मे जगह दे चुके थे और जब जॉन आम हुए तो बेहद ख़ुशी हुई कि हमने जौन को तब जिया जब लोगों ने उनका नाम भी न सुना था, ख़ैर...) मुहम्मद अल्वी साहब को लोगों तक पहुंचा कर अपने अलहदा इन्तेख़ाब की दाद हासिल की.. हालांकि उस्ताद लोग कहते थे, की जो पढ़ रहे हो वो दूसरों को मालूम नहीं होना चाहिए, मगर ख़ुद को रोका न जा सका इतने कमाल के शेर दूसरों तक पहुंचाने से... 

मैं ये एतराफ़ करता हूँ कि आज मेरी जितनी भी जैसी भी शायरी है, जो नयापन मैं लाने की कोशिश करता हूँ उसमें बहुत बड़ा हाथ अल्वी साहब की शायरी का है..मैंने अल्वी साहब को उस दिये की तरह दिल मे हमेशा रोशन रखा है जिसके जरिये मैं अपने ज़हनी दियों को रोशन कर रहा था, और आज भी कर रहा हूँ। उनकी पहली किताब "ख़ाली मकान" से "आख़री दिन की तलाश" "तीसरी किताब" और "चौथा आसमान" तक उनकी शायरी ने मेरे अंदर के शायर को नई ज़िन्दगी बख़्शी, जो इस्तिआरे अल्वी साहब के यहाँ इस्तेमाल हुए उनको पढ़कर हैरत होती थी कि ये मफ़हूम इतनी आसानी से शेर में कैसे ढाला जा सकता है, मगर अल्वी साहब तो शब्दों के चित्रकार थे, बेहद आसानी से अजीबोगरीब मफ़हूम को शेर में ढाल देते थे..

घर में क्या आया कि मुझको
दीवारों ने घेर लिया है

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किसी भी होंठ पर जा बैठती है
'हँसी' सच पूछिये तो फ़ालतू है

हमें क्या घास डालेगी भला वह
'ख़ुशी' ऊँचे घराने की बहू है

पड़ी रहती है घर मे सर झुकाए
ये 'नेकी' तो बिचारी पालतू है

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घर वाले सब झूठे हैं
सच्चा घर मे तोता है

पक्की फ़स्ल है चारों ओर
और बिजूका भूखा है

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'अल्वी' ख़्वाहिश भी थी बाँझ
जज़्बा भी ना-मर्द मिला

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अरे ये दिल और इतना ख़ाली
कोई मुसीबत ही पाल रखिए

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गुजरात के मशहूर सूफ़ी वजीहुद्दीन गुजराती के सज्जादानशीनों में शामिल अल्वी साहब तबियत से भी सूफ़ी थे.. अपने अंदर सारी कायनात को समेटे, सबके दुःख को अपना दुःख कहते हुए अल्फ़ाज़ की शक्ल में ढालते रहे.. बेहद मनमौजी तबियत के अल्वी साहब शायरी को ख़ुदाई इमदाद कहते थे, और जब लगता कि इमदाद नहीं हो रही तो ख़ामोश हो जाते और ख़ुद को कहीं और झोंक देते.. ऐसा उनके साथ कई बार हुआ.. बीच मे 7 साल तक उन्होंने एक भी शेर नहीं कहा.. और जब कहे तो वो ही कहे जो तारीख़ बन गए...

मैं ख़ुद को मरते हुए देख कर बहुत ख़ुश हूँ
और डर भी है कि मेरी आँख खुल न जाए कहीं

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काम की ख़ातिर दिन भर दौड़ लगाते हैं
बेकारी में आख़िर कुछ तो काम मिला

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कुछ नहीं था एल्बम में
फिर भी कुछ कलर चमके

सतहे आब पर अल्वी
मछलियों के पर चमके

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पड़ा था मैं इक पेड़ की छाँव में
लगी आँख तो आसमानों में था

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इन्हीं लोगों से मिल कर ख़ुश हुआ था
इन्हीं लोगों से डरता फिर रहा हूँ  

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अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
लिफ़ाफ़े में कुछ रौशनी भेज दे

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आग अपने ही लगा सकते हैं
ग़ैर तो सिर्फ़ हवा देते हैं

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उन दिनों घर से अजब रिश्ता था
सारे दरवाज़े गले लगते थे

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अल्वी साहब ने नज़्मों को भी बहुत आला मुक़ाम अता किया..
आपकी नज़्में नज़ीर हैं आने वाली नस्लों के लिए...

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सुनते हो इक बार वहाँ फिर हो आओ
एक बार फिर उस की चौखट पर जाओ
दरवाज़े पर धीरे धीरे दस्तक दो
जब वो सामने आए तो प्रणाम करो
''मैं कुछ भूल गया हूँ शायद'' उस से कहो
क्या भूला हूँ याद नहीं आता कह दो
उस से पूछो ''क्या तुम बतला सकती हो''
वो हँस दे तो कह दो जो कहना चाहो
और ख़फ़ा हो जाए तो ....आगे मत सोचो

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क़ब्र में उतरते ही
मैं आराम से दराज़ हो गया
और सोचा
यहाँ मुझे
कोई ख़लल नहीं पहुँचाएगा
ये दो-गज़ ज़मीन
मेरी
और सिर्फ़ मेरी मिलकियत है
और मैं मज़े से
मिट्टी में घुलता मिलता रहा
वक़्त का एहसास
यहाँ आ कर ख़त्म हो गया
मैं मुतमइन था
लेकिन बहुत जल्द
ये इत्मिनान भी मुझ से छीन लिया गया
हुआ यूँ
कि अभी मैं
पूरी तरह मिट्टी भी न हुआ था
कि एक और शख़्स
मेरी क़ब्र में घुस आया
और अब
मेरी क़ब्र पर
किसी और का
कतबा नस्ब है!!

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रातों को सोने से पहले
नई पुरानी यादों को
उलट-पलट करते रहना
वर्ना काली पड़ जाएँगी
इधर उधर से सड़ जाएँगी

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एक ज़ंग-आलूदा
तोप के दहाने में
नन्ही-मुन्नी चिड़िया ने
घोंसला बनाया है

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अल्वी साहब को अदब ने वो मुक़ाम नहीं बख़्शा जिसके वो मुस्तहिक़ थे, मगर अदब की तारीख़ मुहम्मद अल्वी साहब के ज़िक्र के बिना मुकम्मल नहीं होगी। अल्लाह यक़ीनन अल्वी साहब को जन्नत में आला मुक़ाम अता करेगा..


अलविदा अल्वी साहब..

19 जनवरी 2018

देशभक्ति की कविताएँ / मुक्तक

मेरा हिन्दोसताँ सब से अलग सब से निराला है।
ये ख़ुशबूओं का गहवर है बहारों का दुशाला है।
अँधेरो तुम मेरे हिन्दोसताँ का क्या बिगाड़ोगे।
मेरा हिन्दोसताँ तो ख़ुद उजालों का उजाला है॥

ये ऋषियों का तपोवन है फ़क़ीरों की विरासत है।
ये श्रद्धाओं का संगम है दुआओं की इबारत है।
भले ही हर तरफ़ नफ़रत का कारोबार है लेकिन। 
ये इक ऐसा क़बीला है जिसे सब से मुहब्बत है॥

बुजुर्गों से वसीयत में मिले संस्कार उगलती है।
समन्वय से सुशोभित सभ्यता का सार उगलती है।
ज़माने भर के सारे तोपखाने कुछ नहीं प्यारे।
हमारे पास ऐसी तोप है जो प्यार उगलती है॥

हमारा दिल दुखा कर जाने क्या मिलता है लोगों को।
हमें यों आज़मा कर जाने क्या मिलता है लोगों को।
ये ऐसा प्रश्न है जिस का कोई उत्तर नहीं मिलता।
तिरंगे को जला कर जाने क्या मिलता है लोगों को॥

हम आपस में लड़ेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी।
अगर झगड़े बढेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी।
अगर अब भी नहीं समझे तो फिर किस रोज़ समझेंगे।
सियासत में पड़ेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी॥

जो मंजिल तक पहुँचते हैं वे रस्ते कैसे देखेंगे।
जो घर को घर बनाते हैं वे रिश्ते कैसे देखेंगे।
अगर झूठी शहादत में फ़ना होती रही नस्लें।
तो फिर हम लोग पोती और पोते कैसे देखेंगे॥

:- नवीन सी. चतुर्वेदी