नमस्कार,
विभिन्न भाषाओं की स्वीकार्य, सम्भाव्य एवं रुचिकर विविध विधाओं के प्रकाशन के लिए समर्पित वेबपोर्टल साहित्यम के सद्याद्यतन में निम्नलिखित कृतियों का समावेश किया गया है.
नमस्कार,
विभिन्न भाषाओं की स्वीकार्य, सम्भाव्य एवं रुचिकर विविध विधाओं के प्रकाशन के लिए समर्पित वेबपोर्टल साहित्यम के सद्याद्यतन में निम्नलिखित कृतियों का समावेश किया गया है.
बस... सिलसिला शुरू हो जाता था लाइक देखने का और कमैंट्स पर थैंक्यू कहने का । कहीं भी हो, उसके कान नोटिफिकेशन की टुन पर लगे रहते थे । खुद से ही कहती थी," "वाऊ,रीमा यू
मैं दुखी हूँ...
मैं बहुत दुखी हूँ...
पर उतनी नहीं ,
जितनी वो माँ है
जिसकी बेटी के अधमरे शरीर को
गुंडे घर में फेंक गये चार दिन बाद,
चैम्बर में बैठा अपने पीछे की अभी तक खाली पडी अलमारी को देख रहा हूँ ,आलमारी में शीशे लगवा लिए ,बस इंतज़ार है तो कुछ दो चार पुरुस्कारों का जो भूले भटके से कोई मेरी झोली में भी डाल दे!
देखो, पुरस्कार की सब जगह पूछ है। बिना पुरुस्कृत लेखक समाज में तिरस्कृत सा डोलता है। पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशक भी उन्ही लेखकों
छू नहीं पाये कभी गेसू तुम्हारे
दस्तरस थी फूल की बस डायरी
तक
बात होठों तक नहीं पहुँची
हमारे
इश्क सिमटा रह गया बस शायरी तक
टैक्स को कर कहा गया है। यही करदाता के करों से किसी कर्ता के हाथों में आकर उसे कुछ करने की प्रेरणा और शक्ति देता है। कर सभी देते हैं, वो भी जिनकी कमर कर के बोझ से टूटी हुई होती है, मगर कर्ता गिने चुने ही होते हैं जिन्हें करों की राशि से संपन्न होने वाले काजों से अच्छा कट प्राप्त होता है। कर चाहे कड़ाई से वसूला जाता हो, उससे
हम भारतीय लोग दिल से बड़े ही प्यारे होते हैं और बड़े ही एडजस्टिंग टाइप, हम हर त्यौहार हर माहौल में खुद को सेट कर लेते हैं | जैसे वेलेंटाइन डे और करवा चौथ पर हम सोहनी महिवाल और शिरी फरहाद को भी कोम्प्लेक्स दे सकते हैं | मदर्स डे और फादर्स डे पर हर तरफ श्रवण कुमार की खेती लहलहाने लगती है | ठीक उसी तरह 26
जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया
वहाँ हमारी ज़बाँ ने सुख़न
उतार दिया
न जाने अब के ये कैसी बहार
आई है
गुलों के जिस्मों से जिस ने चमन उतार दिया
"बुढ़ऊ कमरा छेके बैइठे हैं "
बेटे -बहुरिया के ये
संस्कारी
आत्म -सम्वाद दिन में पचास
बार
सुनने और पोते -पोतियों को
"मेरा कमरा " के
नाम पर
लड़ने-झगड़ने के बाल सुलभ
आशावादी, स्वप्निल वार्तालाप को
सुन दद्दा की ऐंठी गर्दन
तकिये पर थोड़ी और सख़्त
हो जाती है ...
संवेदनाओं के पोरों से
अंधेरे को पीछे धकेल
आँखें मलती किरणों को
अपने अन्तर्तम में सहेज
सुनहरा दिन
आसमान की साँकल खोल
धीरे-धीरे धरा पर
उतरता है, तो