सितारा एक भी बाकी बचा क्या - मयङ्क अवस्थी

सितारा एक भी बाकी बचा क्या
निगोड़ी धूप खा जाती है क्या-क्या

फ़लक कङ्गाल है अब, पूछ लीजै
सहर ने मुँह दिखाई में लिया क्या
फ़लक – आसमान, सहर – सुबह

सब इक बहरे-फ़ना के बुलबुले हैं
किसी की इब्तिदा क्या इन्तिहा क्या
बहरे-फ़ना – नश्वर समुद्र, इब्तिदा – आरम्भ, इन्तिहा – अन्त

जज़ीरे सर उठा कर हँस रहे हैं
ज़रा सोचो समन्दर कर सका क्या
जज़ीरा – टापू

ख़िरद इक नूर में ज़म हो रही है
झरोखा आगही का खुल गया क्या
ख़िरद – बुद्धि, नूर – उजाला / ज्ञान, ज़म होना – मिल जाना, आगही – ज्ञान / अगमचेती

तअल्लुक आन पहुँचा खामुशी तक
यहाँ से बन्द है हर रास्ता क्या”

बहुत शर्माओगे यह जान कर तुम
तुम्हारे साथ ख्वाबों में किया क्या

उसे ख़ुदकुश नहीं मज़बूर कहिये
बदल देता वो दिल का फ़ैसला क्या

बरहना था मैं इक शीशे के घर में
मेरा क़िरदार कोई खोलता क्या
बरहना – निर्वस्त्र के सन्दर्भ में

अजल का खौफ़ तारी है अज़ल से
किसी ने एक लम्हा भी जिया क्या
अजल – मौत, अज़ल – आदिकाल

मक़ीं हो कर मुहाज़िर बन रहे हो
मियाँ, यकलख़्त भेजा फिर गया क्या
मक़ीं – मकान-मालिक, मुहाज़िर – शरणार्थी, यकलख़्त – अचानक

ख़ुदा भी देखता है, ध्यान रखना
ख़ुदा के नाम पर तुमने किया क्या

उठा कर सर बहुत अब बोलता हूँ
मेरा क़िरदार बौना हो गया क्या

:- मयङ्क अवस्थी
8765213905

बहरे हजज मुसद्दस महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122

लघुकथा – प्रसाद - प्राण शर्मा

पहले की तरह इस बार भी धनराज जी ने अपने बेटे का जन्म दिवस राम मन्दिर में खूब धूमधाम से मनाया । वे मन्दिर के प्रेसिडेण्ट हैं। उन के नाम से लोग खिंचे चले आये।

केक काटा गया। खूब तालियाँ बजीं। हैपी बर्थ डे से हाल  गूँज उठा। उपहारों से  स्टेज भर गयी। इतने उपहार भगवान् राम को नहीं मिलते हैं जितने उपहार बेटे को मिले।  सभी अतिथि खूब नाचे - झूमे। शायद ही कोई मधुर गीत गाने से पीछे रहा था।

आरती के बाद प्रसाद के रूप में काजू , अखरोट , किशमिश और मिशरी का मिला - जुला डिब्बा अतिथियों को दिया जाने लगा। हर डिब्बा पाञ्च सौ ग्राम का था। प्रसाद देने  वाले धनराज खुद ही थे।

कुछ अतिथियों के बाद नगर के मुख्य न्यायधीश उत्तम कुमार जी की प्रसाद लेने की बारी आयी। उन्हें देख कर धनराज जी खिल उठे। उन्होंने झट मुख्य न्यायधीश जी को दो डिब्बे थमा दिए।

अपने हाथों में दो डिब्बे देख कर वे हैरान हो गये। पूछ बैठे - " धनराज जी , औरों को तो आप प्रसाद का  एक ही डिब्बा दे रहे हैं , मुझे दो डिब्बे क्यों ? "

" हज़ूर ,आप नगर के विशेष व्यक्ति हैं। " धनराज जी ने  उनके कान में कहा।

मुख्यधीश जी उन्हें एक तरफ ले गये। बड़ी नम्रता से बोले - " देखिये , धनराज जी, ये राम का मन्दिर है। उनके  मन्दिर में सभी अतिथि विशेष हैं। "

સંજુ વાલાની ગુજરાતી ગઝલો

નથી પામવાની રહી રઢ યથાવત

અપેક્ષા થતી જાય છે દ્રઢ યથાવત

नथी पामवानी रही रढ यथावत

अपेक्षा थती जाय छे दृढ़ यथावत

पहले जैसी  पाने’ की जिज्ञासा नहीं रही

अपेक्षा यथावत दृढ़ होती जा रही है

 

હશે અંત ઊંચાઈનો ક્યાંક ચોક્કસ

કળણ સાથ રાખી ઉપર ચઢ યથાવત

हशे अन्त ऊँचाई नो क्याँक चोक्कस

कणण साथ राखी उपर चढ़ यथावत

निश्चित ही कहीं न कहीं ऊँचाई का अन्त होगा

पहचानने की कला और हौसले के साथ यथावत ऊपर चढ़ता रह

 

પવનની ઉદાસી  દરિયો બની ગઈ ,

પડ્યો છે સમેટાઈ ને સઢ યથાવત

पवन नी उदासी ज दरियो बनी गई

पडयौ छे समेटाई ने सढ़ यथावत

पवन की जो उदासी थी वह खुद इक समंदर  बन गयी

उसकी वजह से यथावत सिमटा हुआ सढ़ भी  पड़ा हुआ है

 

જરા આવ-જા આથમી તો થયું શું ?

જુઓ ઝળહળે તેજ-નો ગઢ યથાવત

जरा आव-जा आथमी तो थयूँ शूं

जुओ झणहणे तेज – नो गढ़ यथावत

आना-जाना थम गया तो क्या हुआ ?

वह तेज का पुञ्ज तो अबभी यथावत है !

 

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વાત વચ્ચે વાત બીજી શીદ કરવી ?

પ્રેમમાં પંચાત બીજી શીદ કરવી ?

 वात वच्चे वात बीजी शीद करवी

प्रेम माँ पञ्चात बीजी शीद करवी

एक बात के बीच में दूसरी बात क्यूँ करना

प्रेम में कोई अन्य पञ्चायत क्यूँ करना

 

કરવી હોપણ રાત બીજી શીદ કરવી ?

એક મૂકી જાત બીજી શીદ કરવી ?

करवी हो पण रात बीजी शीद करवी

एक मूकी जात बीजी शीद करवी

करनी होलेकिन दूसरी रात क्या करना

एक ज़ात छोड़ कर दूसरी ज़ात क्या करना

   

સૌ અરીસા જેમ સ્વીકાર્યું યથાતથ

તથ્યની ઓકત બીજી શીદ કરવી ?

सौ अरीसा जेम स्वीकार्यू यथायथ

तथ्य नी औकात बीजी शीद करवी

दर्पण की मानी सब कुछ जैसे थे, वैसे ही  हैं

तथ्य को दूसरा अर्थ दे कर क्या करना है ?

    

છે પડી તો જાળવી લઈએ જતનથી

માહ્યલે મન ભાત બીજી શીદ કરવી ?

छे पडी तो जाळवी लइए जतन थी

माह्यले मन भात बीजी शीद करवी

जो छाप मन पर लगी है उसको सँभाल ले

यह जी है ! उस पर दूजी छाप किस लिए ?

 

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વંશ જો વારસાઈ જાણી જો !

આપણી શું સગાઈ જાણી જો !

वन्श जो वारसाई जाणी जो

आपणी शूं सगाई जाणी जो

हम सब आदम की नस्ल है

हमारे बीच वही रिश्ता है

   

એક એની ઇકાઈ જાણી જો

થઈ ફરે છે ફટાઈ જાણી જો !

एक एनी इकाई जाणी जो

थई फरे छे फटाई जाणी जो

उनकी इखाथ्थ सत्ता तो देखो

कोई बे-लगाम लड़की हो जाने !!

 

   

તપ,તીરથ ને અઠાઈ જાણી જો

પ્રીત પોતે પીરાઈ જાણી જો !

तप-तिरथ एनबीई अठाई जाणी जो

प्रीत पोते पिराई जाणी जो

तपतीर्थ और अठाईतप देख ले

उन सब में प्रीत ही सब से ऊँची है !!

   

શાહીટીપે સરસ્વતી રાજે-

કેવી છે  કમાઈ જાણી જો !

शाहीटीपे सरस्वती राजे

केवी छे आ कमाई जाणी जो

शाही की बूँद ही  सरस्वती है

 

और वही तो हमारी कमाईहै !!

 

:- सञ्जू वाला

9825552781

 

तज दे ज़मीन, पंख हटा, बादबान छोड़ - तुफ़ैल चतुर्वेदी

तज दे ज़मीन, पङ्ख हटा, बादबान छोड़
गर तू बग़ावती है, ज़मीं-आसमान छोड़

ये क्या कि पाँव-पाँव सफ़र मोतियों के सम्त
हिम्मत के साथ बिफरे समन्दर में जान छोड़

ख़ुशबू के सिलसिले दे या आहट की राह बख़्श
तू चाहता है तुझसे मिलें, तो निशान छोड़

बुझते ही प्यास तुझको भुला देंगे अहले-दश्त
थोड़ी-सी तश्नगी का सफ़र दरमियान छोड़
अहले-दश्त – जङ्गल के लोग

मैं चाहता हूँ अपना सफ़र अपनी खोज-बीन
इस बार मेरे सर पे खुला आसमान छोड़

क्यों रोकता है मुझको इशारों से बार-बार
सच सुनना चाहता है तो मेरी ज़बान छोड़

मुझको पता चले तो यहाँ कौन है मेरा
आ सामने तो मेरी तरफ, खुल के बान छोड़

:- तुफ़ैल चतुर्वेदी


बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

 221 2121 1221 212

वर्ष 1 अङ्क 4 मई 2014

सम्पादकीय


प्रणाम। अप्रेल का महीना, चिलचिलाती धूप और चुनावों की सरगर्मियाँ। अप्रेल महीने का एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब दिल-दिमाग़ को ठण्डक महसूस हुई हो। खुला हुआ रहस्य यह है कि आज हिन्दुस्तान की हालत "ग़रीब की जोरू सारे गाँव की भौजाई" जैसी है। घर के अन्दर रोज़-रोज़ की पञ्चायतें हैं, पास-पड़ौस वाले जब-तब आँखें तरेरते रहते हैं, मर्यादा जैसे शब्द को तो भूल ही गये हों जैसे। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी जब-तब मिट्टी पलीद होती रहती है। ऐसे में एक दमदार नेतृत्व की सख़्त ज़ुरूरत है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मोदी से बेहतर विकल्प दिखाई पड़ नहीं रहा, अगर कोई और विकल्प होता तो हम अवश्य ही उस किरदार के बारे में बात करते। लेकिन हमें हरगिज़ इस मुगालते में नहीं रहना चाहिये कि फ़िरङ्गियों के यहाँ गिरवी रखे हुये देश का प्रधानमन्त्री बनना मोदी के लिये कोई बहुत बड़ी ख़ुशी का सबब होगा। बहरहाल, लोकतन्त्र के उज्ज्वल भविष्य की मङ्गल-कामनाएँ। 


हम चाहते हैं कि हमारे नौजवान खूब दिल लगा कर पढ़ें, अच्छे नम्बरों से पास हों और अच्छे काम-धन्धे से लगें। मगर हम करते क्या हैं? [1] खूब दिल लगा कर पढ़ें - चौबीस घण्टे उन के इर्द-गिर्द हम ने इतने सारे ढ़ोल बजवा रखे हैं कि दिल लगा कर तो ल्हेंची [खड्डे] में गया, सामान्य रूप से पढ़ना भी दूभर है। [2] अच्छे नम्बरों से पास हों - इस विपरीत वातावरण में भी कुछ बच्चे अप्रत्याशित परिणाम ले आते हैं। मगर अफ़सोस CET में 99% परसेण्टाइल लाने के बावजूद उन्हें टॉप में पाँचवी रेङ्क वाला कॉलेज मिलता है। हालाँकि उसी कॉलेज में उन के साथ 50 परसेण्टाइल वाले बच्चे भी पढ़ते हुये मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं। क्या सोचते होंगे ये बच्चे - ऐसी स्थिति में? क्या हम उन्हें अराजक नहीं बना रहे? [3] अच्छे काम-धन्धे से लगें - अच्छा काम-धन्धा!!!!!! कौन सा काम-धन्धा अच्छा रह गया है भाई??????????????????? इनडायरेक्टली हम अपने यूथ को निर्यात होने दे रहे हैं। 


क्या आप ने कभी अन्दाज़ा लगाया है कि हमारे नौजवानों की गाढ़ी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा गेजेट्स खाये जा रहे हैं। औसत नौजवान  साल में कम से कम एक बार सेलफोन बदल लेता है। इस बदलाव पर आने वाला खर्च अमूमन 10000 होता है। टेब्स या उस जैसी नयी तकनीक को खरीदने पर भी अमूमन दस हज़ार का ख़र्चा पक्का समझें। इन टोटकों को पाले रखने के लिये चुकाया जाने वाला किराया-भाड़ा भी अमूमन दस हज़ार से कम क्या? इस नये शौक़ के साथ एक पर एक फ्री की तरह आने वाले लुभावने ख़र्चीले ओफ़र्स भी महीने में 2-3 हज़ार यानि साल में 30-40 हज़ार उड़ा ही लेते हैं नौजवानों की पोकेट्स से। कुल मिला कर बहुत ज़ियादा नहीं तो भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50 हज़ार तो होम हो ही जाते होंगे। औसत नौजवान की एक साल की औसत कमाई [जी हाँ कमाई - लोन, चम्पी या उठाईगिरी नहीं]  शायद तीन लाख नहीं है। यदि यह आँकड़े सही हैं तो बन्दा अपनी दो महीने की कमाई उड़ाये जा रहा है। बचायेगा क्या? नहीं बचायेगा तो आने वाले बुरे वक़्त से ख़ुद को कैसे बचायेगा? कभी-कभी लगता है कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस पीढ़ी को खोखला किया जा रहा है। ईश्वर करे कि मेरा यह सोचना ग़लत हो।  

विद्वत्जन! अच्छे साहित्य को अधिकतम लोगों तक पहुँचाने के प्रयास के अन्तर्गत साहित्यम का अगला अङ्क आप के समक्ष है। उम्मीद है यह शैशव-प्रयास आप को पसन्द आयेगा। हिन्दुस्तानी साहित्य के गौरव - पण्डित नरेन्द्र शर्मा जी के गीत, सङ्गीतकार-शायर नौशाद अली, ब्रजभाषा के मूर्धन्य कवि श्री गोविंद कवि, कुछ ही साल पहले के सिद्ध-हस्त रचनाधर्मी गोपाल नेपाली जी, गोपाल प्रसाद व्यास जी के साथ तमाम नये-पुराने रचनाधर्मियों की रचनाएँ इस अङ्क की शोभा बढ़ा रही हैं। इस अङ्क में आप को एक डबल रोल भी मिलेगा। भाई सालिम शुजा अन्सारी जी अब्बा-जान के नाम से भी शायरी करते हैं। अब्बा-जान एक बड़ा ही अनोखा किरदार है। आप को इस किरदार में अपने गली-मुहल्ले के बड़े-बुजुर्गों के दर्शन होंगे। सब से सब की खरी-खरी कहने वाला किरदार। ऐसा किरदार जिस के मुँह से सच सुन कर भी किसी को बुरा न लगे, बल्कि अधरों पर हल्की मुस्कुराहट आ जाये। और भी बहुत कुछ है। पढ़ियेगा, अन्य परिचित साहित्य-रसिकों को भी जोड़िएगा और आप के बहुमूल्य विचारों से अवश्य ही अवगत कराइयेगा। आप की राय बिना सङ्कोच के पोस्ट के नीच के कमेण्ट बॉक्स में ही लिखने की कृपा करें। 

आपका अपना
नवीन सी. चतुर्वेदी

मई 2014

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कहानी

व्यंगय
कविता / नज़्म
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खूनी हस्ताक्षर - गोपाल प्रसाद व्यास
वृक्ष की नियति - तारदत्त निर्विरोध
तीन कविताएँ - आलम खुर्शीद
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सारे सिकन्दर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं - गीत चतुर्वेदी 
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हाइकु
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लघु-कथा
प्रसाद - प्राण शर्मा

छन्द 
अँगुरीन लों पोर झुकें उझकें मनु खञ्जन मीन के जाले परे - गोविन्द कवि
तेरा जलना और है मेरा जलना और - अन्सर क़म्बरी
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3 छप्पय छन्द - कुमार गौरव अजीतेन्दु
हवा चिरचिरावै है ब्योम आग बरसावै - नवीन

गीत-नवगीत
ज्योति कलश छलके - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
गङ्गा बहती हो क्यूँ - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
जय-जयति भारत-भारती - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
हर लिया क्यों शैशव नादान - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
भरे जङ्गल के बीचोंबीच - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
मधु के दिन मेरे गये बीत - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

ग़ज़ल
न मन्दिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता - नौशाद अली
उस का ख़याल आते ही मञ्ज़र बदल गया - रऊफ़ रज़ा
चन्द अशआर - फ़रहत अहसास
तज दे ज़मीन, पङ्ख हटा, बादबान छोड़ - तुफ़ैल चतुर्वेदी
सितारा एक भी बाकी बचा क्या - मयङ्क अवस्थी
चोट पर उस ने फिर लगाई चोट - सालिम शुजा अन्सारी
उदास करते हैं सब रङ्ग इस नगर के मुझे - फ़ौज़ान अहमद
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आञ्चालिक गजलें
दो पञ्जाबी गजलें - शिव कुमार बटालवी
गुजराती गजलें - सञ्जू वाला

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साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को सम्मान
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