व्यक्तित्व - फलक पर नूर का शजरा –"तुफैल चतुर्वेदी"

फलक पर नूर का शजरा –"तुफैल चतुर्वेदी" 
एक स्केच : मयङ्क अवस्थी

देवनागरी लिपि मे ग़ज़ल की लोकप्रियता चार नामो की कृतज्ञ है –पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय –सरदार बलवंत सिंह यानी प्रकाश पण्डित –नरेन्द्र नाथ और जिनके बारे मे हम आगे बात कर्ंगे –यानी जनाब मुहत्तरम तुफैल चतुर्वेदी जिनका पूरा नाम विनय कृष्ण  चतुर्वेदी तख़्ल्लुस "तुफैल" है और यह नाम आज गज़ल के दयार मे प्रेम, प्रशंसा, ,भय ,आतंक और अन्य मानस के संचारी भावों के साथ लिया जाता है जिसमे सबसे ऊपर का भाव आदर का भाव है – एक ऐसा व्यक्ति जिसकी ग़ज़ल कहने और समझने की प्रतिभा निर्विवाद श्रेष्ठतम की श्रेणी मे आती है –जो देवनागरी की सबसे दमदार और सबसे प्रशंसित ग़ज़ल पत्रिका लफ़्ज़ के सर्वेसर्वा हैं और जिनकी आवाज़ अदब के बेशुमार शोर गुल मे भी चुप रह कर सुनी जाती है।

पहले नैनीताल और अब ऊधमसिंह नगर की काशीपुर स्टेट के कुलदीपक "तुफैल साहब"चाँदी का चम्मच मुँह मे ले कर पैदा हुये और महज 18 बरस की उम्र मे फकीरी ले कर आध्यात्मिक यात्रा पर  निकल गये –लेकिन ग़ज़ल विधा को अपना सबसे बडा पैरोकार और नुमाइन्दा मिलना था इसलिये मरहूम कृष्ण बिहारी नूर के शाइरी के घराने मे अदब के इस  चश्मो चराग़ की तर्बीयत और परवरिश हुई और बाद मे यही नाम हजारो गज़ल पसन्द  करने वालो और सीखने वालो के लिये परस्तिश और प्रशंसा का सबब बन गया।

अमरीका हो या पाकिस्तान , तुफैल साहब जहाँ भी गये हैं वहाँ के अदबी हल्कों और समाचार पत्रों ने उन्हें हाथों हाथ लिया है।तुफैल फूलों का गुलदस्ता है -हमारे अहद की सबसे खुश्बूदार आवाज़ के मालिक जैसा कि उनको फोन पर सुन कर आपको महसूस होगा। ये बहत्तर निश्तरों वाले तनक़ीदकार भी हैं जैसा कि अपनी गज़ल उनको सुना कर आपको महसूस होगा। ये पत्थर की निगहबानी मे शीशे की हिफाज़त के पैरोकार हैं। चाहे कराची हो या न्यूयार्क हर जगह उन्होने अपनी अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवाया है। कुल मिला कर जैसे आध्यात्म मे ओशो रजनीश पर प्रतिक्रिया देना इस दौर के हर तालिबे इल्म की मजबूरी है वैसे ही ग़ज़ल के शहर मे तुफैल के परचम को सलाम करना अदीबों की ज़रूरत ही नही मजबूरी भी है। इनके यहाँ अच्छी ग़ज़ल को वृहत्तर क्षितिज दिये जाते हैं –नामचीन होना कोई पाबन्दी नही है लफ़्ज़ मे छपने के लिये सिर्फ ग़ज़ल पाएदार और ऊंचे मेयार की होनी चाहिये । वो सच कहते हैं सिर्फ सच कहते हैं और सच के सिवा और कुछ नही कहते जिसकी तस्दीक़ उनकी ग़ज़ले और उनके सोशल इश्यूज पर दिये गये तमाम बयानात करते हैं।

विभाजन के बाद भारत की भाषा हिन्दी उर्दू के संक्रमण काल से भी गुज़री और आज  हिन्दुस्तान मे जिस भाषा मे संवाद किया जाता है उसमे हिन्दी , उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्द बेहद सहज रूप मे शुमार हैं। अब सवाल यह है कि "भाषा बहता नीर" के इस दैनन्दिन परिवर्ती स्वरूप मे साहित्य और समाज के लिये स्वीकार्य अंश की निशानदेही और पैरवी कौन करेगा ?!! तो हिन्दुस्तान के लिये और ग़ज़ल फार्मेट के लिये कौन सी भाषा सटीक और उपयुक्त हो सकती है इसकी मुहर आज तुफैल चतुर्वेदी के पास है। जब भारत पाकिस्तान ग़ज़ल मंच के एक मोतबर शाइर ने मंच पर ये शेर सुनाया –

घरों की तर्बियत क्या आ गई टी वी के हाथों मे
कोई बेटा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता

तो “बेटा बाप के ऊपर नही जाता”  –के भाषा –दोष पर फौरन आपति करने वाले तुफैल ही थे –भले ही इस पर प्रकरण मे कितना ही  विवाद क्यों न किया गया हो लेकिन इस संवाद मे जीत तुफैल साहब की ही हुई।

इसी प्रकार जब बशीर बद्र जैसे वरिष्ठ शाइर ने शेर कहा --

गुसलखाना की चिलमन मे पडे किमख़्वाब के पर्दे
नये नोटो की खरखर है पुरानी रेज़गारी मे

तो "गुसलखाना" नही सही लफ़्ज़ "गुस्लखाना" है ये कहने वाले पहले पहले शख़्स तुफैल ही थे। भले ही इस आपत्ति पर उनके बरसों के मरासिम शल हो गये –लेकिन भाषा और उसकी पवित्रता पर उन्होने राई रत्ती आँच नही आने दी। साहित्य और ग़ज़ल विधा अंतस की गहराइयों से इस व्यक्ति की कृतज्ञ है।

तुफैल चतुर्वेदी छह फुट के 52 बरस के नौजवान हैं, इनके कुर्ते मे सोने के बटन लगते हैं और इनका बयान सोलह सोने का होता है –शकर नहीं खाते लेकिन इसके मआनी ये नही कि उनके लहजे मे शकर नही है – वो बेहद आत्मीयता से किसी के साथ भी संवाद करते हैं –लेकिन उनके आलोचक कहते हैं कि इस व्यक्ति का लहजा करख़्त है और चाल ख़ुस्रवाना है। इसका कारण पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि ग़ज़ल फार्मेट और भाषा के विकास के शिखर पर रह कर वे इसकी नुमाइन्दगी करते हैं।

अपने उस्ताद मरहूम जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" के घराने को उन्होने आबाद कर रखा है और इस घराने की चौथी –पांचवी पीढी के शाइर भी आज गज़ल के मंच पर अपना जल्वा बिखेर रहे हैं।

जहाँ तक साहित्य सेवा का प्रश्न है उन्होने पाकिस्तान के श्रीलाल शुक्ल जनाब मुश्ताक अहमद यूसुफी साहब के कार्यों का अनुवाद –"खोया पानी" –"मेरे मुँह मे ख़ाक" और "धनयात्रा" बेहद कम समय मे किया और ऐसे समय मे किया जब वो अनेक पारिवारिक उलझनो मे घिरे थे।

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तुफैल चतुर्वेदी अपने इस्लामिक कट्टरपंथ के विरोध के कारण एण्टी –हीरो की छवि रखते हैं। "जिहाद" शब्द और कुरआन पाक की आयतों की मनमानी व्याख्या करने वाले इस नाम से खासे आतंकित रहते हैं और उनके बयान को अपने धर्म मे हस्तक्षेप की श्रेणी मे रखते हैं –लेकिन सच यह है कि उनकी निर्विवाद मेधा अकाट्य तर्क शक्ति के सामने सभी बौने साबित होते हैं।

शाइर तुफैल के इब्तिदाई दौर से बाबस्ता होने के लिये आपको उनका आज से 22 बरस पुराना संकलन" सारे वरक तुम्हारे" हासिल करना होगा जो किसी भी अच्छे बुक स्टाल पर आज भी आपको आसानी से मिल जायेगा। तब के नौजवान और युवा शाइर की भाषा इतनी सर्वग्राही और साफ सुथरी थी कि तम्हीद लिखते समय विख्यात तनकीदकार गोपीचन्द नारंग भावुक हो गये और उनकी तम्हीद का मर्कज़ इनकी भाषा ही रही। आप भी इन साफ सुथरे , चमकदार और दिल को छू लेने वाले नर्म नाज़ुक अशआर का ज़ायका लीजिये --

मेरे पैरों  मे चुभ जायेंगे लेकिन
इस रस्ते के काँटे कम हो जायेंगे

जिगर के टुकडे मेरे आँसुओं मे आने लगे
बहाव तेज़ था पुश्ता नदी ने काट दिया


हम तो समझे थे कि अब अश्कों की किस्तें चुक गयीं
रात इक तस्वीर ने फिर से तकाज़ा कर दिया

ज़रूरत पेश आती दुश्मनी की
तआल्लुक इस कदर गहरा नही था

अपना विरसा है ये किरदार, संभाले हुए हैं
इस हवा में हमीं दस्तार संभाले हुए हैं

कोई वीराना बसाना तो बहुत आसां था
हम तिरे शहर में घर-बार संभाले हुए हैं

तमाम शहर को फूलों से ढँक दिया मैंने
मगर बहार को उसने बहार माना क्या

छोड़ देता है दिन किसी सूरत
शाम सीने पे बैठ जाती है

दिन नहीं आता मेरी दुनिया में
रात जाती है रात आती है

दुनिया तिरे अहसास में नर्मी भी चुभन भी
रस्ते में मिले फूल भी घमसान का रन भी

अच्छा है कि कुछ देर मिरी नींद न टूटे
है ख़ाब के आग़ोश में बिस्तर भी बदन भी

अदब मे तुफैल साहब की जो हैसियत है उसको एक वाक्य मे यूँ कहा जा सकता है कि  –इस शख़्सीयत को अदब के बेशतर दायरों मे सराहा गया है जो दायरे इनसे तटस्थ हैं वहाँ इनको महसूस किया गया है और जो दायरे हमलावर हैं वहाँ इन्हे बर्दाशत किया गया है।यानी कि अदीबों के प्रतिक्रिया उनकी निजी भावना के अनुसार है लेकिन ऐसा कभी नही हुआ कि कोई इस व्यक्ति के स्पर्श के बाद खुद को प्रतिक्रियाविहीन रख पाया हो। कुल मिला कर तुफैल "जाकी रही भावना जैसी ....." के मानदण्ड पर खरे उतरते हैं।


तुफैल साहब मे अना अधिक है या पिन्दार इस पर बहस दीगर है क्योंकि हमारे लिये वो सबसे आदरणीय नामो मे से एक है –लेकिन यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनमे धैर्य स्नेह क्षमता और समर्पण जैसे कमयाब मानवीय गुण औरो से बहुत अधिक हैं और यही कारण है कि अपने विरोधियों की तमाम साजिशों के बावज़ूद ये नाम आज साहित्य के सबसे सशक्त नामो मे से एक है।

हिन्दू जीवन, हिन्दू तन-मन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय – तुफ़ैल चतुर्वेदी

उपनिषद्-पुराण महाभारत वेदामृत पान किया मैंने
अपने पग काल-कंठ पर रख गीता का ज्ञान दिया मैंने
संसार नग्न जब फिरता था आदिम युग में हो कर अविज्ञ
उस काल-खंड का उच्च-भाल मैं आर्य भट्ट सा खगोलज्ञ
पृथ्वी के अन्य भाग का मानव जब कहलाता था वनचर
मैं कालिदास कहलाता था तब मेघदूत की रचना कर
जब त्रस्त व्याधियों से हो कर अगणित जीवन मिट जाते थे
अश्वनि कुमार, धन्वन्तरि, सुश्रुत मेरे सुत कहलाते थे
कल्याण भाव हर मानव का मेरे अंतरमन का किसलय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

मेरी भृकुटि यदि तन जाये तीसरा नेत्र मैं शंकर का
ब्रह्माण्ड कांपता है जिससे वह तांडव हूँ प्रलयंकर का
मैं रक्तबीज शिर-उच्छेदक काली की मुंडमाल हूँ मैं
मैं इंद्रदेव का तीक्ष्ण वज्र चंडी की खड्ग कराल हूँ मैं
मैं चक्र सुदर्शन कान्हा का मैं काल-क्रोध कल्याणी का
महिषासुर के समरांगण में मैं अट्टहास रुद्राणी का
मैं भैरव का भीषण स्वभाव मैं वीरभद्र की क्रोध ज्वाल
असुरों को जीवित निगल गया मैं वह काली का अंतराल
देवों की श्वांसों से गूंजा करता है निश-दिन वह हूँ जय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय



मैं हूँ शिवि-बलि सा दान-शील मैं हरिश्चंद्र सा दृढ-प्रतिज्ञ
मैं भीष्म-कर्ण सा शपथ-धार मैं धर्मराज सा धर्म-विज्ञ
मैं चतुष्नीति में पारंगत मैं यदुनंदन, यदुकुलभूषण
मैंने ही राघव बन मारे मारीच-ताड़का-खर-दूषण
मैं अजय-धनुर्धन अर्जुन हूँ मैं भीम प्रचंड गदाधारी
अभिमन्यु व्यूह-भेदक हूँ मैं भगदत्त समान शूलधारी
मैं नागपंचमी के दिन यदि नागों को दूध पिलाता हूँ
तो आवश्यकता पड़ने पर जनमेजय भी बन जाता हूँ
अब भी अन्याय हुआ यदि तो कर दूंगा धरती शोणितमय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

शत-प्रबल-खड्ग-रव वेगयुक्त आघातों को मैंने झेला
भीषण शूलों की छाया में मेरा जीवन पल-पल खेला
संसार-विजेता की आशा मेरे ही आगे धूल हुई
यवनों की वह अजेय क्षमता मेरे ही पग पर फूल हुई
मेरी अजेय असि की गाथा संवत्सर का क्रम सुना रहा
यवनों पर मेरी विजय-कथा बलिदानों का क्रम बता रहा
पर नहीं उठायी खड्ग कभी मैंने दुर्बल-पीड़ित तन पर
अपने भाले की धार न परखी मैंने आहत जीवन पर
इतिहास साक्षी दुर्ग नहीं, हैं बने ह्रदय मेरा आलय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

युग-युग से जिसे संजोये हूँ बाप्पा के उर की ज्वाल हूँ मैं
कासिम के सर पर बरसी वह दाहर की खड्ग विशाल हूँ मैं
अस्सी घावों को तन पर ले जो लड़ता है वह शौर्य हूँ मैं
सिल्यूकस को पद-दलित किया जिसने असि से वह मौर्य हूँ मैं
कौटिल्य-ह्रदय की अभिलाषा मैं चन्द्र गुप्त का चन्द्रहास
चमकौर दुर्ग पर चमका था उस वीर युगल का मैं विलास
रण-मत्त शिवा ने किया कभी निश-दिन मेरा रक्ताभिषेक
गोविन्द, हकीकत राय सहित जिस पथ पर पग निकले अनेक
वो ज्वाल आज भी धधक रही है तो इसमें कैसा विस्मय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय


तुफैल चतुर्वेदी

ग़ज़ल - ‘शेफ़ा’ कजगाँवी

बन गया तिश्नालबी की जो निशानी एक दिन
ज़ुल्म की आँखों में भी लाया वो पानी एक दिन

ख़ुश्क लहजा तल्ख़ जुमले और बलन्दी का नशा
पस्तियाँ दिखला न दे ये लन्तरानी एक दिन

जैसे मिट्टी के खिलौने अब नहीं मिलते कहीं
ख़त्म हो जाएँगी लोरी और कहानी एक दिन

ऐसे जज़्बे जो पस-ए-मिजगाँ मचलते रह गये
आँसुओं ने कर दी उन की तर्जुमानी एक दिन

अपनी हर ख़्वाहिश को तुम पामाल कर के चुप रहे
बन न जाये रोग ऐसी बेज़ुबानी एक दिन

ख़त्म कर के हर निशानी ये तहय्या कर लिया
हम भुला देंगे सभी यादें पुरानी एक दिन

बा-रहा अञ्जाम से यूँ बा-ख़बर उस ने किया
दार पर चढ़वा न दे ये हक़-बयानी एक दिन

सोचते हैं तेरे अपने बस तेरे हक़ में ‘शेफ़ा’
दूर कर ले अपनी सारी बदगुमानी एक दिन

शेफ़ा’ कजगाँवी

पहले तो हम को पंख हवा ने लगा दिये - नवीन

पहले तो हम को पंख हवा ने लगा दिये । 
और फिर हमारे पीछे फ़साने लगा दिये ॥ 

तारे बेचारे ख़ुद भी सहर के हैं मुन्तज़िर । 
सूरज ने उगते-उगते ज़माने लगा दिये ॥ 

हँसते हुए लबों पै उदासी उँडेल दी । 
शादी में किसने हिज़्र के गाने लगा दिये ।। 

कुछ यूँ समय की जोत ने रौशन किये दयार । 
हम जैसे बे-ठिकाने ठिकाने लगा दिये ॥ 

ऐ कारोबारे-इश्क ख़सारा ही कुछ उतार । 
साँसों ने बेशुमार ख़ज़ाने लगा दिये ॥ 

दुनिया हमारे नूर से वैसे भी दंग थी । 
और उस पे चार-चाँद पिया ने लगा दिये ॥ 

सहर – सुबह; मुन्तज़िर - के लिये प्रतीक्षारत 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212

साहित्यम् - वर्ष 1 - अङ्क 7 - सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर' 2014

सम्पादकीय

आप ही की तरह मैं ने भी सुन रखा था कि “साहित्य समाज का दर्पण है”। बहुत बार लगा कि क्या बकवास है – साहित्य कहीं समाज का दर्पण हो सकता है? अगर ऐसा होता तो साहित्य की यूँ दुर्दशा न होती। लेकिन नहीं साहब, अग्रजों ने एक दम दुरुस्त फ़रमाया है कि “साहित्य समाज का दर्पण है”। अभी भी यक़ीन नहीं होता तो देखिये आप को कुछ उदाहरण देता हूँ।

सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो चुका है – साहित्यिक मूल्यों का असेस्मेण्ट ख़ुद ही कर के देख लीजिये।

समाज आज उस जगह पहुँच चुका है कि वह जो चाहे पैसे से ख़रीद सकता है – औसत से भी कम स्तर के रचनाधर्मियों को ये दे और वो दे टाइप परोसे जा रहे पुरस्कारों की व्यथा इस बात को सौ फ़ी-सदी सही साबित करती है।

समाज भाषा-संस्कारों को भुला चुका है – वर्तमान साहित्य में परिवर्तन के नाम पर जिस भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है वह प्रवृत्ति भी इस बात को सही ठहराती है।

समाज ऑल्मोस्ट भौंड़ा हो चुका है – बहुत सारे तथाकथित साहित्यकार उन के अपने साहित्य को भौंड़ेपन की दौड़ में सब से आगे ले जाने के लिये रात-दिन भरसक प्रयास करते स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

आज आदमी के अन्दर से सम्वेदना और सरोकार लुप्त हो चुके हैं – कुछ को छोड़ दें तो बहुत सारे तथाकथित  साहित्यकार भी सम्वेदना-शून्य रचनाओं की गठरी उठाये सरोकार विहीन दिशा की तरफ़ बढ़ते हुये स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं।

ऐसे अनेक विषय हैं जो “साहित्य समाज का दर्पण है” वाले सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं।

मगर, जहाँ एक तरफ़ यह दुरावस्था है वहीं दूसरी तरफ़ इस पीड़ा को महसूस करने वाले तमाम साहित्यानुरागी बरसों से कमर कस कर मैदान में डटे हुये भी हैं ताकि नुकसान को कम से कम घटाया तो जा सके। अनेक मोर्चों पर साहित्यानुरागियों ने अपने-अपने स्तर पर ऐसे-ऐसे कामों बल्कि यूँ कहिये कि प्रकल्पों को सम्हाला हुआ है कि परिचय होते ही उक्त व्यक्तित्वों की शान में सर ख़ुद-ब-ख़ुद झुक जाता है।

प्रश्न उपस्थित होता है कि दर्पण को साफ़ किया जाये या कि ऑब्जेक्ट को? बच्चा भी उत्तर दे सकता है कि दर्पण झूठ नहीं बोल सकता। लिहाज़ा हमें अपने चेहरों को ही साफ़ करना चाहिये। हमें समाज को ही उचित अवस्था में लाने के लिये निरन्तर प्रयास-रत रहना चाहिये। बेशक़ आज के दौर में हम अठारहवीं या फिर पहली-दूसरी सदी में तो नहीं जा सकते; मगर नोस्टाल्जिया को गरियाये बग़ैर पुरातन की अच्छी बातों को अधुनातन रूप में पुनर्स्थापित करने की दिशा में प्रयास तो कर ही सकते हैं।

छन्द इस दिशा में पहला प्रयास हो सकता है। छन्द का मतलब सिर्फ़ सवैया या घनाक्षरी या दोहा आदि आदि ही नहीं होता। बल्कि छन्द की परिभाषा में  ग़ज़ल, सोनेट, हाइकु के साथ-साथ वह सारी रचनाएँ भी आती हैं जो एक नियत विधान का अनुपालन करते हुये मानव-मस्तिष्क से सफल-सम्यक-सार्थक सम्वाद स्थापित करते हुये उस की सम्वेद्नात्मक संचेतना तक पहुँचने में सक्षम हों।

किसी को लग सकता है कि छन्द के रास्ते पर चल कर यह बदलाव कैसे सम्भव है। छन्द लिखने-पढ़ने-परखने वाले इस बात की पुष्टि करेंगे कि छन्द यानि एक भरपूर अनुशासनात्मक प्रणाली। ज़रा भी कम या ज़ियादा हुआ कि सौन्दर्य-बोध ख़त्म। सौन्दर्य-बोध ख़त्म होते ही लालित्य ख़त्म। रसात्मकता का लोप।

छन्द-संरचना हमें एक सुनियोजित मार्ग पर सुव्यवस्थित पद्धति से अग्रसर होने के लिये प्रेरित करती है। इस मन्तव्य को व्यावहारिक रूप से अनुभव कर के भी समझा जा सकता है।

आसाराम बापू के बाद रामपाल प्रकरण के भी गवाह बन चुके हैं हम लोग। कोई भी चैतन्य-मना व्यक्ति किसी भी सूरत में इन प्रकरणों से सरोकार नहीं रख सकता। इन प्रकरणों ने हमारी आस्थाओं के साथ हो रहे खिलवाड़ों की कलई खोल के रख दी है। उमीद करते हैं कि तमाम अन्य धर्मों / पंथों के लोग भी इन प्रकरणों से सबक लेंगे। दरअसल धर्म हमारे लिये एक ऐसा उपकरण होना चाहिये जिस की सहायता से हम अपने आप को सुनियंत्रित पद्धति को अपनाते हुये, भटकने से बचते हुये परमार्थ के विज्ञान को समझने का यत्न कर सकें। धर्म का मतलब हम सभी विचारधाराओं वाले लोगों के यहाँ यम-नियम-संयम न हो कर आडम्बर अधिक होता जा रहा है। इस दिशा में यदि हम गम्भीरता पूर्वक विचार न कर सके तो हमारी नई पीढ़ी के और अधिक नास्तिक आय मीन निराशावादी होने के अवसर बढ़ जायेंगे।

मोदी सरकार बनने के बाद से एक अलग ही तरह का उन्माद ओपनली दिखाई पड़ने लगा है। हर तरफ़ से। कोई चाहे तो जिरह यूँ भी कर सकता है कि पहले मुर्गी हुई या पहले अण्डा? मगर हर स्थिति में उन्माद हमारे बच्चों से तरक़्क़ी के मौक़े ही छीनेगा। व्हाट्सअप ने आजकल ख़ासी धूम मचाई हुई है। अपने मित्रों में सभी विचारधाराओं के व्यक्ति शामिल हैं। सभी मित्र अपने-अपने ज्ञान को हमारे साथ बाँटते रहते हैं। इस ज्ञान-वाटप में एक ऐसा मेसेज वायरल हुआ जिस ने इन पंक्तियों के लेखक को वाक़ई व्यथित किया। विषय अजमेर वाले चिश्ती साहब के द्वारा लाखों हिंदुओं को मुसलमान बनाये जाने पर उन्हें उक्त दर्ज़ा मिलने के बाबत था। उसी मेसेज में पृथ्वीराज चौहान की पत्नी के बारे में भी कुछ अत्यन्त दुखद लिखा हुआ था। एक औसत व्यक्ति के नाते मेरा निवेदन यही है कि ऐसे किसी भी संदेश को वायरल करने से पहले अच्छी तरह चेक भी कर लेना चाहिये, चूँकि हमारे पूर्वजों के साथ ज़ोर-जबर्दस्ती करने वालों के लिये हमारे मन में अच्छी भावनाएँ नहीं हो सकतीं। हिंदुस्तान मज़हब को ले कर कई बार बड़े-बड़े नुकसान झेल चुका है। एक और नुकसान????????

एक बड़ा ही मज़ेदार वाक़या है कि जैसे ही आप कोई शेर सुनाएँ और अगर उस शेर पर किसी पूर्ववर्ती शायर के ख़याल की छाया हुई [जो कि अक्सर होती भी है] तो फ़ौरन से पेश्तर लोग उस शायर का हवाला देने लगते हैं। मगर बाद के पन्थ के लोगों से अगर हम कहें कि यह बात वेदों में भी लिखी है तो पता नहीं क्यों वे लोग अचानक ही असहज हो जाते हैं? भाई आप को वेद की ऋचा को उद्धृत नहीं करना, आप की मर्ज़ी। आप उपकार  को मेहरबानी या obligation या कुछ और कहना चाहते हैं – आप की मर्ज़ी। मगर हमें तो अपनी आस्थाओं से जुड़ा रहने दीजिये। हम सभी को एक दूसरे पर अपने विचार थोपने की बजाय, अपने-अपने बच्चों तक अपने पूर्वजों के विचार पहुँचाने पर अधिक ध्यान देना चाहिये। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति कहे कि वही सर्व-श्रेष्ठ है तो इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि वह नेष्ट है इसलिये ख़ुद को सर्व-श्रेष्ठ साबित करने के लिये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये जा रहा है।

कोई त्यौहार आया कि सारा मीडिया देशी मिठाइयों के पोस्ट-मार्टम में लग जाता है। नो प्रॉबलम। मगर भाइयो आप ने कभी कृत्रिम सब्जियों, मिलावटी मसालों, केडबरी-पेप्सी के आकाओं द्वारा नकारी गईं दवाओं, मशीनों वग़ैरह के बारे में सोचना नहीं होता है क्या? कमी को दूर करना हमारा लक्ष्य अवश्य ही होना चाहिये, मगर हिन्दुस्तान की रीढ़ यानि कुटीर उद्योग यानि छोटे-छोटे कारोबारियों को अनिश्चित भविष्य की निधि टाइप नौकरियों की भट्टियों में धकेलने की क़ीमत पर नहीं। इशारा पर्याप्त है।

हिन्दुस्तानी साहित्य सेवार्थ शुरू किया गया यह शैशव प्रयास अपने सातवें चरण में है। हम हर बार ग़लतियों से सीखने का प्रयास करते हैं। अपने पाठकों की ख़िदमत करने की भरसक कोशिश करते हैं। फिर भी चूँकि हम मनुष्य हैं सो हम से भूल होना स्वाभाविक है। आप सभी से साग्रह निवेदन है कि हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराने की कृपा करें। आप के सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। आभार। नमस्कार।

सादर
नवीन सी. चतुर्वेदी

रचनाएँ देवनागरी में मङ्गल फोण्ट में टाइप कर के [सम्भवत:  ड़,, ञ के अलावा चन्द्र-बिन्दु तथा अनुस्वार का भी उपयोग करते हुये]  navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें। अगला अङ्क फरवरी में आयेगा / अद्यतन होगा।


साहित्यम्  अन्तरजालीय पत्रिका / सङ्कलक

सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर 2014      
वर्ष – 1 अङ्क  7

विवेचना                       मयङ्क अवस्थी
                                    07897716173

छन्द विभाग                 संजीव वर्मा सलिल
                                    9425183144

व्यंग्य विभाग               कमलेश पाण्डेय
                                    9868380502

कहानी विभाग             सोनी किशोर सिंह
                                    8108110152

राजस्थानी विभाग        राजेन्द्र स्वर्णकार
                                    9314682626

अवधी विभाग               धर्मेन्द्र कुमार सज्जन
                                    9418004272

भोजपुरी विभाग            इरशाद खान सिकन्दर
                                    9818354784

विविध सहायता           मोहनान्शु रचित
                                   9457520433  
                                   ऋता शेखर मधु

सम्पादन                      नवीन सी. चतुर्वेदी
                                    9967024593

अनुक्रमाणिका
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कहानी

·        कहानी फ़ोटो जर्नलिस्ट – डॉ. वरुण सूथरा

 

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·        हिन्दू जीवन, हिन्दू तन-मन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय – तुफ़ैल चतुर्वेदी


हाइकु

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