31 जुलाई 2014

3 ग़ज़लें - पवन कुमार

 तुम्हें पाने की धुन इस दिलको अक्सर यूँ सताती है
बँधी मुट्ठी में जैसे कोई तितली फड़फड़ाती है

चहक उठता है दिन और शाम नगमे गुनगुनाती है
तुम्हारे पास आता हूँ तो हर शय मुसकुराती है

मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरफ़ कुछ यूँ बुलाती है
किसी मेले में क़ुलफ़ी जैसे बच्चों को लुभाती है

वही बेरङ्ग सी सुब्हें, वही बे-क़ैफ़ सी शामें
मुझे तू मुस्तक़िल ऐ ज़िन्दगी क्यूँ आजमाती है

क़बीलों की रवायत, बन्दिशें, तफ़रीक़ नस्लों की
मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है

किसी मुश्किल में वो ताक़त कहाँ जो रासता रोके
मैं जब घर से निकलता हूँ तो माँ टीका लगाती है

न जाने किस तरह का क़र्ज़ वाजिब था बुज़ुर्गों पर
हमारी नस्ल जिस की आज तक क़िस्तें चुकाती है

हवाला दे के त्यौहारों का, रस्मों का, रवाज़ों का
अभी तक गाँव की मिट्टी इशारों से बुलाती है
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


जहां हमेशा समंदर ने मेहरबानी की
उसी ज़मीन पे किल्लत है आज पानी की

उदास रात की चौखट पे मुंतज़िर आँखें
हमारे नाम मुहब्बत ने ये निशानी की

तुम्हारे शहर में किस तरह जिंदगी गुज़रे
यहाँ कमी है तबस्सुम की ,शादमानी की

ये भूल जाऊं तुम्हें सोच भी नहीं सकता
तुम्हारे साथ जुड़ी है कड़ी कहानी की

उसे बताये बिना उम्र भर रहे उसके
किसी ने ऐसे मुहब्बत की पासबानी की
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ

मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22


ज़रा सी चोट को महसूस करके टूट जाते हैं
सलामत आईने रहते हैं चेहरे टूट जाते हैं

पनपते हैं यहाँ रिश्ते हिजाबों एहतियातों में
बहुत बेबाक होते हैं तो रिश्ते टूट जाते हैं

दिखाते हैं नहीं जो मुद्दतों तिश्नालबी अपनी
सुबू के सामने आकर वो प्यासे टूट जाते हैं

किसी कमजोर की मज़बूत से चाहत यही देगी
कि मौजें सिर्फ़ छूती हैं ,किनारे टूट जाते हैं

यही इक आखिरी सच है जो हर रिश्ते पे चस्पा है
जरूरत के समय अक्सर भरोसे टूट जाते हैं

गुज़ारिश अब बुज़ुर्गों से यही करना मुनासिब है
ज़ियादा हो जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222 1222 1222 1222

:- पवन कुमार
9412290079

1 टिप्पणी:

  1. मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरफ़ कुछ यूँ बुलाती है
    किसी मेले में क़ुलफ़ी जैसे बच्चों को लुभाती है
    जहां हमेशा समंदर ने मेहरबानी की
    उसी ज़मीन पे किल्लत है आज पानी की
    गुज़ारिश अब बुज़ुर्गों से यही करना मुनासिब है
    ज़ियादा हो जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं
    कविता वही है जो अपने समय का आइना हो, और व्यापक और दीर्घकालीन युगव्रत्तियों के दौरे हाज़िर के अक्स के मुसव्विरी कामयाबी से कर सके !! पवन साहब का मैं पुराना प्रशंसक हूँ !! बानगी के तौर पर ऊपर के शेर हमारे समय का आइना भी हैं और ज़िन्दगी , रिश्ते और वर्तमान सामाजिक प्रवाह मे इनकी सूरत और हैसियत के नुमाइन्दे भी !! आपके पहले संकलन की समीक्षा भी इसी ब्लाग पर पहले आ चुकी है !!!
    पवन साहब !! एक बार फिर बहुत बहुत बधाई !! –मयंक

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