फिर विचारों पर सियासी रंग गहराने लगे, 
फिर छतों पर लाल-पीले ध्व ज नज़र आने लगे.
रंग पिछले इश्तलहारों के अभी उतरे नहीं,
फिर फ़सीलों पर नये नारे लिखे जाने लगे.
अंत में ख़ामोश होकर रह गए अख़बार भी,
साजि़शों में रहबरों के नाम जब आने लगे.
आज अपनी ही गली में से गुज़रते डर लगा, 
आज अपने ही शहर के लोग अनजाने लगे.
जान पाए तब ही कोई पास में मारा गया, 
जब पुलिसवाले उठाकर लाश ले जाने लगे.
हो गईं वीरान सड़कें और कर्फ़्यू लग गया, 
फिर शहर के आसमॉं पर गिद्ध
मॅंडराने लगे.
अशोक रावत
अशोक रावत
 
वाह वाह जिंदाबाद गजल
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