दालान में कभी-कभी छत पर खड़ा हूँ मैं - सालिम सलीम

दालान में कभी-कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
सायों के इंतिज़ार में शब भर खड़ा हूँ मैं

क्या हो गया कि बैठ गयी ख़ाक भी मेरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

फैला हुआ है सामने सहरा-ए-बेकनार
आँखों में अपनी ले के समुन्दर खड़ा हूँ मैं
सहरा – रेगिस्तान, कनार – [समुद्र का] किनारा

सन्नाटा मेरे चारों तरफ़ है बिछा हुआ
बस दिल की धड़कनों को पकड़ कर खड़ा हूँ मैं

सोया हुआ है मुझ में कोई शख़्स आज रात
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं

इक हाथ में है आईना-ए-ज़ात-ओ-कायनात
इक हाथ में लिये हुये पत्थर खड़ा हूँ मैं 


बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

 221 2121 1221 212

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