ब्रज-गजल - अबू उभरै तौ है हिय में, गिरा के रूठवे कौ डर - नवीन

ब्रज-गजल - रूठवे कौ डर 
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अबू उभरै तौ है हिय में - गिरा1 के रूठवे कौ डर। 
मगर अब कम भयौ है - शारदा के रूठवे कौ डर॥

सलौने-साँवरे नटखट बिरज में जब सों तू आयौ। 
न जानें काँ गयौ - परमातमा के रूठवे कौ डर॥

सुदामा और कनुआ की कथा सों हम तौ यै सीखे। 
विनय के पद पढावै है - सखा के रूठवे कौ डर॥

कोऊ मानें न मानें वा की मरजी, हम तौ मानें हैं। 
हमें झुकवौ सिखावै है - सभा के रूठवे कौ डर॥

हहा अब तौ ठिठोली सों जमानौ रूठ जावें है। 
कहूँ गायब न कर डारै - ठहाके - रूठवे कौ डर॥

निरे सत्कर्म ही थोड़ें करावै माइ-बाप'न सों। 
कबू छल हू करावै है – सुता2 के रूठवे कौ डर॥

हमें तौ नाँय काऊ 'और' कों तकलीफ है तुम सों। 
डरावै है तुम्हें वा ही 'तथा' के रूठवे कौ डर॥

घनेरे लोग बीस'न बेर कुनबा कों डला कह'तें। 
डरावै है सब'न कों या डला के रूठवे कौ डर॥

'नवीन' इतिहास में हम जाहु नायक सों मिले, वा के। 
मगज में साफ देख्यौ - नायिका के रूठवे कौ डर॥

गिरह कौ शेर:- 
बड़ी मुस्किल सों रसिया रास कों राजी भयौ, लेकिन। 
"लली कौ जीउ धसकावै लला के रूठवे कौ डर"॥

1 वाणी, सरस्वती 2 बेटी


नवीन सी. चतुर्वेदी 

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