1 फ़रवरी 2014

बारहा निकला मैं इस रस्ते से, बस ठहरा न था - इस्मत ज़ैदी शेफ़ा

बारहा निकला मैं इस रस्ते से, बस ठहरा न था
सच ये है कि आप ने भी तो कभी रोका न था

उन की कोशिश राएगाँ हो जाएगी सोचा न था
मैं कहीं अंदर से टूटा तो मगर बिखरा न था

मुन्तज़िर रहती ज़मीं कब तक, बिल-आख़िर फट गई
बादलों का एक भी टुकड़ा यहाँ बरसा न था

उस के फूलों के एवज़, मैं ने उसे काँटे दिये
पूरा सच हो या न हो , इल्ज़ाम ये झूठा न था

मैं गुलिस्तानों के गुल बूटों से वाबस्ता रहा
ख़ार ओ ख़स से भी मगर रिश्ता मेरा टूटा न था

हम सवाल ए ज़ीस्त सुलझाने की कोशिश में रहे
मस’अला ये इस क़दर उलझा कि फिर सुलझा न था

ऐ ’ शेफ़ा’ क्योंकर ये फ़र्क़ आया इबादतगाह में

ये जगह वो थी जहाँ कोई बड़ा - छोटा न था

इस्मत ज़ैदी 'शेफ़ा'

3 टिप्‍पणियां:

  1. शुक्रिया नवीन जी !
    लेकिन मैं इतना ख़राब लिखती हूँ इस का अंदाज़ा नहीं था मुझे
    किसी ने पढ़ी ही नहीं ग़ज़ल :)

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    उत्तर
    1. मुहतरमा कमेण्ट किसी पोस्ट या वेबसाइट का मूल्याँकन नहीं करते। चाहें तो अनुभूति और कविता-कोश का सन्दर्भ ले सकती हैं। आप की पोस्ट को बेशक़ पढ़ा जा रहा है । कमेण्ट सब कुछ नहीं।

      मैं कमेण्ट बहुत जगह नहीं कर पाता, मगर जब-जब जितना मौक़ा मिलता है सब को थोड़ा-थोड़ा पढ़ता ज़रूर रहता हूँ। उसी क्रम में आप की ग़ज़ल के अलावा इस अङ्क की कई पोस्ट्स तैयार हुई हैं।

      आप के साथ ही साथ सभी साहित्य-प्रेमियों से निवेदन है कि अपनी रचनाओं को टिप्पणियों के आलोक में न देखें। यदि मेरी बात में अतिशयोक्ति झलक रही हो तो किसी एक पर्टिक्युलर पोस्ट और उस पर आये 50-100-150 कमेण्ट्स को ज़रा ग़ौर से पढ़ कर देख लीजियेगा।

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  2. उन की कोशिश राएगाँ हो जाएगी सोचा न था
    मैं कहीं अंदर से टूटा तो मगर बिखरा न था.............बहुत सुन्दर!!

    पूरी गज़ल बहुत खूबसूरत है...सादर बधाई !

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