30 मई 2012

चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है


मनोहर शर्मा 'सागर'

 भाई द्विजेन्द्र द्विज जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं|  आइये आज पढ़ते हैं उन के पिताजी श्री मनोहर शर्मा 'सागर' पालमपुरी जी की एक ग़ज़ल

 
मैंने गो आज तुम्हें पहले-पहल देखा है
ऐसा लगता है कि अज़ रोज़-ए-अज़ल देखा है

मरमरी बाहें उठा तूने ली अंगड़ाई तो
चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है

गहरे पानी में नहाते तुझे देखा तो लगा
नीलगूँ झील में इक शोख़ कँवल देखा है

रहगुज़ारों की कड़ी धूप में अक्सर मैंने
तेरी ज़ुल्फ़ों में घटाओं का बदल देखा है

गुफ़्तगू तेरी बहुत शीरीं है फिर भी मैंने
तेरे किरदार में कम हुस्न-ए-अमल देखा है

एक दो बात कभी हम से भी कर लो साग़र’
जब भी देखा है तुम्हें मह्वे-ग़ज़ल देखा है

मनोहर शर्मा ‘’साग़र’’ पालमपुरी
२५ जनवरी १९२९- ३० अप्रैल १९९६


शब्दार्थ 

अज़ = से
रोज़-ए-अज़ल = वह दिन अथवा समय जब सृष्टि की रचना आरम्भ हुई
शीरीं गुफ़्तगू = मधुर वार्तालाप
बदल = स्थानापन्न
हुस्न-ए-अमल = कर्त्तव्य निर्वाह की सुन्दरता

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत शानदार ग़ज़ल ..वाह

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  2. मरमरी बाहें उठा तूने ली अंगड़ाई तो
    चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है

    वाह ,,,,, सुंदर प्रस्तुति,,,,,बेहतरीन गजल,,,,,,,

    RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,

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  3. बहुत खुबसूरत गजल....
    सादर बधाई/आभार

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  4. मरमरी बाहें उठा तूने ली अंगड़ाई तो
    चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है
    एक सीरियल आता है ज़ी पर उसका एक डायलॉग उधार लूं तो कह सकता हूं -- अरे! ग़ज़ब रे ग़ज़ब!!
    कमाल की ग़ज़ल आपने पढ़ने का मौक़ा दिया।

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