लघु कथा – प्रसाद - प्राण शर्मा
गुजराती गजलें - सञजू वाला
નથી પામવાની રહી રઢ યથાવત
અપેક્ષા થતી જાય છે દ્રઢ યથાવત
नथी पामवानी रही रढ यथावत
अपेक्षा थती जाय छे दृढ़
यथावत
पहले जैसी
पाने’ की जिज्ञासा नहीं रही
अपेक्षा यथावत दृढ़ होती जा
रही है
હશે અંત ઊંચાઈનો ક્યાંક ચોક્કસ
કળણ સાથ રાખી ઉપર ચઢ યથાવત
हशे अन्त ऊँचाई नो क्याँक
चोक्कस
कणण साथ राखी उपर चढ़ यथावत
निश्चित ही कहीं न कहीं
ऊँचाई का अन्त होगा
पहचानने की कला और हौसले के
साथ यथावत ऊपर चढ़ता रह
પવનની ઉદાસી જ દરિયો બની ગઈ ,
પડ્યો છે સમેટાઈ ને સઢ યથાવત
पवन नी उदासी ज दरियो बनी गई
पडयौ छे समेटाई ने सढ़ यथावत
पवन की जो उदासी थी वह खुद
इक समंदर बन गयी
उसकी वजह से यथावत सिमटा हुआ
सढ़ भी पड़ा हुआ है
જરા આવ-જા આથમી તો થયું શું ?
જુઓ ઝળહળે તેજ-નો ગઢ યથાવત
जरा आव-जा आथमी तो थयूँ शूं
जुओ झणहणे तेज – नो गढ़ यथावत
आना-जाना थम गया तो क्या हुआ ?
वह तेज का पुञ्ज तो अबभी
यथावत है !
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વાત વચ્ચે વાત બીજી શીદ કરવી ?
પ્રેમમાં પંચાત બીજી શીદ કરવી ?
वात
वच्चे वात बीजी शीद करवी
प्रेम माँ पञ्चात बीजी शीद
करवी
एक बात के बीच में दूसरी बात
क्यूँ करना
प्रेम में कोई अन्य पञ्चायत
क्यूँ करना
કરવી હો, પણ રાત બીજી શીદ કરવી ?
એક મૂકી જાત બીજી શીદ કરવી ?
करवी हो पण रात बीजी शीद
करवी
एक मूकी जात बीजी शीद करवी
करनी हो, लेकिन दूसरी रात क्या करना
एक ज़ात छोड़ कर दूसरी ज़ात
क्या करना
સૌ અરીસા જેમ સ્વીકાર્યું યથાતથ
તથ્યની ઓકત બીજી શીદ કરવી ?
सौ अरीसा जेम स्वीकार्यू
यथायथ
तथ्य नी औकात बीजी शीद करवी
दर्पण की मानी सब कुछ जैसे
थे, वैसे ही हैं
तथ्य को दूसरा अर्थ दे कर
क्या करना है ?
છે પડી તો જાળવી લઈએ જતનથી
માહ્યલે મન ભાત બીજી શીદ કરવી ?
छे पडी तो जाळवी लइए जतन थी
माह्यले मन भात बीजी शीद
करवी
जो छाप मन पर लगी है उसको
सँभाल ले
यह जी है ! उस पर दूजी छाप
किस लिए ?
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વંશ જો વારસાઈ જાણી જો !
આપણી શું સગાઈ જાણી જો !
वन्श जो वारसाई जाणी जो
आपणी शूं सगाई जाणी जो
हम सब आदम की नस्ल है
हमारे बीच वही रिश्ता है
એક એની ઇકાઈ જાણી જો
થઈ ફરે છે ફટાઈ જાણી જો !
एक एनी इकाई जाणी जो
थई फरे छे फटाई जाणी जो
उनकी इखाथ्थ सत्ता तो देखो
कोई बे-लगाम लड़की हो जाने !!
તપ,તીરથ ને અઠાઈ જાણી જો
પ્રીત પોતે પીરાઈ જાણી જો !
तप-तिरथ एनबीई अठाई जाणी जो
प्रीत पोते पिराई जाणी जो
तप, तीर्थ और अठाईतप देख ले
उन सब में प्रीत ही सब से
ऊँची है !!
શાહીટીપે સરસ્વતી રાજે-
કેવી છે આ કમાઈ જાણી જો !
शाहीटीपे सरस्वती राजे
केवी छे आ कमाई जाणी जो
शाही की बूँद ही
सरस्वती है
और वही तो हमारी कमाईहै !!
:- सञ्जू वाला
9825552781
वर्ष 1 अङ्क 4 मई 2014
हम चाहते हैं कि हमारे नौजवान खूब दिल लगा कर पढ़ें, अच्छे नम्बरों से पास हों और अच्छे काम-धन्धे से लगें। मगर हम करते क्या हैं? [1] खूब दिल लगा कर पढ़ें - चौबीस घण्टे उन के इर्द-गिर्द हम ने इतने सारे ढ़ोल बजवा रखे हैं कि दिल लगा कर तो ल्हेंची [खड्डे] में गया, सामान्य रूप से पढ़ना भी दूभर है। [2] अच्छे नम्बरों से पास हों - इस विपरीत वातावरण में भी कुछ बच्चे अप्रत्याशित परिणाम ले आते हैं। मगर अफ़सोस CET में 99% परसेण्टाइल लाने के बावजूद उन्हें टॉप में पाँचवी रेङ्क वाला कॉलेज मिलता है। हालाँकि उसी कॉलेज में उन के साथ 50 परसेण्टाइल वाले बच्चे भी पढ़ते हुये मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं। क्या सोचते होंगे ये बच्चे - ऐसी स्थिति में? क्या हम उन्हें अराजक नहीं बना रहे? [3] अच्छे काम-धन्धे से लगें - अच्छा काम-धन्धा!!!!!! कौन सा काम-धन्धा अच्छा रह गया है भाई??????????????????? इनडायरेक्टली हम अपने यूथ को निर्यात होने दे रहे हैं।
क्या आप ने कभी अन्दाज़ा लगाया है कि हमारे नौजवानों की गाढ़ी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा गेजेट्स खाये जा रहे हैं। औसत नौजवान साल में कम से कम एक बार सेलफोन बदल लेता है। इस बदलाव पर आने वाला खर्च अमूमन 10000 होता है। टेब्स या उस जैसी नयी तकनीक को खरीदने पर भी अमूमन दस हज़ार का ख़र्चा पक्का समझें। इन टोटकों को पाले रखने के लिये चुकाया जाने वाला किराया-भाड़ा भी अमूमन दस हज़ार से कम क्या? इस नये शौक़ के साथ एक पर एक फ्री की तरह आने वाले लुभावने ख़र्चीले ओफ़र्स भी महीने में 2-3 हज़ार यानि साल में 30-40 हज़ार उड़ा ही लेते हैं नौजवानों की पोकेट्स से। कुल मिला कर बहुत ज़ियादा नहीं तो भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50 हज़ार तो होम हो ही जाते होंगे। औसत नौजवान की एक साल की औसत कमाई [जी हाँ कमाई - लोन, चम्पी या उठाईगिरी नहीं] शायद तीन लाख नहीं है। यदि यह आँकड़े सही हैं तो बन्दा अपनी दो महीने की कमाई उड़ाये जा रहा है। बचायेगा क्या? नहीं बचायेगा तो आने वाले बुरे वक़्त से ख़ुद को कैसे बचायेगा? कभी-कभी लगता है कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस पीढ़ी को खोखला किया जा रहा है। ईश्वर करे कि मेरा यह सोचना ग़लत हो।
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तीन कविताएँ - आलम खुर्शीद
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आमन्त्रण - जितेन्द्र जौहर
चढ़ता-उतरता प्यार - मुकेश कुमार सिन्हा
हम भले और हमारी पञ्चायतें भलीं - नवीन
हाइकु
हाइकु - सुशीला श्योराण
लघु-कथा
प्रसाद - प्राण शर्मा
छन्द
अँगुरीन लों पोर झुकें उझकें मनु खञ्जन मीन के जाले परे - गोविन्द कवि
तेरा जलना और है मेरा जलना और - अन्सर क़म्बरी
जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन
3 छप्पय छन्द - कुमार गौरव अजीतेन्दु
हवा चिरचिरावै है ब्योम आग बरसावै - नवीन
गीत-नवगीत
ज्योति कलश छलके - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
गङ्गा बहती हो क्यूँ - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
जय-जयति भारत-भारती - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
हर लिया क्यों शैशव नादान - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
भरे जङ्गल के बीचोंबीच - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
मधु के दिन मेरे गये बीत - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
ग़ज़ल
न मन्दिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता - नौशाद अली
उस का ख़याल आते ही मञ्ज़र बदल गया - रऊफ़ रज़ा
चन्द अशआर - फ़रहत अहसास
तज दे ज़मीन, पङ्ख हटा, बादबान छोड़ - तुफ़ैल चतुर्वेदी
सितारा एक भी बाकी बचा क्या - मयङ्क अवस्थी
चोट पर उस ने फिर लगाई चोट - सालिम शुजा अन्सारी
उदास करते हैं सब रङ्ग इस नगर के मुझे - फ़ौज़ान अहमद
जब सूरज दद्दू नदियाँ पी जाते हैं - नवीन
मेरे मौला की इबादत के सबब पहुँचा है - नवीन
आञ्चालिक गजलें
दो पञ्जाबी गजलें - शिव कुमार बटालवी
गुजराती गजलें - सञ्जू वाला
अन्य
साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को सम्मान
समीक्षा - शाकुन्तलम - एक कालजयी कृति का अन्श - पण्डित सागर त्रिपाठी
फोन का बिल - मधु अरोड़ा
शानू को आज तक समझ में नहीं आया कि फोन का बिल देखकर कमल की पेशानी पर बल क्यों पड़ जाते हैं? सुबह-शाम कुछ नहीं देखते। शानू के मूड की परवाह नहीं। उन्हें बस अपनी बात कहने से मतलब है। शानू का मूड खराब होता है तो होता रहे।
दस मिनट बाद कमल फोन से फारिग़ हुए और शानू से बोले, ‘ कुछ काम है मुझसे? या खड़ी-खड़ी मेरी बातें सुन रही थीं।‘
इस पर शानू ने कहा, ‘मैं तो यह कहने आई थी कि टेलीफोन का बिल तो मैं देती हूँ। तुम परेशान क्यों हो रहे हो। जितने का भी बिल आयेगा वह देना मेरी जि़म्मेदारी है और अभी तक तो मैं ही दे रही हूँ।‘
इस पर शानू ने कन्धे उचकाते हुए कहा, ‘भई देखो, मैं तो जब फोन करूँगी जी भरकर बात करूँगी। तुम्हारा ऑफिस बिल भरे या न भरे।‘
इस पर कमल ने पलटवार करते हुए कहा, ‘तुम बहस बहुत करती हो। अपनी ग़लती मान लो तो कुछ बिगड़ जायेगा क्या?’
‘पहले पूरी बात सुन लो। हाँ, तो मैं कह रहा था कि मेरा तो पोस्टपेड है। तुम यह नया नम्बर ले लो, इसका जो भी बिल आयेगा, मैं चुका दूँगा‘, कमल ने शानू का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।
शानू को अचम्भा हुआ और उसने कहा, ‘लेकिन कमल, यह तुम्हारा ही प्रस्ताव था। उस समय फोन करने के पैसों की सीमा तुमने तय नहीं की थी। ऐसा नहीं चलेगा। पहले बता देते तो मैं नया नम्बर लेती ही नहीं।‘
कमल ने अपनी खीझ को छिपाते हुए कहा, दो नम्बरों की क्या ज़रूरत है? बात तो वही ढाक के तीन पातवाली रही न!’ शानू ने इस बात को आगे न बढ़ाते हुए चुप रहना ही बेहतर समझा।
अब शानू इस बात का ध्यान रखने लगी थी कि कमल के सामने फोन न किया जाये। इस तरह अनजाने में शानू में छिपकर फोन करने की आदत घर करती जा रही थी। अब वह फोन करते समय घड़ी देखने लगी थी।
...और फिर मैं तो फोन का बिल दे रही थी। कभी किसीको रोका नहीं फोन करने से। पढ़नेवाले बच्चे हैं, वे भी फोन करते हैं। मुझे तो तुम्हारे ऑफिस से मिलनेवाले मोबाईल की तमन्ना भी नहीं थी। तुम्हारा प्रस्ताव था।‘
शानू ने कुछ कहना चाहा तो कमल ने हाथ के इशारे से रोकते हुए कहा, ‘कई बार लोग नहीं चाहते कि उन्हें बेवज़ह फोन किया जाये। उनकी नज़रों में तुम्हारी इज्ज़त कम हो सकती है।‘
शानू ने गुस्से से कहा, ‘ बात को ग़लत दिशा में मत मोड़ो, बात मोबाईल के बिल के भुगतान की हो रही है। मेरे दोस्तों में मुझ जैसा साहस है। यदि वे डिस्टर्ब होते हैं तो यह बात वे मुझसे बेखटके कह सकते हैं। उनके मुँह में पानी नहीं भरा है।‘
शानू ने कहा, ‘कमल, तुम मुझे मेरे दोस्तों के खिलाफ़ नहीं कर सकते। मुझ पर इन बातों का कोई असर नहीं होता। मेरे दोस्तों से बात करने की समय सीमा तुम क्योंकर तय करो?’
कमल ने चिढ़ते हुए कहा, ’कभी मेरे रिश्तेदारों से भी बात की है?’ इस पर शानू ने तपाक से कहा, ‘कब नहीं करती, ज़रा बताओगे? वहाँ भी तुमको एतराज़ होता है कि फलाँ से बात क्यों नहीं की।‘ इस पर कमल हूँह करके चुप हो गये।
शानू ने कमल के कान के पास जाकर सरग़ोशी की, ‘तुम्हीं बताओ, क्या तुम मेरे कहने से अपने दोस्तों को फोन करना छोड़ सकते हो? नहीं न? फिर सारे ग़लत सही प्रयोग मुझ पर ही क्यों?’
कमल ने कहा, ‘तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारी मित्रता को लोग ग़लत रूप में भी ले सकते हैं? कम से कम कुछ तो ख़याल करो।‘
अब तो शानू का पारा सातवें आसमान पर था, बोली, ‘मैंने कभी किसीकी मित्रता पर कमेण्ट किया है? कुछ दोस्त तो खुलेआम दूसरे की बीवियों के साथ फिल्म देखते हैं, घूमते हैं, उन्हें कोई कुछ नहीं कहता? मेरे फोन करने मात्र पर इतना बखेड़ा?’
कमल ने मानो हथियार डालते हुए कहा, ‘मेरी एक बात तो सुनो।‘ शानू ने कहा, ‘नहीं, आज तुम मेरी बात सुनो। तो हाँ, मैं कह रही थी कि मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी जब सबके सामने तुम ऐसा करते हो। मैंने कभी कुछ कहा तुमसे?’
कमल को इस बात का अहसास नहीं था कि बात इतनी बढ़ जायेगी। उन्होंने शानू का यह रौद्र रूप कभी नहीं देखा था। वह अपने मित्रों के प्रति इतनी सम्वेदनशील है, उन्होंने सोचा भी नहीं था। कमल का मानना है कि जि़न्दगी में मित्र बदलते रहते हैं। इससे नई सोच मिलती है।
उन्होंने बात सँभालते हुए कहा, ‘देखो शानू डियर, यह मेरा मतलब कतई नहीं था। मित्रों का दायरा बढ़ाना चाहिये। मैं फोन करने के लिये इन्कार नहीं करता पर हर चीज़ लिमिट में अच्छी लगती है।‘
शानू ख़ुद को बहुत अपमानित महसूस कर रही थी। उसने तुनककर कहा, ‘मित्रों का दायरा बढ़ाना चाहिये, यह मुझे पता है पर पुराने दोस्तों की दोस्ती की जड़ों में छाछ नहीं डालना चाहिये। मैं अपनी दोस्ती में चाणक्य की राजनीति नहीं खेल सकती। जो ऐसा करते हैं, वे जि़न्दगी में अकेले रह जाते हैं।‘
आज शानू की सोच जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। क्या दोस्ती जैसे पाक़-साफ रिश्ते में बनियों जैसा गुणा-भाग करना उचित है? पुरुष महिला से दोस्ती निभा सकता है, पर महिला को पुरुष मित्रों से मित्रता निभाने के लिये कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं? कमल की तो इतनी महिला मित्र हैं, शानू ने हमेशा सबका आदर किया है, घर बुलाया है।
अगले दिन शाम को कमल ऑफिस से आये और बोले, ‘शानू, मैंने तुम्हारे मोबाईल का बिल भर दिया है पर प्लीज़, इस महीने ज़रा ध्यान रखना।‘
शानू ने कुछ नहीं कहा। उसने तय कर लिया था कि उसे मोबाईल प्रकरण में निर्णय लेना है, कोई बहस नहीं करना है और इस विषय में बात करने के लिये रविवार सर्वोत्तम दिन है1
रविवार को सुबह के नाश्ते के बाद शानू ने कहा, ‘कमल, एक काम करो। तुम अपना यह नम्बर वापिस ले लो। मैं इस नम्बर के साथ ख़ुद को सहज महसूस नहीं कर रही।‘
कमल ने कहा, ‘क्या प्रॉब्लम है? मैंने बिल भर दिया है।‘ कमल को शानू की यह आदत पता है कि सामान्य तौर पर वह किसी भी बात को दिल से नहीं लगाती है। वह ‘रात गई, बात गई’ वाली कहावत में विश्वास रखती है। तो अब अचानक क्या हो गया?
शानू ने कहा, ‘बात बिल भरने की नहीं है। मुझे पोस्टपेड की आदत नहीं है और फिर इसमें अन्दाज़ा नहीं रहता और बिल ज्य़ादा हो जाता है। मुझे प्रीपेड ज्य़ादा सूट करता है। उसमें मुझे पता रहता है कि कितना खर्च हो गया है और मैं अपनी जेब के अनुसार खर्च कर पाती हूँ।‘
मधु अरोड़ा , मुम्बई
9833959216