13 नवंबर 2011

इक शाम सरयू में स्वयं को, होम करना है तुझे

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

आयोजन जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है एक से एक उत्कृष्ट रचनाएँ भी सामने आ रही हैं। 2 अक्तूबर को शुरू हुआ यह आयोजन अब अपने उत्तरार्ध में प्रवेश कर चुका है।

आज की पोस्ट में हम पढ़ेंगे मयंक अवस्थी जी के हरिगीतिका छंद। लय का निर्वाह, छंद विधान का पूर्णरूपेण अनुपालन और सहज सम्प्रेषणीयता तो है ही, पर इन सब के अलावा जो ताज़गी उभारी है मयंक भाई ने, वो विशिष्ट है। आइये पढ़ते हैं इन छंदों को, धारा प्रवाह के साथ................






मयंक अवस्थी

मेरी  प्रणय  प्रस्तावना  का -- कुछ हुआ प्रतिरोध भी।
जब मैं विमुख होने लगा तो -- फिर हुआ अनुरोध भी।।
गतिशील करने को उठाये -- एक दो गतिरोध भी।
पर चल रहा था साथ में ही  -- कनखियों से शोध भी।१।


=====
आघात से टूटा नहीं जो -- ये  वही  अरमान   है।
है इश्क का सीमेण्ट इस पर --और इसमे "जान" है।।
किसके लिये पागल हुये हम --ये सभी को ज्ञान है।
सारा ज़माना जानता है --बस वही अनजान है।२।

=====

इस  रूप की संकल्पना पर --ये जहाँ कुर्बान है।
छत्तीस -चौबिस और छत्तिस -- आजकल  प्रतिमान है।।
इक नायिका है अंक शायी --दूसरी में ध्यान है।
आश्वस्त हैं दोनो कि उनका --बालमा नादान है।३।

=====
हे देवकीनन्दन कन्हैया --तुम अहर्निश प्यार हो।
धड़कन तुम्ही हो इस जगत की -- चेतना के सार हो।।
युगधर्म की स्थापना हित -- धर्म के अवतार हो।
गीता  प्रणेता तुम हमारे -- आइनाबरदार हो।४।

अर्जुन विदुर के वासते तुम -- दिव्य पथ के द्वार  हो।
हर कंस का संहार करती -- आतिशी तलवार हो।।
इस वेदनामय विश्व में तुम -- सत्य के आधार हो।
हैं बिम्ब ,भंगुर - भ्रांतिमय  सब -- तुम अमर किरदार हो।५।

तुम राधिका के मीत मोहन -- रुक्मिणी के हार हो।
सब गोपियाँ ये जानती हैं -- प्रेम के दरबार हो।
तुम पाण्डवो की विजयगाथा -- कौरवों की हार हो।
तुम आसुरी तमवृत्तियों पर -- सत्य का अधिकार हो।६।

तुम निकट होकर भी परात्पर -- रूप अपरम्पार हो।
चिर दिव्य लोकों के लिये भी -- दिव्यतम संसार हो।।
है कामना, “ माधव  “ तुम्हारा --  हर घडी  दीदार हो।
सब वेदना मिट जायँ मेरी -- ज़िन्दगी  त्यौहार  हो।७।

=====

कसौटी को केंद्र में रख कर कहा गया एक ये छंद भी देखिये। ऐसा छंद कभी कभार ही पढ़ने को मिलता है :-

है  संशयों की अग्नि सीते -- औ गुज़रना  है तुझे।
निष्कलुष कुन्दन कांति जैसा -- अब  निखरना है तुझे।।
हे  सूर्यवंशी  सूर्य, राघव -- ध्यान धरना है  तुझे।
इक शाम सरयू में स्वयं को -- होम करना है तुझे।८।

=====

चौपाई और दोहा वाले आयोजन के अलावा हम मयंक अवस्थी जी को ठाले-बैठे पर भी पढ़ चुके हैं। निस्वार्थ भाव से न जाने कितने लोगों की ग़ज़ल पर इसलाह करते रहते हैं। शायरों में प्यार से लिया जाने वाला नाम हैं मयंक भाई। जितनी शिद्दत से आप ग़ज़लें कहते हैं, उतनी ही शिद्दत से आप छंदों पर भी लेखनी चलाते हैं। किसी भी रचनाधर्मी के लिए ये एक चुनौती पूर्ण कार्य होता है कि वह एक से अधिक विधाओं में अपने रचना संसार की उपस्थिति दर्ज़ कराये। अमीर खुसरो यदि हमारे घरों में आज भी याद किए जाते हैं तो उस के मुख्य कारणों में उन का एक से अधिक विधाओं में रचना करना शामिल माना गया है।

मयंक भाई ने १६+१२ का जो पालन किया है वह अपने आप में एक अद्भुत मिसाल है। बात कहने के ढंग पर यदि कोई कमेन्ट करने वाला ईमानदारी से कमेन्ट करने बैठेगा तो ये पोस्ट छोटी पड़ जाएगी। छंदों से प्रेम करने वालों के लिए तथा छंद सीखने के उत्सुक लोगों के लिए ये एक महत्वपूर्ण पोस्ट है। आप लोग इन छंदों का आनंद लें, अपनी सहृदयी टिप्पणियों से रचनाकार का सम्मान करें तब तक हम खटते हैं एक और पोस्ट को अंतिम रूप देने के लिए। 

प्रार्थना :- जिन लोगों ने छंद भेजने हैं, वो यथा शीघ्र भेजने की कृपा करें। जो अपने छंदों का परिमार्जन कर रहे हैं वो भी कृपया जल्द से जल्द अपने कार्य को पूर्णता प्रदान कर के हमारा मार्ग प्रशस्त करने की कृपा करें।

जय माँ शारदे!

30 टिप्‍पणियां:

  1. इक नायिका है अंक शायी --दूसरी में ध्यान है।
    आश्वस्त हैं दोनो कि उनका --बालमा नादान है।३

    sabhi chhand sundar...

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  2. है कामना, “ माधव “ तुम्हारा -- हर घडी दीदार हो।
    सब वेदना मिट जायँ मेरी -- ज़िन्दगी त्यौहार हो।७।

    ---अति-सुन्दर ....हर छन्द सुन्दर ...

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  3. नाजनीन-ए-अरब, यानि ग़ज़ल कहने वाली कलाम के क़दम जब भारतीय सनातनी छंदों की जानिब कामजन हो जाएँ तो क्या मोजिज़ा हो सकता है, इसकी जिंदा-ताबिंदा मिसाल हैं भाई मयंक अवस्थी जी के ये मन्दर्ज़ा ज़ैल हरिगीतिका छंद ! विदेशो से आई विधाएं बेशक हमारे दिल-ओ-ज़ेहन पर छा चुकी हैं लेकिन हमारे अपने छंद शायद हमारे खून में ही शामिल हैं ! भाई मयंक अवस्थी जी के छंद कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से तो बेजोड़ व निर्दोष तो हैं हीं, मगर उनमें एक गज़ब की ताजगी, नवीनता तथा खुलापन भी है जो अक्सर देखने को नहीं मिलती है ! सीधी सादी भाषा, सुन्दर सन्देश, सरल शैली तथा सुभाषता लिए इस रचनायों पर अगर खुल कर बात ना की जाए, तो ये रचना के साथ अन्याय होगा !

    //मेरी प्रणय प्रस्तावना का -- कुछ हुआ प्रतिरोध भी।
    जब मैं विमुख होने लगा तो -- फिर हुआ अनुरोध भी।।
    गतिशील करने को उठाये -- एक दो गतिरोध भी।
    पर चल रहा था साथ में ही -- कनखियों से शोध भी।१।//

    ४ पंक्तियों में पूरी कहानी व्यान कर दी है, और क्या गज़ब की मंज़ेकाशी की है, वाह वाह वाह ! "कनखियों से शोध" वाला ख्याल तो बेमिसाल है!
    //आघात से टूटा नहीं जो -- ये वही अरमान है।
    है इश्क का सीमेण्ट इस पर --और इसमे "जान" है।।
    किसके लिये पागल हुये हम --ये सभी को ज्ञान है।
    सारा ज़माना जानता है --बस वही अनजान है।२।//

    "वस् यही अनजान है" अय हय हय हय ! गज़ब की रचना है ये भी !

    //इस रूप की संकल्पना पर --ये जहाँ कुर्बान है।
    छत्तीस -चौबिस और छत्तिस -- आजकल प्रतिमान है।।
    इक नायिका है अंक शायी --दूसरी में ध्यान है।
    आश्वस्त हैं दोनो कि उनका --बालमा नादान है।३।//

    बहुत खूब, "छत्तीस-चौबिस-छत्तिस" की फिगर लिए यह चुलबुली हरिगीतिका भी दिल खुश कर गई !

    //हे देवकीनन्दन कन्हैया --तुम अहर्निश प्यार हो।
    धड़कन तुम्ही हो इस जगत की -- चेतना के सार हो।।
    युगधर्म की स्थापना हित -- धर्म के अवतार हो।
    गीता प्रणेता तुम हमारे -- आइनाबरदार हो।४।//

    साधु साधु ! इस छंद की पाकीजगी के क्या कहने ! आनंद आया गया ! गूढ़ हिंदी के साथ "आईनाबारदार" जैसे उर्दू शब्द की जुगलबंदी ने तो समा ह ई बाँध दिया !

    //अर्जुन विदुर के वासते तुम -- दिव्य पथ के द्वार हो।
    हर कंस का संहार करती -- आतिशी तलवार हो।।
    इस वेदनामय विश्व में तुम -- सत्य के आधार हो।
    हैं बिम्ब ,भंगुर - भ्रांतिमय सब -- तुम अमर किरदार हो।५।//

    यह कृष्णमई रचना बहुत बाकमाल बनी है, प्रभु कृष्ण के विभिन्न रूपों से परिचित करवाती हुई - वाह !

    //तुम राधिका के मीत मोहन -- रुक्मिणी के हार हो।
    सब गोपियाँ ये जानती हैं -- प्रेम के दरबार हो।
    तुम पाण्डवो की विजयगाथा -- कौरवों की हार हो।
    तुम आसुरी तमवृत्तियों पर -- सत्य का अधिकार हो।६।//

    अहा हा हा हा हा !!! प्रेम का दरबार कह कर आपने बहुत विस्तार दे दिया कृष्ण के चरित्र को - अति उत्तम !

    //तुम निकट होकर भी परात्पर -- रूप अपरम्पार हो।
    चिर दिव्य लोकों के लिये भी -- दिव्यतम संसार हो।।
    है कामना, “ माधव “ तुम्हारा -- हर घडी दीदार हो।
    सब वेदना मिट जायँ मेरी -- ज़िन्दगी त्यौहार हो।७।//

    हो सकता है कि मैं गलत होऊँ, लेकिन पता नहीं क्यों इस छंद की पहली पंक्ति में वो प्रवाह नहीं आ रहा है ! वैसे कुल मिलकर बहुत सुन्दर छंद कहा है यह भी औत त्यौहार शब्द बहुत ही कमाल से यहाँ टांका है !

    //है संशयों की अग्नि सीते -- औ गुज़रना है तुझे।
    निष्कलुष कुन्दन कांति जैसा -- अब निखरना है तुझे।।
    हे सूर्यवंशी सूर्य, राघव -- ध्यान धरना है तुझे।
    इक शाम सरयू में स्वयं को -- होम करना है तुझे।८।//

    इस में कोई दो राय नहीं कि यह छंद "हासिल-ए-पोस्ट" छंद है ! और बातों के इलावा इसका एक और बहुत ही मुनफ़रिद पहलू भी है जो अभी तक इस इवेंट में देखने को नहीं मिला ! यहाँ दो पात्र आपस में वार्तालाप कर रहे हैं, और कमाल की बात तो ये है कि इस बात का कहीं ज़िक्र भी नहीं किया गया ! इस छंद में जानकी वो अबला जानकी नहीं जो सर झुका कर पति की हर बात का पालन करना आपका फ़र्ज़-ए-अज़ीम समझती है ! भाई मयंक अवस्थी की सीता सबला है जो मर्यादा पुरुषोत्तम तक को चेतावनी देने का माद्दा रखती है ! और लीक से हट कर ऐसी अभिव्यक्ति कर पाना भी हरेक कवि के बूते की बात नहीं है ! ऐसा ख्याल किसी ब्रह्म क्षण में ही प्रस्फुटित होता है जोकि कालजयी हो जाया करता करता है ! इन शाहकार छंदों के लिए मैं भाई भाई मयंक अवस्थी जी को एवं उनकी लेखनी को शत शत नमन करता हूँ !

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  4. श्रद्धेय श्री सुरेन्द्र सिह “ झंझट” जी !! मै ह्रदय से आपका आभारी हूँ कि आपने इन छन्दों को पसन्द किया और मेरा उत्साहवर्धन किया ।
    डा श्याम गुप्त साहब !!-अतिशय कृतज्ञ हूँ !! आपने छन्द पसन्द किये और इस पोस्ट को सकारात्मक टिप्प्णी के योग्य समझा ! बहुत बहुत आभार !!
    भाई योगराज प्रभाकर जी !!! आपकी टिप्पणी प्रशंसा पत्र और आतिशी शीशा दोनो ही है !!! आपने इन छन्दों के प्रथम दृष्टया प्रछन्न बिन्दुओं को रोशनी दे कर कथन के आशय को वृहत्तर क्षितिज दे दिया है !! मेरे लिये ये टिप्पणी एक उपलब्धि है । 10 नवम्बर को नवीन भाई !! का आदेश मिलने पर मैने रात में ये पोस्ट कम्पोज़ की और उनको प्रेषित की –नवीन भाई ने उसके बुनियादी छन्द विन्यास 14-14 को बदलने का न केवल सुझाव दिया बल्कि बहुत सारे विकल्प भी सुझाये जो उनके कुशल सम्पादक का अंतर्निहित तत्व है – तदनुरूप मैने भी इस पोस्ट के स्वरूप को बार बार उनकी आश्वस्ति तक बदला और इस दौरान कई बार परिवर्तन की फोन पर भी चर्चा हुई – इस पोस्ट में नवीन भाई का आग्रह , निर्देशन , सम्पादन और प्रेरणा भी पूरी बड़ी हद तक शुमार है । रचना –प्रक्रिया –राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जीवन मूल्यो के साथ ही बढ सकती है –जिसका अनुमोदन हमारे कालजयी पात्र और उनकी कहानियाँ यानी राम और कृष्ण के जीवन मूल्य कर सकते हैं – यह किसी भी भारतीय के अंतर्बोध में स्व्गत होंगे ही !! प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे –राम लोकप्रिय हैं –लेकिन कृष्ण तो जीवन पर्यंत अलोकप्रिय ही हैं – वाल्मीकि के राजा राम और तुलसी के भगवान के जीवन में कुछ प्रश्नचिन्ह है जिन्हें भगवत्ता का जल अभी सम्पूर्नता से नहीं धो सका है –छुप कर बालि को मारना –मित्र सुग्रीव की मित्रता के बल के बावज़ूद निर्बल हो जाता है – घर का भेदी भक्त बनाये जाने पर भी आदरणीय नहीं होता और सीता की अग्नि-परीक्षा मर्यादा पुरुषोत्तम के किरदार पर अभी भी अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह है !! रचनाधर्मी होनेके नाते इन प्रश्नो को उठाना नैतिक दायित्व भी है !!!! योगेश्वर कृष्ण ने गीता के रूप में एक ऐसा अनुपमेय दर्शन दिया है कि उनके किरदार पर कभी कोई प्रश्न नहीं उठ सकता !! महाभारत का युद्ध सृष्टि के प्रतिबद्ध जड़त्व को गति देने के लिये –धर्म की पुनस्थापना हेतु समय की आवशयकता है और तेरा धर्म है इसलिये हे अर्जुन !! गाण्डीव उठा और युद्ध कर !!! सभी अनुत्तरित प्रश्न गीता मे धराशायी हो चुके है!!!
    अब प्रश्न यही है कि जब हमको कुछ लिखना होता है तो ये परम्परा जिसमे हमारी परवरिश हुयी है –स्वत: हमारे कलम का निर्देशन करती है –लेकिन कोई भी पोस्ट जब तक अहले –नज़र उसे नहीं देखते अधूरी रहती है !!
    आपकी टिप्पणी मेरी उपल्ब्धि है !!! और ये टिप्पणी मुझे अंतस की निषिद्ध गहराइयो तक आश्वस्त कर गयी कि मेरा लिखना सार्थक हुआ !!! ये टिप्पणी मेरी पोस्ट से बेहतर है !!! योगराज भाई !! आपको ह्रदय से नमन !!!

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  5. Plese edit as --प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे –राम लोकप्रिय हैं –लेकिन कृष्ण तो जीवन पर्यंत आलोकप्रिय ही हैं

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  6. तुम राधिका के मीत मोहन -- रुक्मिणी के हार हो
    सब गोपियाँ ये जानती हैं -- प्रेम के दरबार हो ...

    छंदों को इतनी आसान सीधी और सरल भाषा में गूंथना ... और वो भी इस निराले अंदाज़ में ... योग राज ने ने जो भी कहा है वह सत्य है ... गहरे अनुभव और मेहनत के बाद ऐसी रचनाएं बनती हैं ... मयंक जी को हार्दिक बधाई इन लाजवाब छंदों की ...

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  7. बहुत खूब लिखा है |बधाई
    आशा

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  8. अद्भुत!अनूपम!अद्वितीय!...बधाई|

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  9. भाषा विशेष के शब्दों के प्रति मोहग्रस्तता की चाहरदीवारी को लाँघ चुकी रचना प्रस्तुत छंद की गेयता को बहुगुणित कर रही है. और कवि यहीं सफल है. संप्रेष्य भाव निर्द्वंद्व शब्दों की नौका के सहारे हर विस्तार को सुगम बनाते दीख रहे हैं.

    देवकीनन्दन या राघव के प्रति व्यक्त भाव कालजयी हैं.

    मयंकजी को हार्दिक बधाई.

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  10. बहुत सुन्दर छंद रचे हैं मयंक जी ने ! उनकी सरल सहज भाषा एवं अद्भुत शब्द विन्यास बरबस ही ध्यान आकर्षित करते हैं ! उन्हें बहुत बहुत बधाई एवं शुभकानाएं !

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  11. दिगम्बर नासवा !! श्रद्धेय !! आपका ह्रदय से आभार !!! इस टिप्पणी से मुझे बहुत सम्बल मिला !! मुझे संशय था कि यह पोस्ट असफल हो गयी है क्योंकि इस पोस्ट के विज्ञ सदस्य इस पर मौन रहे लेकिन पहले योगराज प्रभाकर साहब और फिर आपके शब्दों ने इस विचार को श्लथ किया और आंतरिक विश्वास दिया !! बहुत बहुत आभार!!!

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  12. ऋता शेखर “मधु” – आपके चारों शब्द रचनाकार के लिये शक्तिदायी है!! मैं आपको धन्यवाद दूँ तो यह बहुत बहुत छोटा शब्द होगा !! कृतज्ञ हूँ !!!

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  13. आशा !! उत्साह वर्धन के लिये आपका अतिशय आभार !!

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  14. सौरभ पाण्डेय !! सौरभ जी !! आपके शब्दो में भी सौरभ है और अनुभूति बन रहा है !! टिप्पणी टिप्पणीकार के व्यक्तित्व को भी अनुमोदित कर रही है –इतनी परिष्कृत और संश्लिष्ट भाषा !!! हिन्दी साहित्य विकेन्द्रित हो कर भी उतना ही सशक्त रहेगा – आप जैसों की तलाश और ज़रूरत है हिन्दी साहित्य को !! ईश्वर से कामना है कि यह कलम ऐसे ही गतिशील रहे !! बहुत बहुत आभार !!!

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  15. Sadhana Vaid – साधना जी !! मेरा नमन स्वीकार करें !!! नवीन भाई की भावना के आरोह और सहयोग की प्रतिध्वनि भी है इस पोस्ट में !! उन्होंने कई बार फोन कर इस पोस्ट के स्वरूप को तब्दील कराया !! अब प्रशंसा और आलोचना दोनो में वो बराबर के हकदार हैं !! आपके आशीष और शुभकामनायें मेरे साहित्यकार के लिये निधि समान हैं – बहुत सम्बल और बहुत उत्साह आपके शब्दो ने दिया । आभार !!

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  16. आघात से टूटा नहीं जो -- ये वही अरमान है।
    है इश्क का सीमेण्ट इस पर --और इसमे "जान" है।।
    किसके लिये पागल हुये हम --ये सभी को ज्ञान है।
    सारा ज़माना जानता है --बस वही अनजान है।२।
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति आधुनिक प्रतीक विधान लिए व्यंग्य विनोद लिए दिल की आवाज़ लिए .

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  17. Veerubhai !! मुहत्तरम !! बहुत बहुत आभार !! पोस्ट पढने के लिये और उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिये ! आपको छन्द और उसका मेयार पसन्द आया यह रचनाकार की कामयाबी है और अभीष्ट भी ! अर्से बाद ग़ज़ल से पारम्परिक छन्द की ओर मुड़ने पर संशय रहता है –लेकिन आप की साथ ही अन्य मर्मज्ञों की टिप्पणियों ने बहुत तसल्ली दी और बहुत आश्बस्त किया !!! पुन:आभार !!

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  18. आ. मयंक भाई जी

    आप तो मुझे बस यूँ ही क्रेडिट दिए जा रहे हैं| मैंने तो बस अपना फ़र्ज़ निभाया है, जो कि मैं पिछली जनवरी से निभाता चला आ रहा हूँ, और इस मंच के फेज़ वन यानि हरिगीतिका के समापन तक [शायद अगली दो या तीन पोस्ट] तक निभाना भी है| ये तो आप का बड़प्पन है कि आपने अपने छोटे भाई के अनुरोध का सम्मान रखा| हाँ मंच संचालक होने के नाते आलोचना का भार सब से पहले उठाना मेरा नैतिक दायित्व है|

    आप की तरह ही मैं भी अचंभित था, क्या यह पोस्ट इतनी भी नहीं कि विद्वतजन यहाँ आने के बारे में सोचें| कुछ लोगों ने कुछ लोगों से आपत्ति जताई थी, और मुझ से व्यक्तिगत स्तर पर भी कहा था मेल न भेजने के लिए - बस इसीलिए मैंने धर्मेन्द्र भाई वाली पोस्ट से मेल भेजना बंद कर दिया| वैसे छन्द प्रेमी इस मंच पर यदा कदा आते रहते हैं, तो मैं आश्वस्त भी था कि वो आयेंगे और अपने सुविचार भी रखेंगे| खैर, अब कलाकार के परिश्रम का सम्मान होते देख अच्छा लग रहा है|

    जवाब देंहटाएं
  19. आ. मयंक जी की गज़लें कई बार पढ़ी हैं,गुनगुनायी हैं , जाहिर है की वो दिलकश होती हैं | यहाँ उनके द्वारा रचित पारंपरिक
    छंद पढ़कर मन भाव विभोर हो गया | एक एक छंद कई कई बार पढ़ा | क्या बात है !!! आपकी शब्दों की समझ , शिल्प , भाव सब बेजोड़ हैं|

    [मेरी प्रणय प्रस्तावना का -- कुछ हुआ प्रतिरोध भी।
    जब मैं विमुख होने लगा तो -- फिर हुआ अनुरोध भी।।
    गतिशील करने को उठाये -- एक दो गतिरोध भी।
    पर चल रहा था साथ में ही -- कनखियों से शोध भी।१।]

    ज़िन्दगी का सार निचोड़ के रख दिया ! पहले प्रतिरोध ,अनुरोध और गतिरोधों के बावजूद भी "कनखियों से शोध" का जवाब नहीं

    [आघात से टूटा नहीं जो -- ये वही अरमान है।
    है इश्क का सीमेण्ट इस पर --और इसमे "जान" है।।
    किसके लिये पागल हुये हम --ये सभी को ज्ञान है।
    सारा ज़माना जानता है --बस वही अनजान है।२।]

    इश्क के सीमेण्ट में जान है !!!! 'बस वही अनजान है' का दर्द हर कोई नहीं समझ पायेगा !!! बेजोड़ है

    [इस रूप की संकल्पना पर --ये जहाँ कुर्बान है।
    छत्तीस -चौबिस और छत्तिस -- आजकल प्रतिमान है।।
    इक नायिका है अंक शायी --दूसरी में ध्यान है।
    आश्वस्त हैं दोनो कि उनका --बालमा नादान है।३।]

    वाह !! क्या सीन है !!!!!

    [हे देवकीनन्दन कन्हैया --तुम अहर्निश प्यार हो।
    धड़कन तुम्ही हो इस जगत की -- चेतना के सार हो।।
    युगधर्म की स्थापना हित -- धर्म के अवतार हो।
    गीता प्रणेता तुम हमारे -- आइनाबरदार हो।४।]

    वाह ! वाह !!! कृष्णं वन्दे जगत गुरुम :

    [अर्जुन विदुर के वासते तुम -- दिव्य पथ के द्वार हो।
    हर कंस का संहार करती -- आतिशी तलवार हो।।
    इस वेदनामय विश्व में तुम -- सत्य के आधार हो।
    हैं बिम्ब ,भंगुर - भ्रांतिमय सब -- तुम अमर किरदार हो।५।]

    जाकी रही भावना जैसी !!!!!!!

    [तुम राधिका के मीत मोहन -- रुक्मिणी के हार हो।
    सब गोपियाँ ये जानती हैं -- प्रेम के दरबार हो।
    तुम पाण्डवो की विजयगाथा -- कौरवों की हार हो।
    तुम आसुरी तमवृत्तियों पर -- सत्य का अधिकार हो।६।]

    अहा हा हा हा हा !!! एक ओर प्रीतम तो दूसरी ओर युद्ध नीतिज्ञ !!!!

    [तुम निकट होकर भी परात्पर -- रूप अपरम्पार हो।
    चिर दिव्य लोकों के लिये भी -- दिव्यतम संसार हो।।
    है कामना, “ माधव “ तुम्हारा -- हर घडी दीदार हो।
    सब वेदना मिट जायँ मेरी -- ज़िन्दगी त्यौहार हो।७।]

    सत्य वचन !!!!!

    [है संशयों की अग्नि सीते -- औ गुज़रना है तुझे।
    निष्कलुष कुन्दन कांति जैसा -- अब निखरना है तुझे।।
    हे सूर्यवंशी सूर्य, राघव -- ध्यान धरना है तुझे।
    इक शाम सरयू में स्वयं को -- होम करना है तुझे।८।]

    वाह !! वाह !! वाह !! कसौटियों की सर्वभौमिकता !!! सुन्दर बिम्ब !!!!!

    शेखर चतुर्वेदी
    सुधाकर साहित्य
    http://sahitya-varidhi-sudhakar.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  20. नवीन भाई !!
    पहले मुझे भी इस बात पर संशय था कि शायद पोस्ट इस लायक नहीं है कि ध्यान आकृष्ट कर सके –लेकिन योगराज भाई की टिप्पणी और इसके बाद अन्य मित्रों के उत्साह वर्धक बयान आश्वस्त कर गये कि नहीं ऐसा नहीं है ! मेरे परिचित आपके ब्लाग पर कुछ लोग हैं जिनमे से कुछ ने समयाभाव के कारण और कुछ ने व्यक्तिगत पूर्वाग्रह के कारण इस पोस्ट को नहीं अटेण्ड किया – इनके न आने का स्वागत है !!!
    आपका सहयोग –रेखाँकित करना मेरा धर्म है –साहित्य और साहित्यकार के प्रति दोनो के प्रति यह नैतिक दायित्व है – आपने ही छन्द विन्यास को 14-14 को 16-12 में तब्दील करने को कहा !! आपने ही अनुरोध वाले छन्द में स्थायी शब्द –भी का सुझाव दिया और नायिका को पसम्ंज़र में रख कर डाक्यूमेण्ट्री शैली मे छन्द बदलवाया । “ ध्यान धरना है तुझे “ –बाकायदा पूरी पंक्ति आपकी ही है और –इसके अलावा आपका सम्पादक और निर्देशक इस पोस्ट में पूरे तौर पर शुमार है –जिसका ज़िक्र करना बहुत आवश्यक है –क्योकि यह सिध्धांत की बात है –यह मेरे जीवन की पहली पोस्ट है जिसमें मैने किसी सुझाव को शरीक किया है ।
    साहित्य मूलत: व्यक्तिगत स्रजन है –लेकिन अगर यह पारस्परिक और सामूहिक निष्पक्ति है –तो उसका ज़िक्र ज़रूर किया जाना चाहिये और जो जितने श्रेय का हकदार है –उसको वह मिलना ही चाहिये ।
    इन छन्दो मे आपका आग्रह और सहयोग दोनो ने मिल कर इस पोस्ट को यह रूप दिया है –इसलिये इस बात को कहना ज़रूरी था ।
    एक बार पुन: उन सभी का कोटिश: आभार जिन्होंने इस पोस्ट पर आ कर मेरा उत्साहवर्धन किया !!

    जवाब देंहटाएं
  21. हमारे यहां कहा जाता है कि ऊंट के चरने के बाद बकरियों के चरने के लिए कुछ नहीं बचता । :)
    कुछ वैसी ही स्थिति यहां भी है …
    छंद के सशक्त हस्ताक्षर योगराज प्रभाकर जी जैसे मूर्धन्य विद्वान के कह चुकने के बाद कुछ कहने को अधिक शेष नहीं रह जाता …
    फिर भी हरिगीतिका छंद की इस मनभावन शृंखला में मयंक अवस्थी जी के छंद पढ़कर मन आनंदित हो गया । मयंक अवस्थी जी को पहली बार ही पढ़ने का अवसर मिला …
    पहले वनडे में ही सेंचुरी वाली स्थिति है ।
    बधाई ! बधाई ! बधाई !

    अति श्रेष्ठ ! अद्भुत ! सरस ! सुंदर ! भा गई , मन को जची !
    मन मोह ले , हरिगीतिका हर आपने ऐसी रची !
    रस भाव भाषा शिल्प से अति धूम-हलचल-सी मची !
    कह कर ‘प्रभाकर जी’ गए सब …बात ही अब क्या बची ?


    सभी आठों हरिगीतिकाएं एक से बढ़कर एक हैं । खड़ी बोली के साथ उर्दू शब्दों का सामंजस्य किसी को अटपटा तो किसी को अद्भुत लग सकता है … सबका सोचने का अपना तरीका होता है ।

    बहुत प्रभावशाली सृजन के लिए पुनः बधाई और साधुवाद के साथ मन की एक-दो बात -

    # युगधर्म की स्थापना हित -- धर्म के अवतार हो।
    …सोच रहा हूं , बाल की खाल निकाल देने वाले प्रियवर नवीन जी से यह चूक कैसे हुई :)
    स्थापना के आधे के लिए दो-दो मात्राएं गिनें , स्थापना को थापना कहने के स्थान पर ‘इसथापना’ कहें , …तब जा’कर छंद का यह चरण पूर्ण मात्रा में आता है ।
    # ‘चौबिस और छत्तिस’ यहां मात्राओं की अशुद्धि स्वीकार्य है क्या ?
    अन्य गुणीजन या नवीनजी ही बेहतर बता सकते हैं ।

    # आसुरी तमवृत्तियों पर सत्य का अधिकार = ?
    ‘कैसी भी वृत्ति पर सच/झूठ का अधिकार’ आशय स्पष्ट नहीं हो रहा…

    # हे सूर्यवंशी सूर्य, राघव , ध्यान धरना है तुझे
    हे सूर्यवंशी सूर्य, राघव !
    ‘हे’ भव्यता-दिव्यता समाहित किए हुए एक बहुत उच्चकोटि का संबोधन है … ‘ध्यान धरना है तुझे’ किसी सेवक अथवा अपने से बहुत छोटे को कोई आदेश देने जैसा प्रतीत होने के कारण इसके साथ उपयुक्त नहीं लग रहा ।
    इस छंद में चारों जगह तुझे के स्थान पर तुम्हें लिखा जाता तो संवाद का गरिमामय स्वरूप दृष्टिगत होता ।

    बस !
    मैंने पांडित्य-पुरोहिताई के लिए नहीं , मंच को अपना घर और सबको अपना स्वजन मानने के कारण ही मन की बात कही है …
    अन्यथा न लीजिएगा …
    बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  22. …और हां , अभी कुछ सामाजिक दायित्व ऐसे आए हुए हैं कि आपकी पोस्ट पर गंभीरता से लिखने का पर्याप्त समय ही नहीं निकाल पा रहा था … रात भर जाग कर यह सब लिखा है :)
    …और दूसरी बात ,
    मयंक जी मैं आपको कुछ ऐसे ब्लॉग्स के लिंक भी दे सकता हूं जहां हर पोस्ट पर 80-90 से 100-125 कमेंट मिल जाएंगे … लेकिन आप-हम जैसे गुणवत्ता के तलबगार के लिए उनकी एक पोस्ट पर कमेंट भी भारी धर्मसंकट का काम हो जाता है ; पढ़ना तो किसी हाल में संभव भी न होगा … :))

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  23. आदरणीय राजेन्द्र भाई !! बहुत बहुत धन्यवाद !! खरी और सटीक समीक्षा के लिये और आपने बहुत समय दिया इस पोस्ट के लिये जो कि सामान्यत्:कुशादादिल लोग ही दूसरों की रचनाओं पर देते हैं --ह्रदय से आभार!!!!--कुछ स्पष्टीकरण --- चौबिस और छत्तिस=दोनो उच्चारण के आधार पर इस्तेमाल किये गये जैसे " बहन" शब्द सही है लेकिन बहिन और बहना लोकप्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद अब कविता में इस्तेमाल किये जाते हैं इसलिये प्रयोग किये हैं --दूसरी बात स्थापना --लिखने और उच्चारण में भेद के कारण प्र युक्त हुआ है ---लेकिन दोनो स्थानो पर आपकी बात जाइज है !! और स्वीकार है --ऐसा नहीं कि लिखते समय ये ध्यान नही दिया --परंतु यह महसूस करने के बाद कि काव्य का सातत्य यहाँ खण्डित नहीं हो रहा इन शब्दों प्रयोग किया गया --फिर भी दोनो स्थानो पर आपकी आपत्ति से मै सहमत हूँ और स्थापना शब्द के विकल्प है आराधना --सम्भावना -- प्रस्तावना आदि स्थापना श्रेष्ठतम शब्द था । उर्दू शब्दों के प्रयोग पर कोई असहमति नहीं होनी चाहिये --आदरणीय विनोद अग्रवाल जी बेशतर भजन ऐसे गाते है जिनमें खूब उर्दू होती है । और मैं ग़ज़ल के क्षेत्र में मूलत: सक्रिय हूँ इसलिये भी उर्दू शब्द आना बहुत सहज बात है ।
    आसुरी तमवृत्तियों --बिल्कुल स्पष्ट है यहाँ -यदा यदा हि धर्मस्य और परित्राणाय साधूनाम विनाश्याय च दुष्क्रताम ..... वाली बात है --कुछ भी अस्पष्ट नहीं है ।
    सीता ने " तुझे" शब्द इसलिये इस्तेमाल किया है कि --यह परिवर्तित जीवन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में नारी उत्पीड़न के विरोध का स्वर है और अतिरंजित महिमामंडित चरित्रों की नियतिजन्य भवितव्यता का उससे सम्बन्ध है --इसीलिये हे सूर्यवंशी सूर्य, राघव!! के साथ -तुझे- का सम्बोधन है !! हज़रत !! और गुरु शब्द आज अपना वकार खो रहे हैं -कारण !! किरदार वो नहीं रहे जैसे होते थे !!
    आप मुझे पहली बार पढ रहे हैं !! कारण !! मैंने एक लम्बे अंतराल की अनुपस्थिति के बाद इधर पुन:कुछ लिखना आरम्भ किया है और ग़ज़ल के क्षेत्र में ही मूलत: सक्रिय हूँ 10-12 बरस पहले से जो लोग गज़ल के क्षेत्र में अदबी रिसालों में शिरकत करते थे वो मुझसे परिचित हैं कवितायें मैने श्री राम अधीर जी की संकल्प- रथ पत्रिका के लिये बहुत लिखीं --लेकिन सम्भावना यही है कि आज से 8-10 बरस पहले की उन अनेक मैगज़ीनो में से कोई भी आपकी नज़र से न गुज़री हो इसलिये आप मुझे पहली बार पढ रहे है ।
    इस प्रकार की ईमानदार टिप्पणियों का तहे दिल से स्वागत है ! बहुत बहुत धन्यवाद राजेन्द्र भाई !!!

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  24. सम्माननीय मयंक जी
    आप मेरी बातों से सहमत हुए , नहीं हुए …यह इतना महत्वपूर्ण नहीं ।
    महत्वपूर्ण यह है कि आपने सब कुछ सहजता से लिया …
    मैं कुछ भी दोहराऊंगा नहीं … अब नवीन जी की बारी है :)

    आपके बारे में बातचीत होते समय मैंने नवीन जी से कहा भी था कि मयंक अवस्थी नाम अपरिचित भी नहीं लग रहा और स्मरण भी नहीं हो रहा कि कहीं पढ़ा है क्या ! … :)
    आपका परिचय मिला , नवीन जी ने पहले भी आपकी ग़ज़लें छापी हैं ।
    एक गुणी रचनाकार को कुछ और अधिक जान पाया … मेरा सौभाग्य !
    आपने संकल्प रथ का ज़िक्र किया … सच , वहां छपना ही रचना की श्रेष्ठता का प्रमाण होता था ( अब भी होता ही होगा … ) राम अधीर जी का संपादन अपने आप में एक ही मिसाल है । मेरा दो-चार बार उनसे संवाद भी हुआ था । वे कहा करते थे कि- ‘कोई संकल्प रथ का सदस्य होने के नाते रचना छापने का अनुरोध भी करे तो मैं उसको शुल्क लौटा देता हूं ।’
    मैं पचासों पत्र-पत्रिकाओं में उलझा रहने के कारण संकल्प रथ का नियमित पाठक/रचनाकार नहीं रह पाया … फिर भी , दो-एक गीत अवश्य छपे मेरे भी ।



    # नवीन जी
    मेरा एक निम्नांकित कमेंट मिट कैसे गया ?
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    …और हां , अभी कुछ सामाजिक दायित्व ऐसे आए हुए हैं कि आपकी पोस्ट पर गंभीरता से लिखने का पर्याप्त समय ही नहीं निकाल पा रहा था … रात भर जाग कर यह सब लिखा है :)
    …और दूसरी बात ,
    मयंक जी
    मैं आपको कुछ ऐसे ब्लॉग्स के लिंक भी दे सकता हूं जहां हर पोस्ट पर 80-90 से 100-125 कमेंट मिल जाएंगे … लेकिन आप-हम जैसे गुणवत्ता के तलबगार के लिए उनकी एक पोस्ट पर कमेंट भी भारी धर्मसंकट का काम हो जाता है ; पढ़ना तो किसी हाल में संभव भी न होगा … :))
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  25. राजेन्द्र भाई !! बहुत धन्यवाद !!अब काफी समय हो चुका है जब मैं मैगज़ींस में शिरकत करता था बहुत जगह रचनायें प्रकाशित हुयीं 150 के करीब -लेकिन एक ही मगज़ीन quotable है --वह है मुहत्तरम तुफैल चतुर्वेदी साहब की "लफ़्ज़" --जिसमें मेरी अनेक गज़लें कुल मिला कर 1999- से 2005 तक प्रकाशित हुयीं --इस मैगज़ीन का सम्मान है--मैने भी 2005 के बाद लिखना बन्द कर दिया था निजी कारणो से -- मैने भी सन 1999 मे एक गज़ल संकलन --तस्वीरें पानी पर --प्रकाशित करवाया था जो कि कामयाब रहा था । लेकिन मैगज़ीन में छ्पना कोई मानदण्ड नहीं है --आज भी मैं कसौटी इसी को मानता हूँ कि गज़लकार या रचनाकार वही है जिसको सन्दर्भ दिया जाय और वो अपने स्थापित मेयार पर फौरन कुछ लिख कर दिखाये --जो चित्रकार होगा वो रंग और तूलिका मिलने पर कुछ तो बनायेगा ही जिससे उसकी सामर्थ्य का कुछ आभास तो होगा ही --इसलिये दिये गये परिचय और असली परिचय में भेद होता है -- मैं अतीत का हवाला देने के बजाय इस बात में विश्वास रखता हूँ -कि साहित्यकार अपनी , भाषा -अभिव्यक्ति और वैचारिकता का परिचय देता चलता है अपने हर शब्द के साथ --इसलिये दस्तावेज़ महत्वपूर्ण नहीं हैं --असली चीज़ यही है कि जहाँ भी आप कुछ लिख रहे हैं वो आपका परिचय ही है -- नेट ने एक सुविधा उपलब्ध कर दी कि ये एक negotiable trading platform बन गया जहाँ आप तत्काल अपनी बात लिख सकते हैं -- मुझे भी ,जिन groups मे मैं सक्रिय हूँ वहाँ हर पोस्ट पर 125-150 कमेण्ट्स मिलते हैं और सभी सकारात्मक होते हैं- उनके पीछे एक आध बरस की पहचान का भी योगदान है ।
    ब्लागस बहुत हैं --लेकिन नौकरीपेशा व्यक्ति हूँ और समय का संकट हमेशा रहता है -इसलिये बहुत कम शरीक हो पाता हूँ -- किसी से पोस्ट अटेण्ड न करने की शिकायत नहीं है। लेकिन एक्बात जो कह देना उचित है -- मेरी ज़िन्दगी में 15-20 लोग ऐसे भी आये जिनकी रचनायें मैं बेहतर बना सकता था --उनको मैने नि:स्वार्थ भाव से यह लाभ दिया और उनकी हैसियत में इज़ाफा भी हुआ -लेकिन सार्वजनिक मंचों पर उनमें से कुछ लोग कुछ ऐसा आचरण करते हैं जैसे कि मुझसे परिचित नहीं हैं । ऐसे एक सज्जन इस ब्लाग पर भी हैं -और उनके लिये ही यह टिप्पणी थी- अन्य किसी के लिये नहीं -उनकी तटस्थता का कारण यह है कि अब सुविधा उन्हें मुझ से नहीं मिल रही । जो लोग साहित्य में लम्बे अर्से से सक्रिय हैं वह मेरे नाम से परिचित हैं -पुराने ग़ज़लकार लगभग सभी अच्छे परिचित हैं । नवीन जी मेरे मित्र हैं और उनके साथ सदैव हूँ !! आप गज़ल विधा में रुचि रखते हों और समय हो तो मुझे ई -मेल दीजियेगा --रचना मुझे बेहतर परिभाषित करेगी !
    आपने इस पोस्ट को इतना समय दिया --इसके लिये मैं बहुत आभारी हूँ ।

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  26. नमन करता हूँ मयंक जी का जिस तरह इन छंदों पर लेखनी चलाई है उन्होंने। एक एक छंद सर चढ़कर बोल रहा है। ये तो सँजोकर रखने वाली पोस्ट है। मयंक जी को कोटिशः बधाई

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  27. धर्मेन्द्र साहब !! सादर नमन !! मैं आपके शब्दों से अभिभूत हूँ -- आप जैसे समर्थ साहित्यकार से इतना प्रेरणादायी प्रोत्साहन पने के बाद मेरा बहुत आत्म विश्वास बढा है और आपकी उपस्थिति ने इस् पोस्ट को गौरवांवित किया है । शत शत आभार !!

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  28. आदरणीय मयंक जी की हरिगितिकाएं तो मनमोहक हैं ही....
    इस पर विद्वानों की बहुमूल्य समीक्षा पढ़ना.... आहा!!! अत्यंत बहुमूल्य चर्चा हो रही है यहाँ पर....
    आदरणीय मयंक जी और समस्त गुणीजनों सहित आदरणीय नवीन भाई आपको सादर बधाई इस अमुल्य प्रस्तुति के लिये...

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  29. आदरणीय संजय मिश्रा हबीब !!साहब!! अनुग्रहीत हूँ !! किसी की भी रचना पढते समय हम अपना समय उसको देते हैं और समय सबसे बड़ी निधि होती है !! जब हम उस रचना पर टिप्पणी लिखते हैं तो दिलो-ज़ेहन को और उंगलियों को जुम्बिश देते हैं --इस कसरत में हमारी ऊर्जा सन्निहित है -- मैं कमेण्ट लिखने वालों का ह्रदय से आभारी हूँ --आपका इसलिये और भी आभारी हूँ कि आपने पहले भी इसी ब्लाग पर मेरी गज़लों पर मेरी हौसला अफ्ज़ई की थी और तब मेरे पास इस ब्लाग की नेट access नहीं थी । मेरा शत शत आभार स्वीकार करें !!!

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