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बोनसाई / Bonsai Tree |
मैं वज्ह पूछ ही न सका बेवफ़ाई की
थी रस्म आज उस के यहाँ मुँह-दिखाई की
क़ातिल बता रहा है नज़र है क़ुसूरवार
किस वासते है उस को ज़ुरूरत सफ़ाई की
हर ज़ख्म भर चुका है मुहब्बत की चोट का
मिटती नहीं है पीर मगर जग-हँसाई की
पहले तो दिल ने आँखों को सपने दिखाये थे
फिर हसरतों ने दिल की मुसीबत सवाई की
बहती हवाओ तुमसे गुजारिश है बस यही
इक बार फिर सुना दो बँसुरिया कन्हाई की
छोटे से एक पौधे का रुतबा दरख़्त सा
इनसाँ की ज़िन्दगी है कथा बोनसाई की
इल्मोहुनर को ले के वो जायें भी तो कहाँ
इस दौर में है माँग पढ़ाई-लिखाई की
उन को तो बस कमाना है तस्वीर बेच कर
तस्वीर हो फ़क़ीर की या आतताई की
मेरे बयान दौर की मुश्किल का हैं सबब
इनमें तलाशिये न झलक पंडिताई की
मखमल का बिस्तरा भी लगे है अज़ीब सा
जब याद आये गाँव-गली-चारपाई की
: नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे
मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ
मफ़ऊलु
फ़ाएलातु मुफ़ाईलु फ़ाएलुन
२२१ २१२१
१२२१ २१२
उन को तो बस कमाना है तस्वीर बेच कर
जवाब देंहटाएंतस्वीर हो फ़क़ीर की या आतताई की
बाजारवाद पर अच्छा व्यंग्य
छोटे से एक पौधे का रुतबा दरख़्त सा
इनसाँ की ज़िन्दगी है कथा बोनसाई की
बहुत सही कहा आपने
छोटे में सबकुछ सिमटा है..
जवाब देंहटाएंवाह....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....
हर रंग के..हर ढंग के शेर...
लाजवाब..
सादर
अनु
जवाब देंहटाएंछोटे से एक पौधे का रुतबा दरख़्त सा
इनसाँ की ज़िन्दगी है कथा बोनसाई की... वाह
बहुत बहुत बधाई, खूबसूरत ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सामयिक अशआर...उम्दा ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंआखिरी शेर ने तो मोह लिया नवीन भाईजी. और बोनसाई का क्या ही सुन्दर प्रयोग हुआ है.. ! हृदय से बधाई कह रहा हूँ.
जवाब देंहटाएं--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंएक लम्बे अंतराल के बाद कृपया इसे भी देखें-
जमाने के नख़रे उठाया करो