
मयकदे में कदम नहीं आते
कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते
आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते
कोइ फिर भूखा सो गया होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते
प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते
कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते
धर्मेन्द्र कुमार सज्जन का कल्पना लोक
तिलक राज जी का बहुत बहुत शुक्रिया और मेरी ग़ज़ल को इस मंच पर स्थान देने के लिए नवीन भाई को कोटिशः धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंkhoobsoorat ghazal ke liye badhai
जवाब देंहटाएंइन दो अशारों ने मन मोह लिया भाई धर्मेन्द्रजी.
जवाब देंहटाएं//प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते//
सही है भाईजी, प्रेम ही अबसे बड़ा दायित्त्व निर्धारक है जिसके लिये धर्म एक व्यक्ति को तत्पर रहने ई बात करता है. इन उला और सानी पर बकायदा आलेख लिखा जा सकता है. मैं आपका सादर अभिनन्दन करता हूँ.
//कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते//
वाह-वाह ! यदि घर में ही न होती मतिर्भिन्नता और न होता परस्पर क्लेष तो फिर सारा कुछ सँवरा हुआ ही था न ?!
सादर
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उ.प्र.)