प्रयास - लफ़्ज़

प्रयास



 पिछले कुछ बरसों से देवनागरी मे ग़ज़ल का जल्वा जिस रफ्तार से बढा है वो अदबी हल्को मे तअज़्ज़ुब और कौतूहल का विषय है। किसी भी विधा का रचनाधर्मी ग़ज़ल ज़रूर कहना चाह्ता है जिसके कारण स्पष्ट हैं – ग़ज़ल महज एक ख्याल पर केन्द्रित बयान नहीं देती –ये एक ही माला मे अनेक विचारों के मोती पिरोने का काम है। इसलिये फार्मेट मे अभिव्यक्ति के बेशुमार आयाम हैं –इसका दूसरा पहलू ये भी है कि ग़ज़ल कहना आसान नहीं है !! काव्य सृजन की कितनी भी नैसर्गिक क्षमता आपके पास क्यों न हो गज़ल कहने के लिये आपको मशक्कत करनी ही पडेगी। ख़ैर यहाँ गज़ल के वैभव की तफ़्सील से व्याख्या करना मकसद नही है। बात जहाँ से शुरूअ हुई है वही से आगे बढाई जाय –कि देवनागरी लिपि मे गज़ल आज की तारीख़ मे बेहद लोकप्रिय है। जिसका कारण अगर तलाश किया जाय तो बहुत विवाद नही करना पडेगा।

देवनागरी मे ग़ज़ल बलबीर सिंह "रंग" ने कही दुष्यंत कुमार ने कही , शबाब मेरठी ने कही , सूर्यभानु गुप्त ने कही ज़हीर कुरेशी ने कही और अनेक अनाम लोगों का भी इसमे योगदान रहा –लेकिन इस लिपि में ग़ज़ल का दबदबा तभी काइम हो सका जब तुफैल साहब ने अपनी पत्रिका रस-रंग आरम्भ की।"रस-रंग" पहले वार्षिक फिर अर्धवार्षिक प्रकाशित होती थी। अपने पहले ही अंक के साथ ऐसा लगा कि "रस-रंग" कौमी यकज़हती और सुलहेकुल का एक विशाल मंच है ऐसा लगा कि उर्दू –हिन्दी को संवाद का एक मजबूत सेतु मिल गया है। दूसरे अंक के बाद ही इस पत्रिका ने अपनी अन्य समकालीन सभी पत्रिकाओं को मीलों पीछे छोड दिया और खुद अपना मानदण्ड बन गई। बहस इस बात पर नही होती थी कि कौन पत्रिका ग़ज़ल की सरताज पत्रिका है बहस इस पर होती थी कि रस रंग का फलाँ अंक सबसे अच्छा है। मोतबर मुकाम पर खडे उर्दू अदीबों को देवनागरी के विशाल पाठक वर्ग तक रसाई का एक सुनहरा मौका मिला और प्रतिभाशाली और युवा संघर्षशील शाइरों को एक खूबसूरत लांचिंग प्लेट्फार्म मिला।

लेकिन खुदगर्ज़ और आत्ममुग्ध कथित शाइरों को एक आइना भी मिला। रस-रंग मे प्रकाशित होने की शर्ते बेहद आसान और बेहद कडी थीं। आसान यूँ कि आपको निजी परिचय की आवश्यकता नही, कडी इसलिये कि ग़ज़ल को प्रकाशित होने से पूर्व "तुफैल" नामक आइनेखाने से गुज़रना होता था। इस पत्रिका की लोकप्रियता ऐसी बढी कि सन 2004 से इसे त्रैमासिक कर दिया गया और इसका नाम "लफ़्ज़" हो गया। लफ़्ज़ के अंक ग़ज़ल के सफर मे मील के पत्थर हैं।"लफ़्ज़" के बारे में कुछ बाते सर्वमान्य हैं --

देवनागरी लिपि मे ये ग़ज़ल की एकमात्र पत्रिका है जिसे हिन्दी वाले ही नहीं उर्दू वाले भी उर्दू पत्रिकाओं से ऊपर रेट करते हैं।

लफ़्ज़ मे प्रकाशित ग़ज़ल विश्वसनीयता और मेयार की बुलन्दी छपने के साथ ही हासिल कर लेती है।

लफ़्ज़ का सम्पादकीय बहरे बेकराँ जैसा  होता है जिसका वैचारिक पक्ष ज़बर्दस्त हलचल पैदा करता है।

लफ़्ज़ एक पत्रिका भर नही , एक परचम , एक तरकश , एक आन्दोलन भी है जिसने समकालीन साहित्यिक जगत के इलीट क्लास को वस्तुत: सम्मोहित  कर रखा है।

तुफैल साहब आज के साहित्यकार की सोई हुई चेतना को जगाना जानते हैं। प्रसंगवश एक बार उन्होने अपने सम्पादकीय मे एक शेर फिराक़ के नाम से क़्वोट कर दिया –लेकिन अगले अंक मे उन्होने बाखबर साहित्यकारों के बेखबरी की खासी खबर ली कि "भई !! क्यों आप लोग शेर और शाइर की निशानदेही करने से चूक गये"। ऐसे साहित्यिक परिहास वो अक्सर करते हैं –लेकिन वो हर कदम साहित्य की सम्रद्धि के लिये ही उठाते हैं।         

इसलिये कोई ताअज़्ज़ुब नही कि मुज़फ्फर हनफी, राजेन्द्र नाथ रहबर, मुनव्वर राअना जैसे वरिष्ठ और प्रतिष्ठित अदीबों ने लफ़्ज़ मे अपने लिये लिखे गये बयानात को लम्बी जद्दोजहद के बाद अन्तत: स्वीकार किया। लफ़्ज़ मे ग़ज़ल और व्यंग्य आलेख प्रकाशित किये जाते हैं। व्यंग्य के मामले में पत्रिका बडा दावा नही करती।लेकिन ग़ज़ल के मुआमले मे भी यह पत्रिका बडा दावा इसलिये नहीं करती कि इसे चुनौती देने वाला कोई है ही नहीं।

जनवरी 2012 से लफ़्ज़ की वेवसाइट आरम्भ की गई जिसमे गज़लें प्रकाशित की जाती हैं। और तरही मुशायरे आयोजित किये जाते हैं!! फेसबुक जैसे ख्यातिलब्ध पोर्टलो के मुकाबले भी लफ़्ज़ की तरही नशिस्त एक विशेष आकर्षण रखती है।लफ़्ज़ के प्रशंसको को इसके पुराने अंक इस वेवसाइट पर उपलब्ध हैं।

कामना यही है कि इस पत्रिका का अखण्ड गौरव बना रहे और बढता रहे।




:- मयङ्क अवस्थी 

ग़ज़लें - मयङ्क अवस्थी


ख़ुश्क आँखों से कोई प्यास न जोड़ी हमने

आस हमसे जो सराबों को थी, तोड़ी हमने

 

हमने पाया है शरर अपने  लहू में हरदम

अपनी दुखती हुयी रग जब भी निचोड़ी हमने

 

जो सँवरने को किसी तौर भी राज़ी न हुई

भाड़ में फेंक दी दुनिया वो निगोड़ी हमने

 

इस तरह हमने समन्दर को पिलाया पानी

अपनी कश्ती किसी साहिल पे न मोड़ी हमने

 

जब कोई चाँद मिला दाग़ न देखे उसके

आँख सूरज से मिलाकर न सिकोड़ी हमने

 

ग़र्द ग़ैरत के बदन पर जो नज़र आयी कभी

तब तो तादेर , अना अपनी झिंझोड़ी हमने

 

 

 

क़ैदे-  शबे-  हयात बदन में गुज़ार के

उड़ जाऊँगा मैं सुबह अज़ीयत उतार के

 

इक धूप ज़िन्दगी को यूँ सहरा बना गयी

आये न इस उजाड़ में मौसम बहार के

 

ये बेगुनाह शम्म: जलेगी तमाम रात

उसके लबों से छू गये थे लब शरार के

 

सीलन को राह मिल गयी दीमक को सैरगाह

अंजाम देख लीजिये घर की दरार के

 

सजती नहीं है तुमपे ये तहज़ीब मग़रिबी

इक तो फटे लिबास हैं वो भी उधार के

 

बादल नहीं हुज़ूर ये आँधी है आग की

आँखो से देखिये ज़रा चश्मा उतार के

 

 

 

बिखर जाये न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक

ये आँखें बुझ न जायें ख़्वाब की ताबीर होने तक

 

चलाये जा अभी तेशा कलम का कोहे –ज़ुल्मत पर

सियाही वक़्त भी  लेती है  जू-ए-शीर होने तक

 

इसी ख़ातिर मेरे अशआर अब तक डायरी में हैं

किसी  आलम में जी लेंगे ये आलमगीर होने तक

 

तेरे आग़ाज़ से पहले यहाँ जुगनू चमकते थे

ये बस्ती मुफ़लिसों की थी तेरी जागीर होने तक

 

मुझे तंज़ो-मलामत की बड़ी दरकार है यूँ भी

अना को सान भी तो चाहिये शमशीर होने तक

 

मुहब्बत आखिरश ले आयी है इक बन्द कमरे में

तेरी तस्वीर अब देखूँगा खुद तस्वीर होने तक

व्यक्तित्व - फलक पर नूर का शजरा –"तुफैल चतुर्वेदी"

फलक पर नूर का शजरा –"तुफैल चतुर्वेदी"

एक स्केच : मयङ्क अवस्थी

 

देवनागरी लिपि मे ग़ज़ल की लोकप्रियता चार नामो की कृतज्ञ है –पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय –सरदार बलवंत सिंह यानी प्रकाश पण्डित –नरेन्द्र नाथ और जिनके बारे मे हम आगे बात कर्ंगे –यानी जनाब मुहत्तरम तुफैल चतुर्वेदी जिनका पूरा नाम विनय कृष्ण  चतुर्वेदी तख़्ल्लुस "तुफैल" है और यह नाम आज गज़ल के दयार मे प्रेम, प्रशंसा, ,भय ,आतंक और अन्य मानस के संचारी भावों के साथ लिया जाता है जिसमे सबसे ऊपर का भाव आदर का भाव है – एक ऐसा व्यक्ति जिसकी ग़ज़ल कहने और समझने की प्रतिभा निर्विवाद श्रेष्ठतम की श्रेणी मे आती है –जो देवनागरी की सबसे दमदार और सबसे प्रशंसित ग़ज़ल पत्रिका लफ़्ज़ के सर्वेसर्वा हैं और जिनकी आवाज़ अदब के बेशुमार शोर गुल मे भी चुप रह कर सुनी जाती है।

 

पहले नैनीताल और अब ऊधमसिंह नगर की काशीपुर स्टेट के कुलदीपक "तुफैल साहब"चाँदी का चम्मच मुँह मे ले कर पैदा हुये और महज 18 बरस की उम्र मे फकीरी ले कर आध्यात्मिक यात्रा पर  निकल गये –लेकिन ग़ज़ल विधा को अपना सबसे बडा पैरोकार और नुमाइन्दा मिलना था इसलिये मरहूम कृष्ण बिहारी नूर के शाइरी के घराने मे अदब के इस  चश्मो चराग़ की तर्बीयत और परवरिश हुई और बाद मे यही नाम हजारो गज़ल पसन्द  करने वालो और सीखने वालो के लिये परस्तिश और प्रशंसा का सबब बन गया।

 

अमरीका हो या पाकिस्तान , तुफैल साहब जहाँ भी गये हैं वहाँ के अदबी हल्कों और समाचार पत्रों ने उन्हें हाथों हाथ लिया है।तुफैल फूलों का गुलदस्ता है -हमारे अहद की सबसे खुश्बूदार आवाज़ के मालिक जैसा कि उनको फोन पर सुन कर आपको महसूस होगा। ये बहत्तर निश्तरों वाले तनक़ीदकार भी हैं जैसा कि अपनी गज़ल उनको सुना कर आपको महसूस होगा। ये पत्थर की निगहबानी मे शीशे की हिफाज़त के पैरोकार हैं। चाहे कराची हो या न्यूयार्क हर जगह उन्होने अपनी अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवाया है। कुल मिला कर जैसे आध्यात्म मे ओशो रजनीश पर प्रतिक्रिया देना इस दौर के हर तालिबे इल्म की मजबूरी है वैसे ही ग़ज़ल के शहर मे तुफैल के परचम को सलाम करना अदीबों की ज़रूरत ही नही मजबूरी भी है। इनके यहाँ अच्छी ग़ज़ल को वृहत्तर क्षितिज दिये जाते हैं –नामचीन होना कोई पाबन्दी नही है लफ़्ज़ मे छपने के लिये सिर्फ ग़ज़ल पाएदार और ऊंचे मेयार की होनी चाहिये । वो सच कहते हैं सिर्फ सच कहते हैं और सच के सिवा और कुछ नही कहते जिसकी तस्दीक़ उनकी ग़ज़ले और उनके सोशल इश्यूज पर दिये गये तमाम बयानात करते हैं।

 

विभाजन के बाद भारत की भाषा हिन्दी उर्दू के संक्रमण काल से भी गुज़री और आज  हिन्दुस्तान मे जिस भाषा मे संवाद किया जाता है उसमे हिन्दी , उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्द बेहद सहज रूप मे शुमार हैं। अब सवाल यह है कि "भाषा बहता नीर" के इस दैनन्दिन परिवर्ती स्वरूप मे साहित्य और समाज के लिये स्वीकार्य अंश की निशानदेही और पैरवी कौन करेगा ?!! तो हिन्दुस्तान के लिये और ग़ज़ल फार्मेट के लिये कौन सी भाषा सटीक और उपयुक्त हो सकती है इसकी मुहर आज तुफैल चतुर्वेदी के पास है। जब भारत पाकिस्तान ग़ज़ल मंच के एक मोतबर शाइर ने मंच पर ये शेर सुनाया –

 

घरों की तर्बियत क्या आ गई टी वी के हाथों मे

कोई बेटा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता

 

तो “बेटा बाप के ऊपर नही जाता”  –के भाषा –दोष पर फौरन आपति करने वाले तुफैल ही थे –भले ही इस पर प्रकरण मे कितना ही  विवाद क्यों न किया गया हो लेकिन इस संवाद मे जीत तुफैल साहब की ही हुई।

 

इसी प्रकार जब बशीर बद्र जैसे वरिष्ठ शाइर ने शेर कहा --

 

गुसलखाना की चिलमन मे पडे किमख़्वाब के पर्दे

नये नोटो की खरखर है पुरानी रेज़गारी मे

 

तो "गुसलखाना" नही सही लफ़्ज़ "गुस्लखाना" है ये कहने वाले पहले पहले शख़्स तुफैल ही थे। भले ही इस आपत्ति पर उनके बरसों के मरासिम शल हो गये –लेकिन भाषा और उसकी पवित्रता पर उन्होने राई रत्ती आँच नही आने दी। साहित्य और ग़ज़ल विधा अंतस की गहराइयों से इस व्यक्ति की कृतज्ञ है।

 

तुफैल चतुर्वेदी छह फुट के 52 बरस के नौजवान हैं, इनके कुर्ते मे सोने के बटन लगते हैं और इनका बयान सोलह सोने का होता है –शकर नहीं खाते लेकिन इसके मआनी ये नही कि उनके लहजे मे शकर नही है – वो बेहद आत्मीयता से किसी के साथ भी संवाद करते हैं –लेकिन उनके आलोचक कहते हैं कि इस व्यक्ति का लहजा करख़्त है और चाल ख़ुस्रवाना है। इसका कारण पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि ग़ज़ल फार्मेट और भाषा के विकास के शिखर पर रह कर वे इसकी नुमाइन्दगी करते हैं।

 

अपने उस्ताद मरहूम जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" के घराने को उन्होने आबाद कर रखा है और इस घराने की चौथी –पांचवी पीढी के शाइर भी आज गज़ल के मंच पर अपना जल्वा बिखेर रहे हैं।

 

जहाँ तक साहित्य सेवा का प्रश्न है उन्होने पाकिस्तान के श्रीलाल शुक्ल जनाब मुश्ताक अहमद यूसुफी साहब के कार्यों का अनुवाद –"खोया पानी" –"मेरे मुँह मे ख़ाक" और "धनयात्रा" बेहद कम समय मे किया और ऐसे समय मे किया जब वो अनेक पारिवारिक उलझनो मे घिरे थे।

 

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तुफैल चतुर्वेदी अपने इस्लामिक कट्टरपंथ के विरोध के कारण एण्टी –हीरो की छवि रखते हैं। "जिहाद" शब्द और कुरआन पाक की आयतों की मनमानी व्याख्या करने वाले इस नाम से खासे आतंकित रहते हैं और उनके बयान को अपने धर्म मे हस्तक्षेप की श्रेणी मे रखते हैं –लेकिन सच यह है कि उनकी निर्विवाद मेधा अकाट्य तर्क शक्ति के सामने सभी बौने साबित होते हैं।

 

शाइर तुफैल के इब्तिदाई दौर से बाबस्ता होने के लिये आपको उनका आज से 22 बरस पुराना संकलन" सारे वरक तुम्हारे" हासिल करना होगा जो किसी भी अच्छे बुक स्टाल पर आज भी आपको आसानी से मिल जायेगा। तब के नौजवान और युवा शाइर की भाषा इतनी सर्वग्राही और साफ सुथरी थी कि तम्हीद लिखते समय विख्यात तनकीदकार गोपीचन्द नारंग भावुक हो गये और उनकी तम्हीद का मर्कज़ इनकी भाषा ही रही। आप भी इन साफ सुथरे , चमकदार और दिल को छू लेने वाले नर्म नाज़ुक अशआर का ज़ायका लीजिये --

 

मेरे पैरों  मे चुभ जायेंगे लेकिन

इस रस्ते के काँटे कम हो जायेंगे

 

जिगर के टुकडे मेरे आँसुओं मे आने लगे

बहाव तेज़ था पुश्ता नदी ने काट दिया

  

हम तो समझे थे कि अब अश्कों की किस्तें चुक गयीं

रात इक तस्वीर ने फिर से तकाज़ा कर दिया

 

ज़रूरत पेश आती दुश्मनी की

तआल्लुक इस कदर गहरा नही था

 

अपना विरसा है ये किरदार, संभाले हुए हैं

इस हवा में हमीं दस्तार संभाले हुए हैं

 

कोई वीराना बसाना तो बहुत आसां था

हम तिरे शहर में घर-बार संभाले हुए हैं

 

तमाम शहर को फूलों से ढँक दिया मैंने

मगर बहार को उसने बहार माना क्या

 

छोड़ देता है दिन किसी सूरत

शाम सीने पे बैठ जाती है

 

दिन नहीं आता मेरी दुनिया में

रात जाती है रात आती है

 

दुनिया तिरे अहसास में नर्मी भी चुभन भी

रस्ते में मिले फूल भी घमसान का रन भी

 

अच्छा है कि कुछ देर मिरी नींद न टूटे

है ख़ाब के आग़ोश में बिस्तर भी बदन भी

 

अदब मे तुफैल साहब की जो हैसियत है उसको एक वाक्य मे यूँ कहा जा सकता है कि  –इस शख़्सीयत को अदब के बेशतर दायरों मे सराहा गया है जो दायरे इनसे तटस्थ हैं वहाँ इनको महसूस किया गया है और जो दायरे हमलावर हैं वहाँ इन्हे बर्दाशत किया गया है।यानी कि अदीबों के प्रतिक्रिया उनकी निजी भावना के अनुसार है लेकिन ऐसा कभी नही हुआ कि कोई इस व्यक्ति के स्पर्श के बाद खुद को प्रतिक्रियाविहीन रख पाया हो। कुल मिला कर तुफैल "जाकी रही भावना जैसी ....." के मानदण्ड पर खरे उतरते हैं।

 

तुफैल साहब मे अना अधिक है या पिन्दार इस पर बहस दीगर है क्योंकि हमारे लिये वो सबसे आदरणीय नामो मे से एक है –लेकिन यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनमे धैर्य स्नेह क्षमता और समर्पण जैसे कमयाब मानवीय गुण औरो से बहुत अधिक हैं और यही कारण है कि अपने विरोधियों की तमाम साजिशों के बावज़ूद ये नाम आज साहित्य के सबसे सशक्त नामो मे से एक है।

हिन्दू जीवन, हिन्दू तन-मन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय – तुफ़ैल चतुर्वेदी

उपनिषद्-पुराण महाभारत वेदामृत पान किया मैंने
अपने पग काल-कंठ पर रख गीता का ज्ञान दिया मैंने
संसार नग्न जब फिरता था आदिम युग में हो कर अविज्ञ
उस काल-खंड का उच्च-भाल मैं आर्य भट्ट सा खगोलज्ञ
पृथ्वी के अन्य भाग का मानव जब कहलाता था वनचर
मैं कालिदास कहलाता था तब मेघदूत की रचना कर
जब त्रस्त व्याधियों से हो कर अगणित जीवन मिट जाते थे
अश्वनि कुमार, धन्वन्तरि, सुश्रुत मेरे सुत कहलाते थे
कल्याण भाव हर मानव का मेरे अंतरमन का किसलय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

मेरी भृकुटि यदि तन जाये तीसरा नेत्र मैं शंकर का
ब्रह्माण्ड कांपता है जिससे वह तांडव हूँ प्रलयंकर का
मैं रक्तबीज शिर-उच्छेदक काली की मुंडमाल हूँ मैं
मैं इंद्रदेव का तीक्ष्ण वज्र चंडी की खड्ग कराल हूँ मैं
मैं चक्र सुदर्शन कान्हा का मैं काल-क्रोध कल्याणी का
महिषासुर के समरांगण में मैं अट्टहास रुद्राणी का
मैं भैरव का भीषण स्वभाव मैं वीरभद्र की क्रोध ज्वाल
असुरों को जीवित निगल गया मैं वह काली का अंतराल
देवों की श्वांसों से गूंजा करता है निश-दिन वह हूँ जय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय



मैं हूँ शिवि-बलि सा दान-शील मैं हरिश्चंद्र सा दृढ-प्रतिज्ञ
मैं भीष्म-कर्ण सा शपथ-धार मैं धर्मराज सा धर्म-विज्ञ
मैं चतुष्नीति में पारंगत मैं यदुनंदन, यदुकुलभूषण
मैंने ही राघव बन मारे मारीच-ताड़का-खर-दूषण
मैं अजय-धनुर्धन अर्जुन हूँ मैं भीम प्रचंड गदाधारी
अभिमन्यु व्यूह-भेदक हूँ मैं भगदत्त समान शूलधारी
मैं नागपंचमी के दिन यदि नागों को दूध पिलाता हूँ
तो आवश्यकता पड़ने पर जनमेजय भी बन जाता हूँ
अब भी अन्याय हुआ यदि तो कर दूंगा धरती शोणितमय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

शत-प्रबल-खड्ग-रव वेगयुक्त आघातों को मैंने झेला
भीषण शूलों की छाया में मेरा जीवन पल-पल खेला
संसार-विजेता की आशा मेरे ही आगे धूल हुई
यवनों की वह अजेय क्षमता मेरे ही पग पर फूल हुई
मेरी अजेय असि की गाथा संवत्सर का क्रम सुना रहा
यवनों पर मेरी विजय-कथा बलिदानों का क्रम बता रहा
पर नहीं उठायी खड्ग कभी मैंने दुर्बल-पीड़ित तन पर
अपने भाले की धार न परखी मैंने आहत जीवन पर
इतिहास साक्षी दुर्ग नहीं, हैं बने ह्रदय मेरा आलय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय

युग-युग से जिसे संजोये हूँ बाप्पा के उर की ज्वाल हूँ मैं
कासिम के सर पर बरसी वह दाहर की खड्ग विशाल हूँ मैं
अस्सी घावों को तन पर ले जो लड़ता है वह शौर्य हूँ मैं
सिल्यूकस को पद-दलित किया जिसने असि से वह मौर्य हूँ मैं
कौटिल्य-ह्रदय की अभिलाषा मैं चन्द्र गुप्त का चन्द्रहास
चमकौर दुर्ग पर चमका था उस वीर युगल का मैं विलास
रण-मत्त शिवा ने किया कभी निश-दिन मेरा रक्ताभिषेक
गोविन्द, हकीकत राय सहित जिस पथ पर पग निकले अनेक
वो ज्वाल आज भी धधक रही है तो इसमें कैसा विस्मय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय


तुफैल चतुर्वेदी

ग़ज़ल - ‘शेफ़ा’ कजगाँवी

बन गया तिश्नालबी की जो निशानी एक दिन
ज़ुल्म की आँखों में भी लाया वो पानी एक दिन

ख़ुश्क लहजा तल्ख़ जुमले और बलन्दी का नशा
पस्तियाँ दिखला न दे ये लन्तरानी एक दिन

जैसे मिट्टी के खिलौने अब नहीं मिलते कहीं
ख़त्म हो जाएँगी लोरी और कहानी एक दिन

ऐसे जज़्बे जो पस-ए-मिजगाँ मचलते रह गये
आँसुओं ने कर दी उन की तर्जुमानी एक दिन

अपनी हर ख़्वाहिश को तुम पामाल कर के चुप रहे
बन न जाये रोग ऐसी बेज़ुबानी एक दिन

ख़त्म कर के हर निशानी ये तहय्या कर लिया
हम भुला देंगे सभी यादें पुरानी एक दिन

बा-रहा अञ्जाम से यूँ बा-ख़बर उस ने किया
दार पर चढ़वा न दे ये हक़-बयानी एक दिन

सोचते हैं तेरे अपने बस तेरे हक़ में ‘शेफ़ा’
दूर कर ले अपनी सारी बदगुमानी एक दिन

शेफ़ा’ कजगाँवी

पहले तो हम को पंख हवा ने लगा दिये - नवीन

पहले तो हम को पंख हवा ने लगा दिये । 
और फिर हमारे पीछे फ़साने लगा दिये ॥ 

तारे बेचारे ख़ुद भी सहर के हैं मुन्तज़िर । 
सूरज ने उगते-उगते ज़माने लगा दिये ॥ 

हँसते हुए लबों पै उदासी उँडेल दी । 
शादी में किसने हिज़्र के गाने लगा दिये ।। 

कुछ यूँ समय की जोत ने रौशन किये दयार । 
हम जैसे बे-ठिकाने ठिकाने लगा दिये ॥ 

ऐ कारोबारे-इश्क ख़सारा ही कुछ उतार । 
साँसों ने बेशुमार ख़ज़ाने लगा दिये ॥ 

दुनिया हमारे नूर से वैसे भी दंग थी । 
और उस पे चार-चाँद पिया ने लगा दिये ॥ 

सहर – सुबह; मुन्तज़िर - के लिये प्रतीक्षारत 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212