मुहावरों पर दोहे - आ. सलिल

दोहा कहे मुहावरा, सुन-गुन समझो मीत.
इसमें सदियों से बसी, जन-जीवन की रीत..
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पानी-पानी हो गये, साहस बल मति धीर.
जब संयम के पल हुए, पानी की प्राचीर..
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चीन्ह-चीन्ह कर दे रहे, नित अपनों को लाभ.
धृतराष्ट्री नेता हुए, इसीलिये निर-आभ..
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पंथ वाद दल भूलकर, साध रहे निज स्वार्थ.
संसद में बगुला भगत, तज जनहित-परमार्थ..
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छुरा पीठ में भौंकना, नेता जी का शौक.
लोकतंत्र का श्वान क्यों, काट न लेता भौंक?
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राजनीति में संत भी, बदल रहे हैं रंग.
मैली नाले सँग हुई, जैसे पावन गंग..
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दरिया दिल हैं बात के, लेकिन दिल के तंग.
पशोपेश! उनको कहें, हम अनंग या नंग?
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मिला हाथ से हाथ वे, चला रहे सरकार.
भुला-भुना आदर्श को, पाल रहे सहकार..
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लिये हाथ में हाथ हैं, खरहा शेर सियार.
मिलते गले चुनाव में, कल झगड़ेंगे यार..
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गाल बजाते फिर रहे, गली-गली सरकार.
गाल फुलाये जो उन्हें, करें नमन सौ बार..
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राम नाप जपते रहे,गैरों का खा माल.
राम नाम सत राम बिन, करते राम कमाल..
:- संजीव वर्मा 'सलिल'

5 टिप्‍पणियां:

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