इधर कुछ भी नहीं है
उधर कुछ भी नहीं है
उधर हम जा रहे हैं
जिधर कुछ भी नहीं
उजाला ही न हो जब
नज़र कुछ भी नहीं है
मुसम्मम हो इरादा
सफ़र कुछ भी नहीं है
न हो जलने का सामाँ
शरर कुछ भी नहीं है
फ़क़त एक वाहिमा है
ये डर कुछ भी नहीं है
अगर सूरज न निकले
सहर कुछ भी नहीं है
न हों जिस घर में खुशियाँ
वो घर कुछ भी नहीं है
बहुत कुछ है ये दुनिया
मगर कुछ भी नहीं है
अगर हों बोल मीठे
शकर कुछ भी नहीं है
ये तेरा हुस्नेताबां
क़मर कुछ भी नहीं है
हो दौलत इल्म की तो
गुहर कुछ भी नहीं है
है नाक़द्री यहाँ, अब
हुनर कुछ भी नहीं
:- अहमद 'सोज़'
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंअगर सूरज नहीं है, सहर कुछ भी नहीं है... क्या बात है। खूबसूरत
जवाब देंहटाएं