मन
मलङ्ग,
हुलसै हिया, दूर होंय दुख-दर्द
सावन
तिरिया झूमती, फागुन फड़कै मर्द
कहे
सुने का बुरा न मानो – ये होली का महीना है। भैया हमारे ब्रज में तो होली यानि एक
परिपूर्ण उत्सव। एक ऐसा उत्सव जिस में साल भर मन में जो अवाञ्छनीय / अनपेक्षित /
अ-सरस भावनाएँ उमगती रहती हैं, उन्हें रङ्गों के साथ बहा
देने वाला पर्व। शायद इसीलिये इस में नशा और गालियाँ अमुक सीमा को ध्यान में रखते
हुये स्वीकार्य हैं। हम में से अधिकान्श को याद होगा किस तरह हमारे नगर-क़स्बे-गाँव
के बड़े-बुजुर्ग न सिर्फ़ सीमा में रहते हुये मन से मलङ्ग बनते थे बल्कि अन्य
सदस्यों को भी मुमकिनतन शक़्ल में मस्तियाँ करने की खुली छूट देते थे।
होली
के त्यौहार की बड़ी अनोखी रीत
मुँह
काला करते हुये जतलाते हैं प्रीत
दुनिया
जहान में इस तरह के और भी पर्व मनाये जाते हैं। कुल मिला कर नीरस-जीवन-चर्या के
भार से मानव-समाज निरुत्साहित न हो जाये इसलिये समाज-वेत्ताओं ने
समय-परिस्थिति-वस्तु-देश-काल-वातावरण इत्यादि को ध्यान में रखते हुये अपनी-अपनी
सहूलियतों के अनुसार विभिन्न पर्वों को मूर्त-रूप प्रदान किया। हमारे समय के
विशिष्ट-विचारक आदरणीय राजेन्द्र रञ्जन जी इस विषय पर बड़े ही अधिकार के साथ बातें
करते हैं। पर्व यानि त्यौहार यानि फ़ैस्टिवल बोले तो
अगर
ज़िन्दगी काया है तो उपटन हैं त्यौहार
शाश्वत
जीवन दर्शन का अवगाहन हैं त्यौहार
विकल
ह्रदय में सम्बल जागे
थका
बदन भी सरपट भागे
कैसा
भी हो कोई निठल्ला
त्यौहारों
में 'हिल्ले' लागे
निज
रूचि के अनुसार सभी को देते हैं रुजगार
इसीलिये
तो कहते हैं दुःख-भञ्जन हैं त्यौहार
चौखट
पर जब आते उत्सव
ख़ुशियों
को बरसाते उत्सव
नारी
और गृहस्थी का
औचित्य-सार
समझाते उत्सव
जीवन
की ख़ुशहाली का हैं यही सही आधार
जगतीतल
में रिश्तों का अभिनन्दन हैं त्यौहार
इनसे
ही जीवन में रति है
सदाचार-सौहार्द
सुमति है
इनके
बिना स्थूल है जीवन
ये
हैं तो जीवन में गति है
इनकी
महिमा अद्भुत, अनुपम, अविचल, अपरम्पार
प्रगति-पन्थ-परिवृद्धि
हेतु प्रोत्साहन हैं त्यौहार
धर्मों
का सङ्काय हिन्द है
तत्वों
का अभि-प्राय हिन्द है
सुविचारों
का प्रथम प्रणेता
पर्वों
का पर्याय हिन्द है
विश्व
गुरु का मान तभी तो देता है सन्सार
मानव
में मौज़ूद ईश का वन्दन हैं त्यौहार
ब्रज
में वसन्त के आगमन के साथ ही होली का वातावरण उमगने लगता था। अलग-अलग स्थलों के
जन्तु [उपद्रवी व्यक्तियों के लिये यही स्नेह-सिक्त सम्बोधन उचित मालूम होता है]
अलग-अलग तरीक़े से न सिर्फ़ आनन्द लूटते थे बल्कि सामने वाले को भी आनन्द-रस से
तर-ब-तर करते थे। ‘थे’ सायास लिखा है चूँकि अब
तो स्व-आनन्द ही सर्वोपरि प्रतीत होता है। होली को ले कर बचपन की कुछ स्मृतियाँ :-
कहाँ
गईं वे मस्तियाँ, कहाँ गई वह मौज
वे
केशर की क्यारियाँ, गोबर वाले हौज
गोबर
वाले हौज बीच डुबकी लगवाना
कुर्ते
पर ‘पागल’ वाली तख़्ती लटकाना
याद
आ रहा है हम जो करते थे अक्सर
बीच
सड़क पर एक रुपैया कील ठोंक कर
आओ
दिखलाएँ तुम्हें, सीन और इक यार
लल्ला
जी के जिस्म पर, कुरती अरु शलवार
कुरती
अरु शलवार धार जब निकलें बाबू
साँड़
और कुछ बछड़े हो जाएँ बेक़ाबू
इस
डर से हाथों को पीछे बाँधे डोलें
गिर
सकती हैं गेंद अगर हाथों को खोलें
होता
ही है हर बरस अपना तो ये हाल
जैसे
ही फागुन लगे, दिल की बदले चाल
दिल
की बदले चाल, हाल कुछ यूँ होता है
लगता
है दुनिया मैना अरु दिल तोता है
फागुन
में तौ भैया ऐसौ रङ्ग चढै है
भङ्ग
पिएँ बिन हू दुनिया खुस-रङ्ग लगै है
होली
के त्यौहार की, बड़ी अनोखी रीत
मुँह
काला करते हुये जतलाते हैं प्रीत
जतलाते
हैं प्रीत, रङ्गदारी करते हैं
सात
पुश्त की ऐसी की तैसी करते हैं
करते
हैं सत्कार गालियों को गा-गा कर
लेकिन
सुनने वाले को भी हँसा-हँसा कर
जीजा-साली
या कि फिर देवर-भाभी सङ्ग
होली
के त्यौहार में, खिलते ही हैं रङ्ग
खिलते
ही हैं रङ्ग, अङ्ग-प्रत्यङ्ग भिगो कर
ताई
जी हँसती हैं फूफाजी को धो कर
लेकिन
तब से अब में इतना अन्तर आया
पहले
मन रँगते थे - अब रँगते हैं काया
सब
के दिल ग़मगीन हैं, बेकल सब सन्सार
मुमकिन
हो तो इस बरस, कुछ ऐसा हो यार
कुछ
ऐसा हो यार, प्यार की बगिया महकें
जिन
की डाली-डाली पर दिलवाले चहकें
ख़ुशियों
को दुलराएँ, ग़मों को पीछे ठेलें
ऐसी
अब के साल, साल भर होली खेलें
तो हर
साल की तरह इस साल भी होली पर क्या किया जाये – यह मन में विचार चल रहा था। भाई
कमलेश पाण्डेय और फिरोज़ मुज़फ्फ़र – ये दो ऐसे साथी हैं जो कि
जब-जब मैं थकने लगता हूँ तो ये दौनों तथा कुछ और भी ‘अज्ञात-विधाता’ मुझे मेरा फ़र्ज़ याद दिला देते हैं। ब्रज-गजल-सङ्ग्रह “पुखराज हबा में उड़
रए एँ” का प्रकाशन, परिवार में कई माङ्गलिक प्रसङ्ग, कारोबारी मसरूफ़ियात के अलावा पल-पल बदलते मौसम ने भी स्वास्थ्य को गिरा
कर इस बार बहुत परेशान किया। ख़ैर अब अङ्क ले कर आप के सामने उपस्थित हूँ।
फ़रवरी
के दूसरे हफ़्ते में तय हुआ कि आगामी अङ्क को होली विशेषाङ्क के स्वरूप में निकाला
जाय। सभी साथियों को रिमाइण्ड किया। इतने कम समय में जिस से जो बन पड़ा, तक़रीबन सब ही ने सहयोग किया। इस अङ्क की ख़ासियत है मेरी कज़िन ‘गुड़िया’ यानि अर्चना चतुर्वेदी। बचपन के बाद इस से
कभी मिलना नहीं हो पाया। अन्तर्जाल ही पर मुलाक़ात हुई और इस का आलेख ले कर आये
कमलेश पाण्डेय जी :-
होली का नाम सुनते ही
हमें अपने मोहल्ले चच्चा---- की याद बड़ी जोरों से आ जाती है | वैसे
तो हमारे चाचा जी बड़े ही शांत शरीफ आदमी टाइप थे पर होली का मौसम आते यानि फागुन शुरू
होते ही चचा के भीतर कोई शैतान सा घुस जावे था और फिर शुरू होती चचा की शैतानियाँ |
चचा के खुराफाती दिमाग में ऐसी ऐसी शैतानियाँ आती कि मजाल है कोई कितना
भी होशियार हो तो भी उनके हमले से बच नही पाता | उनकी एक टोली
बन जाती और फिर शुरू होता नाक में दम करने का दौर | यदि कोई चचा
को डांटे या उनके माँ बाबा से उनकी शिकायत करे तो चचा ऐसा सबक सिखाते कि वो ससुरा पूरी
जिंदगी चचा के रस्ते में आने की हिम्मत ना करता | एक बार हमारे
मौहल्ले के ही रामचरण काका ने चचा की शिकायत उनके पिताजी से कर दी और चचा को पड़ी मार
| चचा का खून खौल गया अपनी बन्दर टोली के साथ मिलकर रामचरण काका
को सबक सिखाने की सोची|
चचा ने गली से गाय का
गोबर उठाया और एक दौने में रख बाहर चाट वाले के पास गए उसे रूपये दिए और बोले “इस पर
दही सौंठ चटनी सब डार दे जे एक दम दही बड़ा जैसो लगनो चाहिए” चाट वाला उन्हें जानता
था चुप चाप दौना सजाया और दे दिया | फिर चचा ने एक बच्चे को पकड़ा
और उसके हाथो वो गोबर वाला दही बड़ा रामचरण काका के पास भिजवा दिया | काका खाने के शौकीन थे सो अडौस पडौस वाले कुछ ना कुछ भेजते रहते थे |
बच्चे ने कहा “काका ये माँ ने भेजा है” काका ने चट्ट से दौना लपका और
गप्प से चम्मच भर के मुहं में डाला जिस गति से दही बड़ा मुहं में गया, उसकी दुगुनी गति से वापिस भी आ गया | अब तो बेचारे काका
हलक में उँगलियाँ दे दे कर उल्टियां कर रहे थे और चचा टोली तालियाँ पीट पीट कर हँस
रही थी और काका रंग बिरंगी गालियाँ बरसा रहे थे | पूरा मोहल्ला
इस फ्री की फिल्म का आनंद ले रहा था | पर ये पक्का था अब काका
हमारे चच्चा के रस्ते में तो नही आएगा |
ये चच्चा और उनकी बन्दर
टोली, होली जलाने के लिए गाते बजाते चंदा मांगने आती “पैसा देगी जभी टरेंगे,नई तौ तेरे घर में मूसे मरेंगे” और जो आनाकानी करता उसके घर का लकड़ी का सामान
ले जाकर फूंक डालती | किसी की चारपाई तो किसी के किबाड़ उखार कर ले जाते इसलिए सब चुपचाप
चंदा देते | होली की मिठाई के नाम पर कितनों को भांग की बर्फी
या लड्डू खिला डालते और मेला करवा देते | कभी पीली मिटटी से मेवावाटी
बना कर खिलाते | पूरे महल्ले में उनकी ही कौतुक कथाएं चलती |
पर चच्चा दिल के भी बहुत
अच्छे थे,
हमारी माँ की तो बहुत इज्जत करते | हमारी माँ कभी
होली नहीं खेलती थी
ऐसा नही था कि माँ को
होली पसंद नहीं उस वक्त सयुंक्त परिवार थे, सबकी पसंद के पकवान बनाने के
चक्कर में माँ पूरा दिन रसोई में ही रहती | चच्चा ने कई बार कहा
भाभी होली खेलो न पर माँ हर बार मना कर देती पापा भी कहते पर माँ मना कर देती और तो
और रसोई से बाहर भी नही आती कि कोई रंग ना लगा दे | पापा का शायद
मन करता माँ को रंग लगाने का पर सब को देखकर चुप ही रहते ये बात चच्चा ने ताड़ ली थी
| एक बार होली वाले दिन हमारे घर एक सुन्दर सी महिला आई ,उसने सलवार सूट पहना हुआ था, खूब मेक अप भी किया था हम बच्चों से बोली “जरा अपनी मम्मी को बुलाना बेटा”कहना
आपकी सहेली आई है | हमने माँ को बोला, माँ
रसोई में ही थी, सहेली का नाम सुनकर दौडी आई | अभी माँ पहचानने की कोशिश ही कर रही थी कि उस सुन्दर महिला ने माँ के ऊपर खूब
सारा गुलाल डाल दिया ,माँ ने भी एकदम से उनके हाथ से गुलाल छीन
कर उनके ऊपर गुलाल डाल दिया तभी पापा भी आ गए फिर तो उस दिन माँ ने खूब होली खेली |
बाद जब पता चला कि वो सहेली और कोई नही चचा ही थे ये प्लान उन्होंने
पापा और हमारे चाचा के साथ मिलकर बनाया था | उस वाकये को सोच
कर माँ आज तक हँसती हैं |
कुछ भी कहो चच्चा पूरे मोहल्ले की जान थे यदि चच्चा
नहीं होते तो होली होली जैसी कतई नहीं होती,जे तो हमें पता चल ही गया जब चच्चा
की नौकरी लग गयी और वो दूसरे शहर चले गए| शुरू में तो होली पर
घर आते फिर आना कम हो गया और हम भी शादी होकर अपने ससुराल विदा हो गए | पर चच्चा की याद आते ही हमें अपने मायके की होली याद जरुर आ जाती है |
अबकी हम मथुरा गए तो चच्चा मिल गए हमें देख बड़े खुश हुए और बोले “लाली
कैसी है री तू कित्ते साल में देखी है” मैंने छूटते ही कहा “चच्चा में तो ठीक हूँ,
जे बताओ वहाँ शहर में भी वैसे ही होली मनाते हो ना” मेरी बात सुनते ही
चच्चा उदास हो गए और बोले “लाली होली तो हो
ली,
मैंने कहा, “क्या
मतलब चाचा ?” तो चाचा
बोले “शहरों का आदमी तो रोटी और पानी के लिए दिनभर खट रहा है | पीने को तो मुश्किल से पानी मिलता है, होली कैसे खेलंगे
और कैसे रंग छुडाएंगे | इत्ती महंगाई में कैसे होली जलायंगे और
कैसे पकवान बनायेंगे | और किसके संग होली मनाएं जब हमें ये भी
नही पता कि पडौस के घर में कौन रह रहा है ? सो बेटा होली तो हो
ली | यानि हमें जो खेलनी थी खेल चुके चच्चा की आँखों में उदासी
थी हमारी आँखों में पुराने चच्चा और पुरानी होली थी |
****
देखा
छोटी सी गुड़िया कितनी सयानी हो गयी है। खुस रह बेटा, भौत बढ़िया आर्टिकल पढ़वायौ तैनें। वैसे होली पर किसी वरिष्ठ को
वरिष्ठ कहना अतिशय गरिष्ठ अपराध होता है, फिर भी, आइये अपने ग्रुप के एक वरिष्ठ सदस्य जिन्हें सतीश सक्सेना के नाम से जान
लिया जाता है, आइये की क़लम की बेलौस धार का आनन्द उठाया जाये
:-
सतीश सक्सेना
अपने घर में ही आँखों पर
कैसी पट्टी , बाँध
रखी है !
इन लोगों ने जाने कब से ,
मन में रंजिश पाल रखी है !
इस होली पर क्यों न सुलगते,
दिल के ये अंगार बुझा दें !
मुट्ठी भर कुछ रँग,
फागुन में, अपने घर में भी, बिखरा दें !
कितना दर्द दिया अपनों को
जिनसे हमने चलना सीखा !
कितनी चोट लगाई उनको
जिनसे हमने, हँसना सीखा !
स्नेहिल आँखों के आंसू , कभी
नहीं जग को दिख पायें !
इस होली पर, घर में आकर, कुछ गुलाब के फूल चढ़ा लें !
जब से घर से दूर गए हो ,
ढोल नगाड़े , बेसुर
लगते !
बिन प्यारों के,मीठी
गुझिया,
उड़ते रंग, सब फीके लगते !
मुट्ठी भर गुलाल फागुन में, फीके
चेहरों को महका दें !
सबके संग ठहाका लेकर,अपने
घर को स्वर्ग बना लें
**
नमन करूं ,
गुरु घंटालों के !
पाँव छुऊँ ,
भूतनियों के !
राजनीति के मक्कारों ने,धन से खेली होली है !
आओ छींटें मारे, रंग के, बुरा न मानो होली है !
गुरु है, गुड से
चेला शक्कर
गुरु के गुरु
पटाये जाकर !
गुरुभाई से राज पूंछकर , गुरु की गैया, दुह ली है !
जहाँ मिला मौका, देवर ने जम के खेली होली है
!
घूंघट हटा के
पैग बनाती !
हिंदी खुश हो
नाम कमाती !
पंत मैथिली सम्मुख इसके, अक्सर भरते पानी
है !
व्हिस्की और कबाब ने कैसे, हंसके खेली होली
है !
अधर्म करके
धर्म सिखाते
धन पाने के
कर्म सिखाते
नज़र बचाके,कैसे उसने,दूध में गोली,
घोली है !
खद्दर पहन के नेताओं ने, देश में खेली होली
है !
*****
सतीश भाई के ब्लॉग पर जाएँ तो आप को लिखा मिलेगा कि “माँ की दवा को
चोरी करते बच्चे की वेदना लिखूंगा”। एक अलग ही सोच वाले सतीश भाई हठधर्मी रचनाकार
हैं, बन्धन इन्हें स्वीकार्य नहीं और भैया होली
विशेषाङ्क भी बन्धनों को उतनी तवज़्ज़ोह देना भी नहीं चाहता। होली है तो बस होली के
रङ्गों का मज़ा लेते हैं बस। आइये पहले कुछ काव्य कृतियों को पढ़ते हैं और फिर एक
सटायर
इस्मत
ज़ैदी – शिफ़ा कज़गाँवी
है
होली रंगों का त्योहार
ये
रँग बाँटे हैं सब में प्यार
न
इन में द्वेष घोलना
ये
सुंदर भावों का संचार
है
इक दूजे की ये मनुहार
न
इन में द्वेष घोलना
है
होली नफ़रत से इंकार
दिलों
के बीच न हो व्यापार
न
इन में द्वेष घोलना
है
पिचकारी वो प्रेम की धार
गिरा
दे नफ़रत की दीवार
न
इन में द्वेष घोलना
हैं
इन रंगों के अर्थ हज़ार
नहीं
हैं केवल ये बौछार
न
इन में द्वेष घोल
अनुपमा त्रिपाठी
फागुन की ऋतु घर आई
.....!!
प्रकृति गाये मधुवंती ....
और बहार राग ...
हर सू ऐसा छिटका ....
फाग के अनुराग का पराग ...
हृदय छंद हुए स्वच्छंद
....
मंद मंद महुआ की गंध ......
तोड़ती मन तटबंध ....
निशा रागवन्ती दिवस परागवंत
....
अलमस्त मधुमास देख .....
...वनिता
लाजवंत ........
पलाश मन रंग रंगा ...
पुष्प पंखुड़ियों से रंगोली सजाई ...
हल्की-फुलकी बातों में से हास्य को ताड़ कर और फिर उसे बग़ैर भौंड़ा
हुये पाठकों को गुदगुदाने के लिये इस्तेमाल करने के उपक्रम ही को व्यङ्ग्य कहते
हैं। भाई आलोक पुराणिक ऐसे ही व्यङ्ग्यकार हैं जो कि बड़ी ही आसानी से पाठकों के
पेट में गुलगुली मचा देते हैं। और कहीं-कहीं हमें सोचने के लिये मज़बूर भी कर देते
हैं। आइये उन के एक व्यङ्ग्यालेख का आनन्द लेते हैं
हुजूर वो वक्त गया जब शब्द की,
वर्ड की कीमत होती थी। अब तो कीमत पासवर्ड की है। साफ्टवेयर कारोबारी भी निकल लिये
हैं, नये धंधे करने के लिए। सो
नयी कहानी सामने आयी। गोपियों से कहा गया कि इधर मीडिया बहुत मार्केट फ्रेंडली हो लिया
है, आपके होली डांस की फुटेज
ले जाता है फोकटी में, और टीवी पर दिखा दिखाकर
उनसे इश्तिहार वसूलता है करोड़ों में। आप अपने होली डांस को पासवर्ड प्रोटेक्टेड कर
लो जी। होली डांस का पासवर्ड देने के हम सिर्फ लाखों लेंगे, और मीडिया को वो पासवर्ड बताने
के तुम करोड़ों वसूलना।
पर तब तो हमारे ग्वाल बाल भी हमारे साथ डांस ना कर पायेंगे-गोपियों
ने आशंका जतायीं।
नो प्राबलम, हम तुम्हे पासवर्ड देंगे, तुम जिसे चाहोगी, उसे ये पासवर्ड दे देना। वह तुम्हारे
साफ्टवेयर में इसे फीड करेगा और तुम डांस शुरु कर दोगी-टेकनीकल एक्सपर्ट ने बताया।
पर अगर हम पासवर्ड भूल गये, तो-सरल
गोपियों ने सहज आशंका रखी।
तो तुम हमारे कस्टमर केयर पर फोन कर लेना, दूसरा पासवर्ड मिल जायेगा। टर्म्स
एंड कंडीशन्स एप्लाई यानी पचास हजार रुपये आपको देने होंगे। पचास हजार रुपये देने वाली
बात बहुत धीमे से कही गयी।
गोपियां तैयार हो गयीं। लाखों देकर पासवर्ड खरीद लिये, करोड़ों कमाने की उम्मीद में।
साफ्टवेयर वाले निकल लिये, जाकर
गोपियों के पासवर्ड बता दिये अमेरिकनों और उनसे कहा कि आप इन पासवर्डों के सहारे गोपियों
के साथ डांस करें। उनकी शूटिंग करें। फिर उन्हे
महंगे अमेरिकन चैनलों पर दिखायें। अमेरिकनों को पासवर्ड बताने के करोड़ों डालर वसूले,साफ्टवेयर वालों ने।
होली के आसपास सीन ये हुआ कि ब्रजमंडल में सिर्फ अमेरिकन गण गोपियों
के साथ डांस कर रहे थे। गोपियां अनिच्छुक थीं, पर
चूंकि उनके साफ्टवेयर से अमेरिकनों का पासवर्ड मैच कर गया था, इसलिए वो खुद ब खुद डांस कर रही
थीं। और हुआ ये था कि गोपियां अपने पासवर्ड खुद भूल गयी थीं, गोपियों ने कस्टमर केयर सेंटर पर
फोन कहा तो सीन ये हुआ-
हलो मैं गोपी नंबर वन बोल रही हैं। क्या मेरी बात कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव
से हो सकती है।
जी कस्टमर केयर पर संपर्क करने के लिए धन्यवाद। आपका दिन शुभ हो। आप अपनी जन्मतिथि बतायें।
जी जन्मतिथि तो मुझे याद नहीं है।
अरे तो आप अपना पैन कार्ड नंबर बतायें।
जी पैन कार्ड तो मेरे पास है ही नहीं।
ओके फिर तो आप को हमारे नजदीकी दफ्तर में जाकर एक फार्म भरना होगा।
तब आपको नया पासवर्ड कूरियर से भेजा जायेगा।
पर जब तक ये सब होगा, होली
निकल जायेगी। मेरी कमाई के सारे चांस खत्म हो लेंगे।
देखिये मैं तो आपको प्रोसीजर बता रही हूं, होली निकलेगी या दीवाली निकलेगी, ये मुझे नहीं पता।
ओफ्फो, जब आपके एक्जीक्यूटिव पासवर्ड
बेचने आये थे, तब तो बहुत ही तमीज से बात
कर रहे थे, आप तो बहुत बदतमीजी से बात
कर रही हैं।
देखिये, तमीज का सारा कोटा हम ग्राहक
बनाने में खर्च कर देते हैं। उसके बाद हमारे पास सिर्फ बदतमीजी ही बचती है। मैं आपको
प्रोसीजर बता चुकी हूं। आप उसे फालो करें।
ओफ्फो, डांस तो होली पर करना है।
उसके बाद डांस क्यों करना।
देखिये, अब तो डांस साल भर चलता
रहता है। कोई ना कोई फंक्शन होता है, उसमें
डांस कर सकती हैं। हमारी सहयोगी कंपनी तमाम शादियों में रौनक लगाने के लिए अच्छे डांसर
सप्लाई करती है। आप उस कंपनी में अपना रजिस्ट्रेशन करा दें, पूरे साल आपको डांस के आफर मिलते
रहेंगे.
ओफ्फो, आप बात नहीं समझ रही हैं, हम तो होली के मस्ती वाला डांस
करते हैं, निर्मल, सहज आनंद के लिए।
देखिये, निर्मल, सहज जैसे शब्द जो आप बोल रही हैं।
ये तो अच्छे नाम हैं, निर्मल नाम से घी या मक्खन
बेचा जा सकता है। कोई संत इस पर अपना कारोबार पहले ही चला गये हैं। सहज किसी योग का
ब्रांड हो सकता है। आप चाहें, तो
ये नाम रजिस्टर करा सकती हैं। इस संबंध में आप हमारी सहयोगी कंपनी से मदद ले सकती हैं।
वह बहुत सस्ते भावों में आपको सर्विस दे देगी।
ओफ्फो, आप तो मुझे कुछ ना कुछ बेचने
पर आमादा हैं। आप मेरी प्राबलम को साल्व कीजिये ना। चलिये मेरी अपने किसी सीनियर कस्टमर
केयर एक्जीक्यूटिव से बात कराइये।
देखिये, क्षमा करें, अभी हमारे सारे कस्टमर केयर आफीसर
किसी ना किसी गोपी से बात करने में बिजी हैं। आप रात को दो बजे काल कीजिये, तब वो फ्री होंगे।
ओफ्फो, रात को दो बजे काल करने
को कौन जगेगा।
देखिये, वो आपकी समस्या है, हमारी नहीं। आपका दिन शुभ हो और
रात भी।
इस होलिका कथा से हमें ये शिक्षा मिलती है कि कस्टमर केयर डिपार्टमेंट
कस्टमर की केयर के लिए नहीं, कंपनी
की कमाई की केयर करने भर के लिए होता है।
हम में से अधिकान्श लोग पूर्णिमा वर्मन जी के प्रकल्प ‘अनुभूति’ के बारे में जानते होंगे। कल्पना जी उस
प्रकल्प का एक महत्वपूर्ण किरदार हैं। अनुभूति को अनुभूति जिस टीम ने बनाया उस में
कल्पना जी का भी शुमार होता है। मैं इन से बस एक ही बार इन के खारघर स्थित आवास पर
मिला हूँ। शायद एक दो बार फोन पर बात हुई हो। स्वास्थ्य को लगभग मात दे चुकीं
आदरणीया कल्पना जी साहित्य-सेवा के लिये सदैव तत्पर रहती हैं। साहित्य की विविध
विधाओं में रचनात्मक प्रयास करना इन का प्रिय शगल है। आप के तप को नमन।
कल्पना रामानी
ऐ हवा, रंगों नहाओ, आ गया फागुन।
धूम मौसम की मचाओ, आ गया फागुन।
देश से रूठी हुई है, रात पूनम की,
चाँद को जाकर मनाओ, आ गया फागुन।
वन चमन के फूल आतुर, देख लो कितने,
नेह न्यौता देके आओ, आ गया फागुन।
फिर रहे हैं मन-मुदित सब, बाल बगिया में,
झूलना उनका झुलाओ, आ गया फागुन।
साज हैं, सरगम भी है, तैयार हैं घुँघरू,
तुम सखी, शुभ गीत गाओ, आ गया फागुन।
खग, विहग-वृंदों के जाकर, कान में कह दो,
मोर कोयल को जगाओ, आ गया फागुन।
तान पिचकारी खड़ी है, द्वार पर होली,
प्रेम की गंगा बहाओ, आ गया फागुन।
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फगुनाहट से जाग उठी है
जग में होली।
रंग पलाशों से लेकर जन
हुए रँगीले।
साथ फब रहे लाल हरे,
केसरिया पीले।
सूखे को मुँह चिढ़ा रहे रंग
गीले हँसकर,
भंग चढ़ा पकवान हो गए
और रसीले।
पिचकारी पर फिदा हो रही,
कोरी चोली।
फगुनाहट से जाग उठी है
जग में होली।
मौसम बदला, नर्म हवा ने
पाँव पसारे।
खारे जल के ताल हो गए
मीठे सारे।
चूस-चूस कर आम कोकिला
सुर में कुहकी,
आए मिलने गले ज़मी से
चाँद सितारे।
हुरियारों से होड़ ले रहे
ढम-ढम ढोली।
फगुनाहट से जाग उठी है
जग में होली।
शहरों में डीजे गाँवों में
बजती पैंजन।
देश हो कि परदेस,पर्व की
एक वही धुन।
खेतों में सरसों खिलती,
उद्यानों कलियाँ,
कण कण में रस भर देता
सुखदाई फागुन।
आता संग धमाल शगुन की
भरकर झोली।
फगुनाहट से जाग उठी है
जग में होली।
------------
सार छंद
रंग दिवस फागुन के
छन्न पकैया, छन्न पकैया, उड़े रंग के बादल,
पीत, गुलाबी, लाल हुआ है, वसुंधरा का आँचल।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, यह ऋतु सबको भाई,
भँवरों की मनुहार देखकर, कली-कली इतराई।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, गुमीं घटाएँ तम की,
देख रही है जलती होली, जाग रात पूनम की।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, वन पलाश फिर दहके,
रंग सुनहरा देख गगन में, उड़ते पाखी बहके।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, फिरे आम बौराया,
मोर कोकिला ने बागों को, सुर में गीत सुनाया।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, देखा दृश्य विहंगम,
पिचकारी भर खग-मृग लाए, रंग घोलकर अनुपम।
छन्न पकैया, छन्न
पकैया, हुई खूब खिलवाई,
जब सखियों ने भंग मिलाकर, ठंडई घोट पिलाई।
छन्न पकैया, छन्न पकैया , गाएँ गीत शगुन के।
बार-बार जीवन में आएँ, रंग दिवस फागुन के।
*****
अन्तर्जाल पर ‘छन्न-पकैया’ को
हमलोगों के बीच सम्भवत: भाई योगराज प्रभाकर जी ले कर आये। ग्रामीण अञ्चल का सान्निध्य जिन लोगों को नसीब
हुआ हो वह जानते होंगे कि ‘छन्न पकैया’
या इस तरह के अन्य तकिया कलामों के साथ हमारे लोक-साहित्य में अपरिमित रचनाएँ हुई
हैं, और उन में से लगभग 99% अब लुप्त भी हो चली हैं। हम
जैसों को बावला कहने वालों का हम इसलिये बुरा नहीं मानते चूँकि इस तरह की बातों को
वर्तमान समय नोस्टाल्जिया के नाम से जानता है। याद आता है हम लोगों के बचपन में
विज्ञापन वाले हमें बताते थे कि नमक से दातुन करने पर दाँत ख़राब हो जाते हैं और
वही विज्ञापन वाले अब हमारे बच्चों से पूछ रहे हैं कि आप के टूट-पेस्ट में नमक है
कि नहीं? यानि आख़िरकार ये लोग हमारी भोर को ख़र्चों के साथ
शुरू करने में सफल हो ही गये। ख़ैर समय ने कब किस की सुनी है जो हम लोगों ही की
सुनेगा? चलिये अब उस फुरसतिया जी के सटायर से लुत्फ़न्दोज़ हुआ
जाये :-
आजकल फ़ेसबुक का जमाना है। लोग कुछ भी करते हैं उसका स्टेटस FB पर डालते हैं। समोसा खा रहे
है। बोर हो रहे हैं। अच्छा लग रहा है। झुंझला रहे हैं। ब्लॉक/अनफ़्रेंड कर दिया।
ऐसा फ़ील कर रहे हैं। वैसा महसूस हो रहा है। कुछ हो रहा है। कुछ-कुछ हो रहा है। कुछ
भी किया जाये अगर उसको फ़ेसबुक पर न डाला जाये तो लगता है वो काम हुआ ही नहीं।
फ़ेसबुक स्टेटस बिन सब सून।
हालांकि फ़ेसबुक पर लोग सब कुछ कह लेते हैं लेकिन फ़िर भी बहुत कुछ
रह जाता है जिसे शराफ़त के मारे लोग साझा नहीं करते। ऐसे लोग अपने मन के भाव अपनी
डायरी में लिखते हैं। ऐसी ही कुछ डायरियां हाथ लगीं। उनको देखकर लगा कि कितना कुछ
छूट जाता है फ़ेसबुक आने से। उन डायरियों में से कुछ के अंश यहां प्रस्तुत हैं:
1.आज फ़िर उसने अपनी
प्रोफ़ाइल पिक बदली। बेवकूफ़ को पता नहीं कि प्रोफ़ाइल बदलने से शक्ल नहीं बदल जाती।
मन नहीं था लेकिन लाइक करनी पड़ी। गिल्टी फ़ील हो रहा है। फ़ेसबुक के चलते कित्ता झूठ
बोलना पड़ता है।
2.उसने नयी फ़ोटो लगायी
है। हवा में उड़ते हुये बाल देखकर मन किया कि लिखें- ये बाल नहीं तेरे सर से
बची-खुची अकल निकलकर बाहर भाग रही है। लेकिन फ़िर लिखा नहीं। उसको ये खुशफ़हमी हो
जाती कि उसके पास भी अकल है। किसी को क्यों धोखे में रखना। आंख मूंदकर फोटो लाइक
कर दिया।
3.उसने आज किसी को ब्लॉक
करने की उद्घोषणा नहीं की। मन किया पूछूं कि तबियत तो ठीक है। लेकिन फ़िर नहीं
पूछा। किसी के पर्सनल मैटर में क्या दखल देना। जित्ती देर में कमेंट लिखेंगे उत्ते
में दस ठो लाइक कर लेंगे।
4.पिछले दस दिन से एक ही
आई.डी. से फ़ेसबुकिंग करते-करते बोर हो रहे हैं। खराब लग रहा है। सोचा था आज पक्का
नई आई.डी. बनायेंगे। लेकिन नहीं बनाई। ये क्या हो रहा मुझे। गूगलिंग करना पड़ेगी कि
ऐसी मन:स्थिति को क्या कहते हैं। कुछ इम्प्रेसिव कहते होंगे तो उसको अपना स्टेटस
बना लेंगे। - फ़ीलिंग डिटरमाइन्ड।
5.ब्लॉग देख रही हूं आजकल
वो मुईं उसका स्टेटस सबसे पहले लाइक करती है। घोटाले के पीछे CAG की तरह उसके स्टेटस से चिपकी
रहती है। पूछना पड़ेगा उससे चक्कर क्या है? आजकल
चैट भी नहीं करता। लगता है नई आई.डी. से चैट करनी पड़ेगी। ये भी औरों की ही तरह है।
6.आज उसने फ़िर कुत्ते के
साथ अपना फ़ोटू लगाया है। मन तो किया मेनका गांधी को लिख दें कि देखिये आपके रहते
जानवरों के साथ कित्ता तो अन्याय हो रहा है। लेकिन फ़िर छोड़ दिया। कमेंट किया - (कुत्ते
का) फ़ोटो बहुत अच्छा लग रहा है। ब्रैकेट के अंदर वाली बात मन में कही। ही ही ही ही smile emoticon smile emoticon smile emoticon
7.आजकल जिसे देखो, कविता लिखने में लगा है। कितना
तो क्रूर हो गये हैं लोग। शब्दों के साथ अत्याचार देखकर मन दुखी हो जाता है। कुछ
शब्दों से बात हुई। बेचारे कह रहे थे -पता होता कि हमारे साथ इत्ता बेरहम सलूक
होगा तो हम डिक्शनरी से भाग जाते। फ़ीलिंग ………. (खाली जगह रीता से पूछ कर भरूंगी।
उसको ये सब अच्छा आता है कि कब कैसे फ़ील होना चाहिये। )
8.तीन दिन से दुष्ट ने
हेल्लो नहीं बोला। सोचता है मैं पहले बोलूं। माई फ़ुट। मेरे पांच हजार दोस्त हैं
तीन हजार तीस फ़ालोवर। उस बेवकूफ़ के तीन सौ इक्वावन दोस्त। गुस्सा आ गया। उसके
स्टेटस पर (जिसको पहले लाइक किया था) जाकर स्टेटस को सैकड़ों बार डिसलाइक/लाइक
किया। स्टेटस को झिंझोड़ कर रख दिया। कूल फ़ील हुआ। फ़िर स्टेटस लगाया- भुट्टा चबा
रहे हैं, ठंड़ा पीते हुये। smile emoticon
9.कुछ भाई लोग तो ज्ञान
की बातें इत्ती बेवकूफ़ी से करते हैं कि मन करता है एक उन्नाव के डौंडिया गांव में
खुदाई के लिये लगी एक ठो जेसीबी इनके दिमाग में भी लगा दें। सारी अकल का मलबा
निकाल के दिमाग को खाली कर दें। लेकिन फ़िर लगता है कूड़ा कूड़ेदान में ही रहे तो
अच्छा। जमीन पर काहे को फ़ैलाया जाये।
10.आज
मंडे की भी छुट्टी थी। छुट्टी मतलब संडे समझकर मैंने टीना को संडे वाली आई.डी. से
हेल्लो बोल दिया। वो घंटे भर तक मुंह फ़ुलाये रही। तरह-तरह के बेवकूफ़ी के आइकान भेज
कर उसको मनाना पड़ा। ये लड़कियां भी कित्ती चूजी होती हैं यार। मन तो किया कि स्टेटस
लगाऊं -टाकिंग टू फ़ूल, फ़ीलिंग इर्रीटेटेड
लेकिन फ़िर लगा वो समझ जायेगी तो स्टेटस लगाया- एन्ज्वाइंग संडे, फ़ीलिंग ग्रेट
11.दोस्त
बता रहा था कि वो आजकल बहुत व्यस्त है। दो आई.डी. बनाई है उसने। दोनों
प्रधानमंत्रियों की तरफ़ से फ़ेसबुक पर जंग लड़ता है। एक आई.डी. किसी के खिलाफ़ स्टेटस
लिखता है। दूसरी से उसके खिलाफ़ तर्क। घंटे दो घंटे एक स्टेटस पर कुश्ती लड़ने के
बाद अगला स्टेटस लगा देता है। बता रहा था प्रधानमंत्री कोई बने उसका चमचा-इन-चीफ़
बनना पक्का है। राज्यमंत्री के दर्जे की आशा है। मन किया उसको कहें ’शेखचिल्ली
कहीं के’ लेकिन ’ग्रेट’ कहके बॉय कह दिया। स्टेटस सटाया- फ़ीलिंग रिलैक्ड।
12.भाईसाहब
ने बहुत दिन से कोई स्टेटस अपडेट नहीं किया। आज एक लड़के को फ़ुसलाकर लगभग जबरियन
समोसा खिला रहे हैं। पक्का दस मिनट के अंदर स्टेटस लगायेंगे- आज एक भूखे को भोजन
कराया। संतुष्ट महसूस कर रहा हूं। मैं सोच रहा हूं कि मैं कमेंट करूंगा – क्या अजब
पाखंड है। लेकिन मुझे पता है कि मैं किसी को हर्ट नहीं कर सकता। फ़ाइनली दिल पर पत्थर
रखकर लिखूंगा- मानवता की सच्ची सेवा।
13.आज
शाम एक फ़्रेंड का फ़ोन आया। कहा आज किसी से फ़ेसबुक ब्रेकअप नहीं हुआ। तबियत घबरा
रही है। फ़ीलिंग लो। मैंने कहा तो मैं क्या करूं?
तो उसने कहा यार तू ही मुझसे लवर बनकर बात कर ले। आई.डी./पासवर्ड
भेजा है तेरी मेल में। मैंने कहा -मुझे इस सब झमेले में नहीं पड़ना। उसने फ़िर
दोस्ती की कसम दी तो मुझे दया आ गयी। मैंने कहा अच्छा चल लाग इन करते हैं। मेरी
किस्मत अच्छी लाइट चली गयी थी। मैंने उसको एस.एम.एस. किया। उसका जबाब आया -कोई
नहीं मैंने खुद दो ब्राउजर से चैट करके ब्रेक अप कर लिया। तूझे हिचकिचाहट हो रही
थी। अच्छे से हो भी नहीं पाता तेरे से। नाऊ फ़ीलिंग रिलैक्स्ड। मैंने स्टेटस लगाया-
कैसे-कैसे फ़ेस हैं फ़ेसबुक के, फ़ीलिंग
सरप्राइज्ड।
ऐसी न जाने कितनी बातें डायरी
में लिखी हुई हैं। सबको यहां लिखना ठीक नहीं है। नमूने बता दिये। आप अन्दाजा
लगाइये कि और क्या-क्या लिखा होगा डायरियों में।
आप भी फ़ेसबुक डायरी लिखते हों तो शेयर करिये अपने विचार। कोई
हिचकिचाहट हो तो अनाम नाम से मुझे भेज दीजिये। हम छाप देंगे।
****
आया न मज़ा? और पढ़ना चाहते हैं इन को? ठीक है थोड़ी देर बाद।
पहले कुछ और रचनाधर्मियों को भी पढ़ लिया जाय।
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
दिलों में रंग भर दे प्यार का फिर इस दफ़ा होली।
कि मौका दे ही दे दीदार का फिर इस दफ़ा होली।
न शिक़वा हो न कोई हो गिला
इक-दूसरे के संग
मिटा दे दाग़ हर तक़रार का फिर
इस दफ़ा होली।
ग़मों को दूर सरका दे, खुशी को साथ ले आये
रखे माहौल बस इकरार का फिर इस
दफ़ा होली।
मुहब्बत की सिफारिश हो, मुहब्बत की इबादत हो
रहे त्योहार इक इसरार का फिर
इस दफ़ा होली।
यूं होली में सभी के साथ होने
का मज़ा आए
लगे हर शख़्स ज्यों परिवार का
फिर इस दफ़ा होली।
सुशीला शिवराण
कहाँ गए वो चंग-डफ़, अपनापन अनुराग।
गीतों की रसधार बिन, कितना सूना फ़ाग॥
ढोल-चंग की गूँज पर, मन उठता था झूम।
अब गलियाँ सूनी हुईं, कहाँ गई वो धूम॥
मस्तों की टोली नहीं, नहीं स्वांग के रंग।
बस टी.वी. में रह गया, होली का हुड़दंग॥
रंग फ़िज़ा में छा गए, नीले-पीले-लाल।
मैं बिरहन सूखी रही, मुझको यही मलाल॥
मोहन अब रँगते नहीं, राधा तेरे गाल।
कलयुग है द्वापर नहीं, दुनिया करे सवाल॥
संग अबीर-गुलाल के, मला कौन-सा रंग।
लोग कहें मैं बावरी, जग से हुई निसंग॥
साँवरिये के रंग-सा, मिला न दूजा कोय।
तन लागे जो साँवरा, हर दिन होली होय।।
गीतों की रसधार बिन, कितना सूना फ़ाग॥
ढोल-चंग की गूँज पर, मन उठता था झूम।
अब गलियाँ सूनी हुईं, कहाँ गई वो धूम॥
मस्तों की टोली नहीं, नहीं स्वांग के रंग।
बस टी.वी. में रह गया, होली का हुड़दंग॥
रंग फ़िज़ा में छा गए, नीले-पीले-लाल।
मैं बिरहन सूखी रही, मुझको यही मलाल॥
मोहन अब रँगते नहीं, राधा तेरे गाल।
कलयुग है द्वापर नहीं, दुनिया करे सवाल॥
संग अबीर-गुलाल के, मला कौन-सा रंग।
लोग कहें मैं बावरी, जग से हुई निसंग॥
साँवरिये के रंग-सा, मिला न दूजा कोय।
तन लागे जो साँवरा, हर दिन होली होय।।
उसने यूँ देखा मुझे, हुई शर्म से लाल।
हसरत दिल में रह गई, मलती खूब गुलाल॥
हसरत दिल में रह गई, मलती खूब गुलाल॥
धर्मेन्द्र कुमार ‘सज्जन’
क्षण
भर चढ़कर जो मिटे, रंग बड़ा बेकार
सात
जनम तक साथ दे, वही रंग तन डार
बदन
रँगा तो क्या किया, मन को रँग ले यार
मौका
भी, दस्तूर भी, होली का त्योहार
रंगों
के सँग घोलकर, कुछ टूटे संवाद
ऐसी
होली खेलिए, बरसों आए याद
जाकर
यूँ सब से मिलो, जैसे मिलते रंग
केवल
प्रियजन ही नहीं, दुश्मन भी हों दंग
रंग
सभी फीके पड़े, जब आई मुख लाज
इन
गालों के रंग से, आओ रँग दूँ आज
सूखे
रंगों से करो, सतरंगी संसार
पानी
की हर बूँद को, रखो सुरक्षित यार
फागुन
ने आकर कहा, अपने दिल का हाल
गोरा
मुखड़ा धूप का, हुआ शर्म से लाल
रंग
न हो तो प्रेम भी, रँग देता संसार
प्रेम
न हो तो व्यर्थ है, रंगों का अंबार
तुझको
रँगने थी चली, पीली पीली धूप
गोरा
तन छूकर हुई, उजली उजली धूप
आँखों
आँखों में चलें, सारे रंग गुलाल
अपनी
होली चल रही, यूँ ही सालों साल
संजीव निगम
सुबह सुबह चच्चा अपने
घर रुपी तोप नली से गोले की तरह जो छुटे तो सीधे हमारे घर में आकर फ़टे। उनके हाथ में सुबह का अखबार था और मुँह से दनादन
ऐसे शब्द निकल रहे थे जिन्हें सुन कर पुलिस
वाले भी शर्मिंदगी महसूस करने लगें।
ऐसी ज़बरदस्त गोलाबारी
के सामने पड़ना अपने खुद के अंतिम संस्कार का इंतज़ाम करना जैसा ही था इसलिए हम हाथ में
सफ़ेद रुमाल थामे उनके शाब्दिक रूप से ठंडा होने की राह देखने लगे। थोड़ी देर बाद वह शुभ घड़ी भी आ गयी और वे उस अल्सेशियन की तरह से शांत होकर
बैठ गए जो घर आये मेहमान पर भौंक भौंक कर थक गया हो।
मैंने हिम्मत करके पूछा
,
" चच्चा , आप तो ओबामा की तरह से सभ्य आदमी
थे , ये अचानक ओसामा कैसे बन गए ? "
यह सुनते ही चच्चा फिर से पाकिस्तानी फौजियों की तरह से बिना
कारण फायरिंग करने लगे। बोले, " नाम मत लो उस ओबामा का मेरे सामने। जब अभी भारत आया था तो क्या क्या अरमान
देखे थे मैंने उसकी और अपनी दोस्ती के। यह सोच सोच कर मैं कितना खुश था कि उसे दोबारा
यहां देख कर चीन कितना जल रहा होगा , पाकिस्तान बिलख रहा होगा।
यहाँ तक कि जब जाते जाते उसने हमें बिन मांगी सलाह दे डाली तब भी मैंने उसे पान के
अड्डे पर खड़े किसी दोस्त की चुहलबाज़ी समझ कर झेल लिया था । "
- " पर उसने तो
वहाँ जाकर भी ....... "
- " अमाँ तुम अपनी
तोते जैसी चोंच बंद रखो। ये हम दो बड़ी हस्तियों
के बीच का मामला है ,
उसमें तुम अरुण जेटली की तरह से बीच में घुसने की कोशिश मत करो ,
सुषमा स्वराज की तरह से अलग
ही रहो। हमें पता है कि उसने वहां जाकर भी हमारी तरफ इस बयान की पिचकारी मारी थी कि भारत में धार्मिक असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है
कि यदि महात्मा गांधी जिंदा होते तो वे आहत होते। "
- " लेकिन अब तो
वहाँ भी …। "
- " हाँ वही तो … बड़ा आया हमें ज्ञान देने वाला ? अब उसके
अपने यहाँ धार्मिक असहिष्णुता की ऐसी हरकतें
हो रही हैं, तो अब समझा ना
अपने लोगों को , हमें जो ज्ञान दिया था उसे कॉपी पेस्ट
करके अपने कंप्यूटर जैसे देश के होम पेज पर
डाल न। "
- " सही कह रहे
हैं आप ,
पर ये सब मुझसे कहने से क्या फायदा ? "
- " वो तो मैं भी जानता हूँ
तुम जैसा सस्ते सूट पहनने वाला इन सब बड़ी बड़ी बातों को क्या समझेगा ! ये तो लाखों रुपये
का सूट पहनने वालों के समझने की बात है।
"
- " तो फिर उन्हें
ही समझाईये न ,
मेरे घर को क्यों राज पथ बना कर 26 जनवरी का शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं।"
- " हम यहां कोई
शक्ति प्रदर्शन करने नहीं आये हैं बल्कि राष्ट्र
हित में तुमसे एक कुर्बानी मांगने के लिए आये
हैं। "
कहीं गुस्से में इन्होंने इस्लामिक स्टेट जैसा कोई आतंकवादी संगठन न बना लिया
हो और उसका पहला फिदायीन मुझे ही बनाने का न ठान लिया हो , यह सोच कर मेरी साँसें डर के मारे
अपने आप ज़ोर ज़ोर से अनुलोम विलोम करने लगीं। डरते डरते आवाज़ निकली ," कैसी कुर्बानी चच्चा ? "
- " हमें थोड़ी देर
के लिए के लिए तुम्हारा मोबाईल चाहिए। "
- "क्यों भला ? "
- " ओबामा से बात
करनी है और उससे पूछना है कि आज अगर अब्राहम लिंकन ज़िंदा होते तो वे कितना आहत होते
?
"
लेकिन मेरी देशभक्ति
ने ही मुझे मेरे मोबाईल के माध्यम से अमेरिका से सम्बन्ध ख़राब करने से रोक दिया।
मैंने मोबाईल में बैलेंस न होने का
कारगर बहाना बना दिया। चच्चा ने दुर्वासा की तरह से अतिशय क्रोध से मुझे घूरा और
फिर किसी सच्चे मोबाईल धारी देशभक्त की तलाश
में निकल गए।
सुमीता
प्रवीण केशवा
रंग लगाके तू
न जा मुझे रंग लगाके
अपने अंग लगाले
सांवरिया रे…
पवन बसंती तू
बनके संग बहा ले
अपने दिल में
बसा ले सांवरिया रे…
फागुन ने जुल्फ
खोलीं
मदहोशी नभ में
घोलीं
धानी आकाश हुआ
धरती भी उसकी
होली
रंगों से रंग
मिले
सतरंगी फूल खिले
पंखुरी लाज खोए
भंवरा जो उसपे
डोले
बांहें पसारे, नदी
के दोनों किनारे,
इकदूजे को पुकारे
बलम आजा रे..सांवरिया रे…
लरजे कपोल लाल
सैंयां रंगे
गुलाल
भावभरा रंग घुला
तन मन हुए सब
लाल
सजना के संग
सखी
ऐसे मैं रंग
रंगी
खुद से ही प्रीत
हुई
खुद से ही जंग
हुई
प्रीत लगाके, अपनी
नींद गवां के
सजन संग बन गई मैं तो बावरिया रे .... सांवरिया रे
सजन संग बन गई मैं तो बावरिया रे .... सांवरिया रे
काव्य करन कों चले हैं हम भ्राता ।
सच पूँछौ तौ हमें कुछ नहीं आता ।01।
फिर हु हमने बुद्धि तनिक लगाई ।
झट सों यों एक युक्ति बुझ आई ।02।
एक शब्द, हैं ताके अनेक विकार ।
इनकौ कीजै तर्ज- बन्द व्यवहार।03।
शब्द-विकार पै पुन-पुन करौ
प्रहार।
ठोको- ठाँसौ और नैंक लेउ निहार
।04।
जस-जस शब्द स्व- पुकार सुनावें
।
तस-तस काव्य पंक्ति बन आवें ।05।
अब तौ भईया हम हु कवि कहाएं।
मन ही मन यों मस्त मोद मनाएं ।06।
एक दिन जमौं बड़ौ काव्य
व्यापार।
कवि-कुल कौ कछु कहें आर न पार।07।
सब ने अपने-अपने जब पाठ किये।
श्रृंगार, हास्य, वीर रस के ठाट किये।08।
अलंकारन के अद्भुत उपयोग किये।
वक्रोक्तिन के विलक्षण प्रयोग
किये।09।
छन्दन सौँ अनूठे से अनुबन्ध
किये।
चमत्कृति के अत्यंत सुप्रबन्ध
किये।10।
हमने हु हिम्मत अपनी नैंक न
हारी।
काव्य में काव्य की युक्ति कह
डारी।11।
अब निर्णय कौ अवसर ज्यों आयौ।
हमरौ नाम उननें सर्व- श्रेष्ठ सुनायौ।12।
लियौ पंचन नैं हमें पुनः मंच
बुलाय।
दियौ टूटे जूतन कौ एक हार
पिराय।13।
तब वे बोले मन्द-स्वर ये मृदु
भाखा।
नीचे से आपकौ नम्बर एक है
आँका।14।
यह सब दुखद दृश्य देखत
घर-वारी।
घर पहुँचत ही वाकी विकट सवारी।15।
बड़े चले हौ तुम नित कवि बनन
कौं।
आयी न नैंक हु लाज या झूठे रन
कौं।16।
बालक भूखे, घर सौं मूसे हु फिरत हैं।
टूटे हैं पात, वस्त्रन के पैबन्द फटत हैं।17।
मुद्दत से हर बारिस यह छत्त
चुआनी।
बस अब की बार है सच फर्श पै
आनी।18।
कवि-जन! एक बात मैं कहौं
सुविचारी।
मानौ न मानौ, हौ अब आप अधिकारी।19।
रोजी-रोटी जब लौं नहीं सिद्ध
जुगाड़ी।
कवि नहीं, कबहु कवि 'नन्द' अनाड़ी ।20।
:- एन.
एल. चतुर्वेदी नगीना उर्फ़ ‘नन्द’
साहित्यम
पर आप लोग जो रसीले और चुटीले व्यङ्ग्यालेखों का रसास्वादन करते हैं उस का जिम्मा भाई
कमलेश पाण्डेय जी ने उठाया हुआ है। कहने की आवश्यकता नहीं कि साहित्यम का कुल कामकाज
स्वैच्छिक और अवैतनिक है। आज के दौर में ऐसे साथियों का मिलना सौभाग्य ही कहा जायेगा।
वैसे भी पैसा सब कुछ खरीद सकता है मगर समर्पण की भावना नहीं। कमलेश जी स्वयं भी एक
बेहतरीन व्यङ्ग्यकार हैं। कमलेश जी के सटायर्स की विशेषता “बारीक़ी” है। आप बड़े ही निराले
अन्दाज़ में पाठक को अपने साथ बहा ले जाते हैं। आइये कमलेश जी के एक रसीले और चुटीले
व्यङ्ग्यालेख का रसास्वादन करते हैं:-
फाह्यान की फिल्मी डायरी
कमलेश पाण्डेय
उस रोज़ फू-ची ने बताया
कि भारत-भ्रमण पर जाने से पहले वहां की कुछ फिल्में देख लूं तो पर्याप्त मार्गदर्शन
मिल सकता है. फूची कहता है फ़िल्में किसी भी समाज का दर्पण होती हैं सो इन्हें देख लो
संभव है भारत जाने की आवश्यकता ही न पड़े. यहीं बैठे-बैठे भारत पर एक वृहद् ग्रंथ लिख
सकते हो. कल बाज़ार से वर्तमान काल में बनी डेढ़-दो सौ भारतीय फिल्मो की सीडी के जलदस्यु
संस्करण ले आया,
जो पे-ईचिंग के चोर-बाज़ार में मोमो के एक प्लेट से भी सस्ती मिल गईं.
आज प्रातः काल भजन-पूजन के उपरांत उनके अवलोकन के लिए बैठ गया हूँ. ये एक नया ही संसार
प्रतीत होता है. फू-ची ठीक कहता था कि चीन में फैली भारत सम्बन्धी भ्रांतियों पर कर्ण
न धरो. मुझे सही मार्गदर्शन देने वाले फू-ची को साधुवाद कहते हुए अब आरम्भ करता हूँ.
एक आठ प्रहर से निरंतर
भारतीय जीवन की इन्द्रधनुषी छवियाँ देखते-देखते नेत्र चुंधिया गए हैं और मष्तिष्क तो
मानों निष्क्रिय ही हो गया है. अभी थोड़े सुरा-पान के उपरांत जी हल्का हुआ तो भारत-
जो अब ईन्डिया कहलाने लगा है – की आकृति कुछ-कुछ दृष्टिगोचर होने लगी है. ये तो निश्चित
ही है कि इण्डिया अत्यंत समृद्ध देश है. फिल्म का नायक जो स्वयं को आम-आदमी और निर्धन
मनुष्य बताता है,
एक बड़े से भवन में रहता है, डिज़ाइनर परिधान पहनता
है, चमकते वाहन पर यातायात करता है और एक सुन्दरी से प्रेम करता
है. कभी-कभी सुंदरियों की संख्या एक से अधिक हो सकती है पर जब वह नृत्य रत होता है
तो सुंदरियां अनंत होती हैं. जिन धनाढ्य लोगों से उसकी शत्रुता होती है उनके तो क्या
कहने. उनकी जीवन शैली चीन के सम्राट को भी लजा देने वाली है. वैसे अधिकाँश फिल्मों
में नायक पुलिस अधिकारी हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि इंडिया में सभी पुलिस अधिकारी बनना
चाहते हैं जिसका कारण यही मालूम होता है कि उनके घर और ठाट-बाट राजाओं से प्रतिस्पर्धा
करते दीखते हैं. इससे तो यही लगता है कि इंडिया में अब सर्वहारा कोई नहीं बचा.
दो आम
आदमी पर आधारित एक फिल्म का अवलोकन करने के बाद इस निष्कर्ष पर जा पहुंचा हूँ कि इंडिया
के आम-आदमी सैर-सपाटे के शौकीन होते हैं और प्रायः अपनी प्रमिका के साथ मनोरम स्थलों पर भ्रमणशील रहते हैं. उसकी प्रेमिका स्वयं
को अत्यंत निर्धन बताती है जो उसके अत्यल्प वस्त्रों को देख कर तो सत्य प्रतीत होता
है, परन्तु जब उसके आभूषणों और चरण पादुका पर दृष्टि जाती है
तो थोड़ा संदेह भी उत्पन्न होता है. प्रायः ये लोग कहीं आकाश से प्रसारित होते संगीत
पर गायन करने लगते हैं तो हर बदलते लय के साथ वस्त्र, स्थल और
वाहनादि बदल देते हैं. समृद्धि का तब चरमोत्कर्ष दिखता है जब ये लोग गीत का हर अंतरा
किसी अन्य देश की भूमि पर गाते हैं और पलक झपकते ही उन्हें वहां पहुंचा देने वाला वाहन
कहीं नहीं दिखता. निश्चय ही वहां का विज्ञान अभूतपूर्व प्रगति कर चुका है. संभव है
वहां हर आम आदमी के पास अपना निजी वायुयान हो.
तीन आम आदमी
की मोहक छवियों वाले दृश्यों को देखते जी ही नहीं भरता. यह भी ज्ञात हुआ कि इंडिया
एक अत्यंत सुन्दर देश है जहां एक ही स्थल पर समुद्र, हिमाच्छादित
पर्वत, रेगिस्तान और झरने हैं. कई एक स्थल तो हू-ब-हू स्विटज़रलैंड
नामक देश के सामान हैं. ये भी सम्भव है कि आम आदमी के भ्रमण-लाभ हेतु इंडिया में ही
कहीं-कहीं यूरोप-अमरीका आदि महादेशों की प्रतिकृति रच ली गई है. गीतों के दृश्यों में
तो ये बात एक दम सिद्ध हो जाती है. जैसे ही नायक-नायिका गायन प्रारम्भ करते हैं,
ढेर-सारी सुंदरियां नाचती-गाती उनकी संगत करने आ जाती हैं. ये भी वस्त्रों
की दृष्टि से अत्यंत निर्धन लगती हैं, परन्तु स्थिति पर गौर करने
से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा नहीं है. क्या समुद्रतट पर सूट पहन कर जाया जाता है या
कि रात्रि-क्लबों में बुर्का ओढ़ कर. इससे ये भी स्पष्ट है कि इंडिया में नारियों को
इच्छा-नुसार पहनने-ओढने, घुमने-फिरने, नाचने-गाने
की स्वतंत्रता है.
चार फूची गलत
कहता है कि इंडिया में बहुत गरीबी है. उसे ऐसा कुछ फ़िल्में ही देखकर लगा था. उसकी सलाह
पर आज ऐसी कुछ फ़िल्में देखीं. इनमें टूटे-फूटे घरो में कुछ भिक्षुक-प्रकार के प्राणियों
का जीवन दिखाया गया था. सूक्ष्म दृष्टि डालने पर इन बस्तियों के पीछे खड़े विशाल महल
दिख जाते थे, जहां से कुछ आम आदमी आकर इन बस्तियों को गिराना
चाहते दिखाए गए थे. पर उनका उदेश्य इन झोपड़ियों की जगह महल बना कर पूरे इण्डिया को
एकाकार कर देना था. समयाभाव में इनका बनाना दिखाया नहीं जा सका. एक राजनेता ने बताया
कि गरीबी को प्रचारित करने के पीछे विरोधी राजनीतिक दलों का दुष्प्रचार है,
जो मुझे सो सत्य लगा. मुझे तो इसमें चीन का हस्त होने की भी सम्भावना
दिखी, क्योंकि ऎसी एक फिल्म में निर्धन लोग बार-बार माओ का नाम
ले रहे थे.
पांच ऐसा प्रतीत
होता है कि इंडिया में सभ्य लोगों की भाषा हिन्दी है. ये भाषा अंग्रेजी के शब्दों और
स्थानीय भाषा के कारकों से बनी है. बिना पढ़े-लिखे लोग कई स्थानीय भाषाएँ बोलते हैं.
प्रायः लोग केवल अंग्रेज़ी भी बोलते पाए जाते हैं पर आम तौर पर अंग्रेज़ी के दो एक वाक्यों
के बाद हिन्दी पर उतर आने की प्रवृत्ति है. नायिकाएं और स्त्रियाँ अंग्रेज़ी बोलना पसंद
करती हैं पर जब वो हिन्दी बोलती हैं तो भी ध्वनिं अंग्रेज़ी-सी ही आती है. ऐसा प्रतीत
होता है कि उन्हें भाषा की दीक्षा मूलतः अंग्रेज़ी में मिली है और हिन्दी उन्होंने किसी
हिन्दी फिल्म में काम करने के उद्देश्य से सीखी है. गाने अपितु हिन्दी में ही गाये
जाते हैं, पर वहां और भी कई भाषाओं का मेल दिख पड़ता है. एक गीत
तो ऐसा था जिसमें बड़े-बड़े नगाड़ों की ताल पर पंजाबी नामक भाषा में बहुत सारी अंग्रेज़ी
और थोड़ी हिन्दी मिलाई गयी थी. ऐसे कुछ गीतों के रचयिता कोई ‘यो यो’ नामक महाकवि हैं
जो अपने गीतों में युवाओं को कम मदिरा या मादक पदार्थों के सेवन करने जैसे सांस्कारिक
संदेश देते रहते हैं. इन गीतों के भावार्थ जो भी हों, इसमें कन्याओं
का नृत्य अद्भुत है- शब्दों को समझे बिना ही सभी अर्थ स्पष्ट हो जाते हैं.
छह आज दक्षिण
इंडिया की कुछ फ़िल्में देख कर पता चला कि इण्डिया के इस भूखंड में पुरुष अति-शक्तिशाली
और नारियां खूब भरी-पूरी होती हैं. नायक तो इतना चपल होता है कि चश्मा, सिगरेट या पिस्तौल जैसे उपकरण पलक झपकते ही अपने शरीर के विविध हिस्सों पर
अंतरित कर लेता है. इस नायक के एक आघात से खलनायक कई पलों तक वायुमंडल में गोते खाता
है और कभी-कभी तो आकाश में ही विलीन हो जाता है. उधर नारियां रंग-बिरंगे कलशों और इन्द्रधनुषी
आकृतियों के बीच मादक नृत्य करती रहती हैं. वहां का एक नायक तो सर्व-शक्तिमान ईश्वर
के समकक्ष है. उसकी शक्तियों के विषय में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जो फू-ची के अनुसार रजनी-जोक्स नामक ग्रंथ में संगृहीत हैं.
सात कुछ राजनीतिक
फ़िल्में देख कर ऐसा प्रतीत हुआ कि इण्डिया में सभी नेताओ की अपराध करने-कराने में गहरी
रूचि है. प्रायः समाज में खलनायक नेता ही होता है. ये लोग सुरा-सुंदरियों, हथियारों, सुन्दर प्रासादों और चमकते वाहनों के बीच ही
रहना पसंद करते हैं. आवश्यकता पड़ने या न पड़ने किसी भी स्थिति में किसी की ह्त्या कर
देना इनके वाम-हस्त का कर्म है. बलात्कार हेतु इन्हें यों तो सभी किस्म की नारियां
पसंद हैं पर नायक की बहन या प्रेमिका पर विशेष कृपा रखते हैं. ऐसा लगता है कि इनकी
दिनचर्या किसी षड्यंत्र से आरम्भ होकर किसी ह्त्या पर समाप्त होती है. इनके अंगरक्षक
चीनी युद्ध कला में सिद्धहस्त होते हैं और अवसर पाते ही साधारण मानवों पर ईया-ऊआ करते
टूट पड़ते हैं. एक राजनेता की क्रूरता देख कर तो मेरा घिघ्घी नामक अंग बंध ही गया. इंडिया
में इन्हीं अतिमानवों में से जनप्रतिनिधि चुनने का प्रावधान मालूम होता है. चुन लिए
जाने के बाद ये प्रायः श्वेत वस्त्र धारण करते हैं और सभाओं में भाषण देते फिरते हैं.
पर अंततः अपराध के सभी सूत्र उनसे ही जुड़े होते हैं. चुनाव एक रोचक अवसर होता है,
जब ढेर सारे वाहनों में लोग रंग बिरंगी झंडियों के साथ नारा लगाते घुमते
हैं.
आठ इंडिया
का ये रंग देख कर तो दंग रह गया हूँ. एक मैदान में लाल, पीले,
हारे, नीले तात्पर्य ये की सभी प्रकार के रंगों
से सराबोर हज़ारों मनुष्य एक साथ नृत्य कर रहे हैं. सबके वस्त्र श्वेत हैं ताकि रंगों
की छाप गहरी उभरे. गाजे-बाजे के साथ एक समूह गीत गाया जा रहा है जिसमें गोरियों की
चोली पर रंग डालने की प्रेरणा दी जा रही है. चुनरिया को भिगोने पर विशेष जोर है. सुंदरियां
पुरुषों से जोड़े बना कर मादक नृत्य कर रही हैं. रंग जो हैं, उड़
भी रहे हैं, बौछार बन कर बरस रहे हैं और चेहरों पर पोते भी जा
रहे हैं. इंडिया की इस रंगीन छवि को देख कर पिछली सारी छवियाँ धुंधली हो गई हैं. ऐसा
प्रतीत हो रहा है कि मानो पूरा देश एक ही रंग में रंगा है, भले
ही वह हज़ारों रंगों में व्यक्त हो रहा हो.
पता चला है कि ये एक
त्यौहार है जिसे होली कहते हैं. एक दिन पहले इंडिया के लोग होलिका जलाते हैं जिसमें
अपनी बुराईयों की आहुति डालते हैं. मैंने भी आज इंडिया की बुरी छवि बनाने वाली पिछली
फिल्मों की सीडी एकत्र कर उनकी होलिका जला दी और उसकी राख इन बरगलाने वाली फ़िल्में
देखने की सलाह देने वाले फू-ची के मुंह पर मल आया.
आज इण्डिया की यात्रा
की तैयारी पूरी कर ली है. दो दिनों के पश्चात होली है. उसे देखे बिना इंडिया की यात्रा
कैसे सम्पूर्ण होगी?
*****
ये हैं
कमलेश पाण्डेय जी और ये है उन का अनोखा वाला रङ्ग जो मुझे बेहद पसन्द है। इस आर्टिकल
को चाहें तो मात्र मनोरञ्जन के लिये भी पढ़ा जा सकता है और अगर कोई व्यक्ति समय
निकाल कर इस की थाह को नापना चाहे तो नप्प भी सकता है। कमलेश भाई जी के एक मित्र
हैं विनोद मिश्र। विनोद जी रिसेण्टली बरसाना हो कर आये हैं। विनोद जी ने साहित्यम के
लिये बरसाने की होली की दो बहुत ही सुन्दर-सुन्दर तस्वीरें भेजी हैं। विनोद जी का बहुत-बहुत
आभार। ये हैं वह दो तस्वीरें :-
डा. वी. के.
भल्ला
जिज्जा संग होली
लगा कर भोग महावीर
को,
और चढ़ा कर फूल
बतीसा,
बड़े भक्तिभाव
से पढ़ रहे थे
हम तो हनुमान
चालिसा,
"महावीर
जब नाम सुनावें,
भूत पिचास निकट
नहीं आवें".
तभी मेरी सालियाँ
आ कर बोली,
खेलेंगे हम जीज्जा
संग होली,
और मेरी सिट्टीपिट्टी
गुम होली,
कातर स्वर में
हमने पुकारा,
हे हनुमंत अब
तेरा सहारा,
सुन पुकार मेरी
हनुमानजी ध्यान में आए,
और मुझसे यूँ
फ़रमाए,
वत्स मैं तो
ठहरा बाल ब्रह्मचारी,
कैसे हरूँ मैं
विपदा तुम्हारी,
इस लफ़ड़े में
मुझे न लाओ,
तुम्हारी घंटियाँ
हैं तुम्ही बजाओ,
पड़ा संकट मोचन
नाम भी झूठा,
दिखा गए हनुमानजी
भी अंगूठा,
मेरी सालिओं
ने जी भर की मेरी पुताई,
देता रहा हाए
मैं दुहाई,
तभी श्रीमती
जी बाहर से आई,
मुझे देखते ही
चिलाईं,
अजी सुनते हो
जरा बाहर आओ,
कोई लफ़ंगा घर
में घुस आया है,
उसे मार कर बाहर
भगाओ,
धीरे से मैंने
खंखारा,
अरी भागवान ये
मैं हूँ पति तुम्हारा,
तो श्रीमती जी
तुनक कर बोली,
वाह मेरे छैला
बहुत भाए हो,
सुबह सुबह कहो
किससे,
मुँह काला करवा
कर आए हो,
मैंने अपनी करुण
गाथा उसे सुनाई,
तो श्रीमती जी
भिन्नाई और
अपनी बहनों को
आवाज़ लगाई,
क्या मेरा ही
पति मिला था,
मुँह काला करने
के लिए,
तो वो बेहयाई
से बोली,
दीदी अगली होली
में,
तुम हमारे पतियों
का मुँह काला कर देना,
तुम्हारा सारा
शिकवा मिट जाएगा,
हिसाब एक दम
बरोबर हो जाएगा,
हमने कुछ वक्त
के लिए,
बाहर निकलना
बंद कर है,
यह सोच कर कि
अगर किसी ने पूछा
कि तुम्हारा
मुंह किसने काला किया,
तो क्या जवाब
दूँगा..
विजेन्द्र
शर्मा
सरहद से आया नहीं , होली पर क्यूँ लाल !
माँ की आँखें रंग से , करती रही सवाल
!!
आँखों को भी
है गिला , करे शिकायत गाल !
बैरी ख़ुद आया
नहीं , भिजवा दिया गुलाल !!
कौन बजावे फाग
पे , ढोल नगाड़े
चंग !
चारों तरफ़ उदासियाँ
, गायब हुई उमंग !!
मौक़ा था पर
यार ने ,
डाला नहीं गुलाल !
मुरझाये से ही
रहे , मेरे दोनों गाल
!!
हैरत में थे
यार सब ,
दुश्मन भी था दंग !
मैंने उसके गाल
पर , लगा दिया जब रंग !!
इंतज़ार के रंग
में , गयी बावरी
डूब !
होली पर इसबार
भी , आया ना महबूब !!
*******
और अब फ़ुरसतिया जी का एक और धाँसू सटायर। धाँसू
इसलिये कि समझ में नहीं आ रहा कि इन्हें खाङ्ग्रेसी कहा जाये कि फिर भीजेफी बाला
कोई भी
घपला होता है, काले धन पर तोहमत लगती है। ब्लैक मनी की थू-थू होती
है. जैसे नेता चमचे के बिना, महन्त चेले के बिना, आई.पी.एल. फ़िक्सिंग के बिना अधूरा लगता है वैसे ही कोई भी घपला काले धन की
चर्चा के बिना अधूरा लगता है. घपला अगर कोई आधुनिक जटिल कविता है तो काला धन उसका आम
जनता की समझ में आने वाला सरल अनुवाद है. घोटाला यदि कोई अबूझ सिद्धांत है तो काला
धन उसकी सहज टीका है.
जैसे पार्टियां
चंदे के बिना, नेता लफ़्फ़ाजी के बिना, लेखक अपनी
उपेक्षा का रोना रोये बिना नहीं रह पाता वैसे ही दुनिया का कोई भी बड़ा धन्धा बिना काले
धन के नहीं पनप सकता.
दुनिया
में जितने भी मजबूत धन्धे हैं चाहे वह हथियार का हो, धर्म का
हो या फ़िर शिक्षा का ही क्यों न हो, सबकी बुनियाद में काले धन
की सीमेन्ट लगी है। काला धन न हो तो स्विस बैंक फ़ुस्स बैंक होकर रह जाये.
अपने देश
में पिछले बीस सालों में जित्ता विकास हुआ है, काला धन उससे कई
गुना ज्यादा बढ़ा है. गणित की भाषा में कहें तो किसी भी आधुनिक समाज का विकास उस समाज
में मौजूद कालेधन की मात्रा का समानुपाती होता है.
इस सबके
बावजूद कालेधन को लोग इज्जत की निगाह से नहीं देखते. कालाधन कमाने वाला तक खुलेआम उसकी
आलोचना ही करता है. राजनीतिज्ञ चुनाव भले काले धन के सहारे लड़ें लेकिन सार्वजनिक रूप
से कालेधन की ऐसी बुराई करते हैं जैसे वामपंथी, दक्षिणपंथियों
की करते हैं, अमेरिकी क्यूबा की करते हैं, पाकिस्तान वाले भारत की करते तरह हैं.
अपने प्रति
दुनिया का यह द्वंदात्मक इज्जतवाद देखकर बेचारे कालेधन के दिल पर क्या बीतती होगी.
दुनिया के धोखे को देखकर उसका मन भी जिया खान की तरह लटककर निपट जाने का करता होगा.
उसका भी मन करता होगा कि सरकारी गवाह बन जाये और सबकी पोल खोल दे कि कैसे तमाम लोगों
से उसके अंतरंग संबंध रहे. कैसे लोगों ने उसका सहारा लिया, आगे बढ़े, और सहारा लिया लेकिन जब सफ़लता के किस्से सुनाने
की बारी आयी तो श्रेय अपनी मेहनत, लगन और बुद्धि को दिया। कालेधन
के योगदान की सरासर उपेक्षा कर दी.
यह वैसा
ही है कि किसी देश के इतिहास में राजा रानियों के किस्से लिखे जायें लेकिन मेहनतकश
जनता की कहानी गोलकर दी जाये.
लेकिन
फ़िर कालाधन शायद यह सोचकर चुप रह जाता होगा कि अपराधी कोई भी हो लेकिन बुराई उसी की
होनी है. बेइज्जती तो उसी की खराब होनी है.
इसके बाद
शायद वह यह सोचकर चुपचाप अपनी करतूतों में जुट जाता होगा कि आजनहीं तो कल
उसको वह
इज्जत अवश्य मिलेगी जिसका वह हकदार है। उसको भी खुले आम उतनी ही स्वीकार्यता मिलेगी
जितनी की आज समाज में जातिवाद, संकीर्णता, भाई भतीजावाद, भाग्यवाद और काहिली को मिली है.
काला धन
सोचता होगा- जैसे बाकियों के दिन बहुरे क्या पता वैसे ही उसके भी बहुरैं.
*******
और साथियो चलते-चलते अपनी जड़ों
की ओर :-
ब्रह्मलीन सन्त कवि शिवदीन राम
(जोशी) की सन्त-वाणी आप ही के आध्यात्मिक शिष्य आदरणीय
श्री किशोर पारीक [खण्डेला] जी के सौजन्य से
गोकुल व बरसाने
की नार, बजाय-बजाय बजा रही तारी।
अरू वृन्दावन
की बनी वे बनी, बनके ठनके अरी दे रही गारी।
श्याम को श्यामा
सजाय सजी, अहो और गुलाल लगावत प्यारी।
शिवदीन वे जोरी
से जोरी मिली,ब्रज खेलत होरी हैं बांके बिहारी।
मंगल सुमंगल
सदा ही, आनन्द रहे नंदलाल,
तू गुलाल डार
देख सखी आ रही।
राधे मतवाली
आली चाली रंग डारन को,
गोपियां निराली
गाली श्याम को सुना रही।
सुन-सुन के
श्यामलाल, संग-संग गुवाल बाल,
बाजत मृदंग
ताल राधे जी गा रही।
कहता शिवदीन
लाल ऐसी गुलाल उड़ी,
बादर बन लाल
लाली चहुँ ओर छा रही।
ब्रज वृन्दावन
धाम रँग से रँगा रंगीला,
हरा मोतियां
लाल रँग है प्यारा पीला।
धूम धाम से
खेल, खेल रहे होरी देखो,
श्यामा श्याम
सुजान और संग गोरी देखो।
चहुं ओर पिचकारियां
रंग-रंग की धार,
शिवदीन सरस
रस रसिक जन पीवें करि-करि प्यार।
राम गुण
गायरे।।
भारत की लोक
सम्पदा: फागुन की फागें - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
भारत विविधवर्णी लोक
संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों
की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन-मानस गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी
प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों
के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी
होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता
है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल
से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति
सर्वत्र देखी जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश
में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर
भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि
में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में
राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद
में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार
देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार
पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल
भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा,
शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया,
शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों
के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र
सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया
फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी
प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित
और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग
दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि
पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों
में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य
के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी
के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण
फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका
जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी
को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको
मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी
देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे
कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम
घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका
की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं
हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों
की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान
निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों
से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी
फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान
झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट
की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट
से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या
नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका
निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी
भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर
रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल
निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी
करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर
देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान
हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला
कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं
में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी
कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट्ट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना
के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली
काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा
और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके
रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध
हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी
जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे
फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके
हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन
(चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं,
इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा
और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन
तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी
कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र
तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही
सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम
जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका
नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते
हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ
से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ
के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं
के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत
मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों
फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें
सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों
में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३,
५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं।
चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर
के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी
में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण
देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं
बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं
सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण
मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी
देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन
निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ
फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर
कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल'
जिता, मत चाहे उसे हरा दे
*
बुन्देली लोकरंग की साक्षी
: ईसुरी की फागें
संजीव
.
बुंदेलखंड के महानतम
लोककवि ईसुरी के काव्य में लोकजीवन के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक पक्ष पूरी जीवन्तता और रचनात्मकता के साथ उद्घाटित हुए हैं. ईसुरी
का वैशिष्ट्य यह है कि वे तथाकथित संभ्रांतता या पांडित्य से कथ्य, भाषा, शैली आदि उधार नहीं लेते. वे देशज ग्रामीण लोक
मूल्यों और परम्पराओं को इतनी स्वाभाविकता, प्रगाढ़ता और अपनत्व
से अंकित करते हैं कि उसके सम्मुख शिष्टता-शालीनता ओढ़ति सर्जनधारा विपन्न प्रतीत होने
लगती है. उनका साहित्य पुस्तकाकार रूप में नहीं श्रुति परंपरा में सुन-गाकर सदियों
तक जीवित रखा गया. बुंदेलखंड के जन-मन सम्राट महान लोककवि ईसुरी की फागें गेय परंपरा
के कारण लोक-स्मृति और लोक-मुख में जीवित रहीं. संकलनकर्ता कुंवर श्री दुर्ग सिंह ने
१९३१ से १९४१ के मध्य इनका संकलन किया. श्री इलाशंकर गुहा ने धौर्रा ग्राम (जहाँ ईसुरी
लम्बे समय रहे थे) निवासियों से सुनकर फागों का संकलन किया. अपेक्षाकृत कम प्रचलित निम्न फागों में ईसुरी के
नैसर्गिक कारयित्री प्रतिभा के साथ-साथ बुन्देली लोक परंपरा, हास्या एवं श्रीनगरप्रियता के भी दर्शन होते हैं:
कृष्ण-भक्त ईसुरी वृन्दावन
की माटी का महात्म्य कहते हुए उसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ बताते हैं:
अपनी कृस्न जीभ सें चाटी, वृन्दावन
की माटी
दुरलभ भई मिली ना उनखों, देई
देवतन डाटी
मिल ना सकी अनेकन हारे, पावे
की परिपाटी
पायो स्वाग काहू ने नइयाँ, मीठी
है की खाटी
बाही रज बृजबासिन ‘ईसुर’, हिसदारी
में बाटी
कदम कुञ्ज में खड़े कन्हैया
राहगीरों को रास्ता भुला देते हैं, इसलिए पथिक जमुना की राह ही भूल
गये हैं अर्थात जमुना से नहीं जाते. किसी को भुला कर मजा लेने की लोकरीत को ईसुरी अच्छा
नहीं मानते और कृष्ण को सलाह देते हैं कि किसी से अधिक हँसी अच्छी नहीं होती:
आली! मनमोहन के मारें, जमुना
गेल बिसारें
जब देखो जब खडो कुञ्ज
में, गहें कदम की डारें
जो कोउ भूल जात है रस्ता, बरबस
आन बिगारें
जादा हँसी नहीं काऊ सें, जा ना
रीत हमारें
‘ईसुर’ कौन चाल अब चलिए, जे तौ
पूरी पारें
रात भर घर से बाहर रहे
कृष्ण को अपनी सफाई में कुछ कहने का अवसर मिले बिना ‘छलिया’ का खिताब देना ईसुरी के
ही बस की बात है:
ओइ घर जाब मुरलियाबारे!, जहाँ
रात रये प्यारे
हेरें बाट मुनइयां बैठीं, करें
नैन रतनारे
अब तौ कौनऊँ काम तुमारो, नइयाँ
भवन हमारे
‘ईसुर’ कृष्ण नंद के
छौना, तुम छलिया बृजबारे
फगुआ हो और राधा न खेलें, यह कैसे
हो सकता है? कृष्ण सेर हैं तो राधा सवा सेर. दोनों की लीलाओं
का सजीव वर्णन करते हैं ईसुरी मानो साक्षात् देख रहे हों. राधा ने कृष्ण की लकुटी-कमरिया
छीन ली तो कृष्ण ने राधा के सिर से सारी खींच ली. इतना ही हो तो गनीमत... होली की मस्ती
चरम पर हुई तो राधा नटनागर बन गयी और कृष्ण को नारी बना दिया:
खेलें फाग राधिका प्यारी, बृज
खोरन गिरधारी
इन भर बाहू बाँस को टारो, उन मारो
पिचकारी
इननें छीनीं लकुटि मुरलिया, उन छीनी
सिर सारी
बे तो आंय नंद के लाला, जे बृषभान
दुलारी
अपुन बनी नटनागर ‘ईसुर’, उनें
बनाओ नारी
अटारी के सीढ़ी चढ़ते घुंघरू
निशब्द हो गए. फूलों की सेज पर बनवारी की नींद लग गयी, राधा
के आते ही यशोदा के अनाड़ी बेटे की बीन (बांसुरी) चोरी हो गयी. कैसी सहज-सरस कल्पना
है:
चोरी गइ बीन बिहारी की, जसुदा
के लाल अनारी की
जामिन अमल जुगल के भीतर, आवन
भइ राधा प्यारी की
नूपुर सबद सनाके खिंच
रये, छिड़िया चड़त अटारी की
बड़ी गुलाम सेज फूलन की
लग गइ नींद मुरारी की
कात ‘ईसुरी’ घोरा पै
सें, उठा लई बनवारी की
कृष्ण राधा और गोपियों
के चंगुल में फँस गये हैं. गोपियों ने अपने मनभावन कृष्ण को पकड़कर स्त्री बनाने का
उपक्रम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कृष्ण की बनमाला और मुरली छीनकर सिर पर साड़ी उढ़ा
दी गयी. राधा ने उन्हें सभी आभूषणों से सजाकर कमर में लंहगा पहना दिया और सखियों के
संग फागुन मनाने में लीन हो गयी हैं. श्रृंगार और हास्य का ऐसा जीवंत शब्द चित्र ईसुरी
ही खींच सकते हैं:
पकरे गोपिन के मनभावन, लागी
नार बनावन
छीन लई बनमाल मुरलिया, सारी
सीस उड़ावन
सकल अभूषन सजे राधिका, कटि
लंहगा पहरावन
नारी भेस बना के ‘ईसुर’, फगुआ
लगी मगावन
ईसुरी प्रेमिका से निवेदन
करा रहे हैं कि वह अपने तीखे नयनों का वार न करे, जिरह-बख्तर कुछ न कर सकेंगे
और देखे ही देखते नयन-बाण दिल के पार हो जायेगा. किसी गुणी वैद्य की औषधि भी काम नहीं
आएगी, ईसुरी के दवाई तो प्रियतमा का दर्शन ही है. प्रणय की ऐसी
प्रगाढ़ रससिक्त अभिव्यक्ति अपनी मिसाल आप है:
नैना ना मारो लग जैहें, मरम
पार हो जैहें
बखतर झिलम कहा का लैहें, ढाल
पार कर जैहें
औषद मूर एक ना लगिहै, बैद
गुनी का कैहें
कहत ‘ईसुरी’ सुन लो प्यारी, दरस
दबाई दैहें
निम्न फाग में ईसुरी
नयनों की कथा कहते हैं जो परदेशी से लगकर बिगड़ गये, बर्बाद हो गये हैं. ये
नयना अंधे सिपाही हैं जो कभी लड़कर नहीं हारे, इनको बहुत नाज़ से
काजल की रेखा भर-भरकर पाला है किन्तु ये खो गए और इनसे बहते आंसुओं से नयी की नयी सारी
भीग गयी है. कैसी मार्मिक अभिव्यक्ति है:
नैना परदेसी सें लग कें, भये
बरबाद बिगरकें
नैना मोरे सूर सिपाही, कबऊँ
ना हारे लरकें
जे नैना बारे सें पाले, काजर
रेखें भरकें
‘ईसुर’ भींज गई नई सारी, खोवन
अँसुआ ढरकें
श्रृंगार के विरह पक्ष
का प्रतिनिधित्व करती यह फाग ईसुरी और उनकी प्रेमिका रजऊ के बिछड़ने की व्यथा-कथा कहती
है:
बिछुरी सारस कैसी जोरी, रजो
हमारी तोरी
सङ्गेसङ्ग रहे निसि-बासर, गरें
लिपटती सोरी
सो हो गई सपने की बातें, अन हँस
बोले कोरी
कछू दिनन को तिया अबादो, हमें
बता दो गोरी
जबलो लागी रहै ‘ईसुरी’, आसा
जी की मोरी
ईसुरी की ये फागें श्रृंगार
के मिलन-विरह पक्षों का चित्रण करने के साथ-साथ हास्य के उदात्त पक्ष को भी सामने लाती
हैं. इनमें हँसी-मजाक,
हँसना-बोलना सभी कुछ है किन्तु मर्यादित, कहीं
भी अश्लीलता का लेश मात्र भी नहीं है. ईसुरी की ये फागें २८ मात्री नरेन्द्र छंद में
रचित हैं. इनमें १६-१२ पर यति का ईसुरी ने पूरी तरह पालन किया है. सम चरणान्त में गुरु
की अधिकता है किन्तु २ लघु भी प्राप्य है. इक फाग में ४, ५ या
६ तक पंक्तियाँ मिलती हैं. एक फाग की सभी पंक्तियों में सम चरणान्त समान है जबकि विषम
चरणान्त में लघु-गुरु का कोई बंधन नहीं है.
*
हम ने गर हुस्न और
ख़ुशबू ही को तोला होता
फिर तो हर पेड़
गुलाबों से भी हल्का होता
*******
हम ने
गर हुस्न और ख़ुशबू ही को तोला होता
फिर
तो हर पेड़ गुलाबों से भी हल्का होता
उदाहरण
के रूप में समझा जाये तो एक मर्तबा यूँ भी समझा जा सकता है कि परम्पराएँ हमेशा पेड़
या फिर पौधे की तरह होती हैं और उन पर लगने वाले फूल और उन फूलों की ख़ुशबूएँ
आधुनिक विचारधारा समान। यदि हम आधुनिक विचारधाराओं ही को सबकुछ समझ बैठेंगे तो ये
फूल और ख़ुशबूएँ क्या आसमान से टपकेंगे? समझने वाले
इशारों को बहुत जल्द समझेंगे। बाय द टाइम आप इस अङ्क को पढ़ रहे हों, मुमकिन है दुनिया का एक बड़ा हिस्सा आप को होली की बुराइयाँ गिना रहा हो।
हम इतना ही निवेदन करेंगे कि “सूप” की तरह-तरह सार-सार को
गहें और थोथे को उड़ा फेंकें। नीर-क्षीर-विवेक हम सब की धमनियों में युगों-युगों से
प्रवाहमान है। अपने विवेक का सदुपयोग करते हुये अच्छी बातों को आगे बढ़ाएँ। मिठाइयों
के कारोबारियों द्वारा परोसे जा रहे अशुद्ध माल से परहेज़ करते वक़्त याद रहे कि केडबरी
भी कोई अमृत नहीं है। हर गली के नुक्कड़ पर रङ्ग, पिचकारी वग़ैरह
बेचने वाले हमारे कुटीर उद्योग के खेवनहार हैं।
आप
सभी को सपरिवार होली की शुभ-कामनाएँ।
खुशियों का स्वागत करे, हर आँगन हर द्वार|
कुछ ऐसा हो इस बरस, होली का त्यौहार||
होली
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भाई पवन कुमार जी सरकारी मुलाज़िम होने के बावुजूद अदबी दुनिया में ख़ासा दख्ल रखते हैं। उन्हों ने साहित्यम के लिये एक ख़ास आलेख भेजा जो कि असावधानीवश मूल अङ्क में शामिल होने से रह गया लिहाज़ा अब क्षमा-प्रार्थना सहित उसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं ।
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भाई पवन कुमार जी सरकारी मुलाज़िम होने के बावुजूद अदबी दुनिया में ख़ासा दख्ल रखते हैं। उन्हों ने साहित्यम के लिये एक ख़ास आलेख भेजा जो कि असावधानीवश मूल अङ्क में शामिल होने से रह गया लिहाज़ा अब क्षमा-प्रार्थना सहित उसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं ।
होली पर विशेष आलेख
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार ......!
(कवियों-शायरों की
होलीपरक साहित्यिक रचनायें)
·
पवन
कुमार 9412290079
यूँ तो भारत त्योंहारों का देश है, कारण चाहे जो भी हो हर बारह-पंद्रह दिनों पर कोई न कोई त्यौहार आ ही जाता
है जो तन मन को स्पंदित कर जाता है। यकीनन इनमें कुछ त्यौहार ऐसे होते हैं जो पूरे
जोशो खरोश से मनाये जाते हैं। होली भी कमोबेश ऐसा त्यौहार है जो जन मानस के छुपे
अल्हड़पन और बचपन को बाहर निकाल कर रख देता है। होली का माहौल अपने आप में बड़ा
नशीला होता है........................आंखों मे मदहोशी, हाथों
में रंग पिचकारी, मुंह में मीठी गुजिया-अनरसे, ढोलक-मंजीरे की थाप, मदमस्त फाग गाते हुए गलियों से
निकलती फगुओं की टोलियां। उम्र के फासले छूटने लगते है, क्या
बूढे क्या नौजवान सब एक ही थैली के चटटे बट्टे लगने लगते हैं, सब देवर बनने की चाहत में रंग जाते हैं.....! लोक जीवन के अनेकानेक रंग
होली पर अनायास ही यत्र तत्र बिखरे नजर आते हैं ऐसे में साहित्य का होली के रंगों
से अछूता रह पाना नितान्त मुश्किल है।
हिन्दी कवियों से लेकर उर्दू शायरों ने अपने ढंग से ही होली की मस्ती को
व्यक्त किया है, यह कहा जाए कि होली की मस्ती कवियों-शायरों
को और भी मस्त कर देती है, तो गलत न होगा। साहित्यकारों का
यह मस्ती भरा रूप उनकी रचनाओं में भी साफ़ झलता है। होली के अवसर पर पेश है कुछ
नए-पुराने जाने पहचाने कवियों शायरों की रचनाएं-
शुरूआत करते हैं प्रेम की दीवानी
मीरा की ब्रज भाषा में रंगी एक रचना से जो ख़ालिस होली का रंग बिखेर रही है।
पंद्रहवीं शताब्दी की इस रचना का आनंद लीजिये, महसूस
करिये कि कितने अनुराग के साथ मीरा ने अपनी भावनाओं को होली के रंगों में रंग कर
प्रस्तुत किया है-
फागुन
के दिन चार होली खेल मना रे
सील
सन्तोख की केसर घोली पे्रम प्रीत पिचकार रे
घटके
सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे
मीराके
प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे !!
बात हिंदुस्तानी तहज़ीब की हो तो भला
अमीर खु़सरू को कैसा भूला जा सकता है. हिन्दवी के उस्ताद और गंगा जमुनी संस्कृति
की अलख जगाने वाले अमीर ख़ुसरू साहब हिन्दी खड़ी बोली के पहले लोकप्रिय कवि माने
जाते है । चैदहवीं सदी के महान व्यक्तित्व अमीर खु़सरू को इसलिए भी साहित्य में
महत्वपूर्ण रूतबा हासिल है क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले ‘हिन्दवी’ का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे।
दिल्ली सल्तनत में राजकीय आश्रय पाने वाले अमीर खु़सरू ने कव्वाली और सितार को
ईजाद किया। उनकी एक रचना विगत सात सौ सालों से भारतीय जनमानस को उद्वेलित करती है-
मोहे
अपने ही रंग में रंग दे
तू
तो साहिब मेरा महबूब ए इलाही
हमारी
चुनरिया पिया की पयरिया
वो
तो दोनों बसंती रंग दे
जो
तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन
पारी दरबार तिहारे
मोरी
लाज शर्म सब रख ले
मोहे
अपने ही रंग में रंग दे
इस
पृष्ठभूमि में उर्दू शायरी में होली के रंग को निहारें तो सबसे पहले याद आते हैं
फायज देहलवी। फायज साहब औरंगजेब कालीन शायर थे जिन्होंने अपने समय की दिल्ली की
होली को अपनी शायरी में कुछ यूं व्यक्त किया है-
ले
अबीर और अरगजा भरकर रूमाल
छिड़कते
हैं और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यूं
झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती
हैं नारियां बिजली की सार
अठाहरवीं
सदी के लोकप्रिय शायर और लोक भाषा के उस्ताद
शायर नज़ीर अकबरबादी ने लोक जीवन से जुडे़ प्रत्येक पहलू लगभग पर तफ़सील से
लिखा है। लोक जीवन को उकेरने का बेनज़ीर फ़न रखने वाले हज़रत नज़ीर अकबराबादी ने
होली पर भी रचनाएं लिखीं। होली पर उनकी यह रचना इस त्यौहार पर लिखी जितनी भी
रचनाएं हैं उनमें शायद सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली रचना मानी जा सकती है। गौर
फरमाएं-
जब
फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और
दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों
के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।।
ख़ूम
शीश ए जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब
नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की
हो
नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ
भीगी तानें होली की कुछ नाज़ ओ अदा के ढंग भरे
दिल
फूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ
तबले खड़कें रंग भरे कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ
ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की
गुलज़ार
खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों
पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो
मुँह
लालए गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो
उस
रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों
से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।।
और
एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवइयों के लड़के
हर
आन घड़ी गत फिरते हों कुछ घट घट के
कुछ
बढ़ बढ़ के कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ
लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चलेए कुछ तन फड़के
कुछ
काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की।।
ये
धूम मची हो होली की ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस
खींचा खींची घसीटी पर भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून
ए रबें नाच मज़ा और टिकियांए सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़
के श्नज़ीर भी निकला हो कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब
ऐसे ऐश महकते होंए तब देख बहारें होली की।।
अन्तिम
मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने भी अपनी रचनाओं में पारंपरिक रंगों से फाग खेला है-
क्यों
मो पे रंग की मारी पिचकारी
देखो
कुंवरजी दूंगी मैं गारी................!
बात
उर्दू शायरी की हो तो मीर तकी ‘मीर’ को कैसे भूला जा सकता है। उनकी एक क़ृति जिसमें शायर ने “साकी नाम होली“ होली की उन्मुक्तता को तत्कालीन
परिवेश से जोड़ते हुए बड़े ही बिन्दास तरीके से लफ़्जो में पिरोया है-
आओ
साकी,शराब नोश करें
शोर-सा
है,जहां में गोश करें
आओ
साकी बहार फिर आई
होली
में कितनी शादियां लाई
हिन्दी
के पहले लेखक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद यूँ तो अपनी कविताओं, नाटकों व निबन्धों के माध्यम से जाने जाते हैं, लेकिन
भारतीय लोक जीवन को उन्होने भी बहुत सलीक़े से अपनी रचनाओं में बयाँ किया है ।
अपनी शैली में वे होली का फाग कुछ यूं गाते हैं.........
गले
मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
बुझे
दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
है
रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम है
बने
हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
रस
गर जामे मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीलीआँख
दिखाकर करो सरशार होली में
छायावाद
काल के प्रमुख रचनाकार जय शंकर प्रसाद को उनके कवि व्यक्तित्व के अलावा श्रेष्ठ
नाटककार,
कथाकार, उपन्यासकार व निबन्धकार के रूप में भी
जाना जाता है। जयशंकर प्रसाद जी ने भी होली पर अपनी स्मरणीय अभिव्यक्ति दी है-
बरसते
हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन
उड़
रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन
चाँदनी
धुली हुई हैं आज बिछलते है तितली के पंख
सम्हलकरए
मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख
तरल
हीरक लहराता शान्त सरल आशा सा पूरित ताल
सिताबी
छिड़क रहा विधु कान्त बिछा हैं सेज कमलिनी जाल
पियेए
गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम
चली
आतीए कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम
उड़ा
दो मत गुलाल सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल
और
ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियाँ जावें झूल
विश्व
में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहेए क्या हात
स्नेह
से जलती ज्वाला झेल, बना ली हाँ, होली की रात॥
भारतीय
कवियों में हरिवंश राय बच्चन के जिक्र के बिना कुछ अधूरेपन का एहसास होता है।
जाहिर है कि बच्चन जी ने भी होली की रंगत को अपने शब्दों में अत्यन्त भावपूर्ण
तरीके से व्यक्त किया है-
तुम
अपने रंग में रंग लो तो होली है
अंबर
ने ओढी है तन पर चादर नीली-नीली,
हरित
धरित्री के आंगन में सरसों पीली-पीली
हिंदूरी
मंजरियों से है अंबा शीश सजाए,
रोलीमय
संध्या ऊषा की चोली है।
तुम
अपने रंग में रंग लो तो होली है।
घूमेगा
जग राह-राह में आलिंगन की मधुर चाह में,
स्नेह
सरसता से घट भरकर, ले अनुराग राग की झोली!
विश्व
मनाएगा कल होली!
उस
से कुछ उच्छवास उठेंगें, चिर भूखे भुज पाश उठेंगे,
कंठो
में आ रूक जाएगी मेरे करूण प्रणय की बोली!
विश्व
मनाएगा कल होली!
आंसू
की दो धार बहेगी, दो-दो मुटठी राख उड़ेगी
और
अधिक चमकीला होगा जग का रंग, जगत की रोली!
विश्व
मनाएगा कल होली!
छायावाद
युगीन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक स्तम्भ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को इस अवसर पर
कैसे भुलाया जा सकता है। उनके काव्यकला की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है
चित्रण-कौशल। उनकी रचनाओ में शब्दों के माध्यम से भावों की जो सजीव अभिव्यक्ति
होती है वह अन्यत्र नहीं मिलती! उदाहरणार्थ-
नयनों
के डोरे लाल गुलाल.भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस
कस कसक मसक गई चोली,
एक
वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी
काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात
मधुर अधरों की पी मधु, सुधबुध खो ली,
खुले
अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली..
बनी
रति की छवि भोली!
हमारे
समय के और मुशायरात के लोकप्रिय शायर वसीम बरेलवी ने भी होली पर तमाम ग़ज़ल लिखी
हैं किन्तु एक ग़ज़ल में वे एक विरहन का दर्द को होली के माध्यम से बहुत ही दमदार
तरीके से इजहार करते हैं-
तोहरा
रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचौली
मगर
अब साजन कैसी होली !
तन
के सारे रंग भिखारीए मन का रंग सुहाग
बाहर
बाहर पूरनमासी अन्दर अन्दर आग
अंग
अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
मगर
अब साजन कैसी होली !
रंग
बहुत शर्माए
कुछ
ऐसी भीगी पापी काया
तूने
इक इक रंग में
कितनी
बार मुझे दोहराया
मौसम
आये मौसम बीते मैंने आँख न खोली
मगर
अब साजन कैसी होली !
रंग
बहाना रंग जमाना
रंग
दीवाना
रंग
में ऐसी डूबी साजन
रंग
को रंग ना जाना
रंगों
का इतिहास सजाये रंगों रंगों बोली
मगर
अब साजन कैसी होली !
समकालीन
शायर अकील नोमानी ने भी होली की रवानगी को अपने लफ़्जों में क्या ही खूबसूरती से
व्यक्त किया है! उनकी तर्जे-बयानी देखिए-
दिल
में बजता है प्यार का संगीतए रूह फागुन के गीत गाती है,
जब
बिखरते हैं रंग होली केए जिंदगी झूम झूम जाती है !
और
आइये
होलिका दहन के साथए नफरतों को जला दिया जाये !
अबके
होली में दुश्मनों को भीए प्यार करना सिखा दिया जाये !!
कुंवर
बेचैन जीवन की सच्चाईयों से रूबरू होते हुए तल्ख़ मिजाजों में होली को कुछ यूं
व्यक्त करते हैं-
प्यासे
होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी
हमने
अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू जी
यह
मत पूछो हमको क्या.क्या दुनिया ने त्यौहार दिए
मिली
हमें अंधी दीवाली गूँगी होली बाबू जी
यह
परम्परा यूँ ही चलती चली आ रही है, आगे भी
चलती रहेगी, फेहरिस्त
लम्बी है मगर फिलहाल यहीं विराम लेते हैं !
*******
waah waah anad aa gaya sabhi rachnakaron ko hardik badhai sundar sarthak post , baithe thale me ham shamil na ho sake .......sabhi ko holi ki shubhkamnayen
जवाब देंहटाएंवाह...बहुत रोचक और मज़ेदार रचनाएँ...शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंपुराने रचनाकारों की तो रचनाएँ उत्तम हैं ही ( यद्यपि उनमें भी अति-उत्तम साहित्यिक कोटि की रचनाऐ चयनित नहीं की गयी हैं ) परन्तु नयी सभी रचनाएँ व आलेख अदि सामान्य से निम्न कोटि के हैं....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर। जितनी प्रशंसा की जाए कम ही होगी। एक छोटी सी भूल सुधारने का कष्ट करें। सन्त कवि शिवदीन राम जी की रचना का प्रेषण 'किशोर पारीक' द्वारा नहीं
जवाब देंहटाएंकैलाश पारीक द्वारा किया गया था।