1 जून 2013

मेरे मकान से दरिया दिखाई देता है - अहमद मुश्ताक़

दिलों की ओर धुआँ सा दिखाई देता है
ये शहर तो मुझे जलता दिखाई देता है
 
जहाँ कि दाग़ है याँ आगे दर्द रहता था
मगर ये दाग़ भी जाता दिखाई देता है
 
पुकारती हैं भरे शह्र की गुज़र-गाहें
वो रोज़ शाम को तन्हा दिखाई देता है
 
ये लोग टूटी हुई कश्तियों में सोते हैं
मेरे मकान से दरिया दिखाई देता है
 
ख़िज़ाँ के ज़र्द दिनों की सियाह रातों में
किसी का फूल सा चेहरा दिखाई देता है
 
कहीं मिले वो सर-ए-राह तो लिपट जाएँ
बस अब तो एक ही रस्ता दिखाई देता है

:- अहमद मुश्ताक़


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22

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