31 जुलाई 2014

मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से - पुरुषोत्तम दुबे

मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

धरती जिस पर फूल बिलखते, काँटे हँसते
मरुस्थलों के पैर पूजता है गंगाजल
मिट्टी के पुतलों से पर्वत टकराते हैं
हरियाली पर कोड़े बरसाता दावानल
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

दुनिया जिस में शान्ति कफ़न बांधे फिरती है
और अशान्ति पर चँवर डुलाता है सिन्हासन
दुनिया जिस में दुनिया की गोली से पीड़ित
डोला करता रुग्ण अहिंसा का पद्मासन
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

जीवन जिस का सत्य सिसकता है कुटियों में
और झूठ महलों में मौज़ उड़ाया करता
जीवन जिस का न्याय सड़ा करता जेलों में
और अन्य ख़ुशियों के दीप जलाया करता
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

जहाँ चाँदनी धोती है कलंक जीवन भर
और अमावस तारों से सम्मानित होती
जहाँ भटकते मोती-माणिक अँधियारे में
और कौयलों [coal] को प्रकाश की किरणें धोतीं
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से

केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है 

:- पुरुषोत्तम दुबे

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