ग़ज़ल - कोई गाली नहीं देता कोई ग़ुस्सा नहीं होता - तनोज दाधीचि

 


कोई गाली नहीं देता कोई ग़ुस्सा नहीं होता 

तो मैं मशहूर तो होता मगर इतना नहीं होता

 

हम उसको घर नहीं कहते भले कितना बड़ा ही हो

जहाँ तुलसी नहीं होती जहाँ मटका नहीं होता

 

बुला लो सब बड़े शाइर मगर इक दो नए रखना

शगुन पूरा नहीं होता अगर सिक्का नहीं होता

 

ज़माना है नया अब वो मुहब्बत कर नहीं सकता

वो जिससे एक भी रुपया कभी ख़र्चा नहीं होता 

 

'तनोज' इस बार तो लाओ नयापन शे'र में अपने 

कि बस इक नाम लिखने से कोई मक़्ता नहीं होता

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