हर एक शय में नसीहत है आदमी के लिए
करो वो, जो भी
ज़रूरी है ज़िन्दगी के लिए
ज़रूर होता
है
पीछे छुपा कोई
मक़सद
फ़िज़ूल करता नहीं कोई कुछ किसी के लिए
ग़म-ए-हयात उसी
की
है
ये अता कर्दा
तमाम उम्र मरा
जिसकी मैं ख़ुशी के लिए
कोई भी
इश्क़ में छोटा
बड़ा नहीं होता
मचलते देखा है
सागर को भी नदी के लिए
हवा पे,
आग
पे,
पानी पे बंदिशें
कैसी
ये ने'मते
तो
हैं
संसार में सभी के
लिए
तुम्हारी अक़्ल
पे
पर्दा पड़ा है क्या
*हीरा*
जलाने बैठे हो घर-बार रोशनी के लिए
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