मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख - शकेब जलाली

मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.

हरचन्द राख़ हो के बिखरना है राह में
जलते हुये परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख
हरचन्द - हालाँकि

आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे वो कभी तब्सिरे भी देख

कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार ही क्या सूँघ के भी देख.

तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबते भी देख.

बिछती थीं जिस की राह में फूलों की चादरें
अब उस की ख़ाक घास के पैरों तले भी देख

इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.

क्या शाख़ेबासमर है? जो ताकता है फ़र्श को!!!
नज़रें उठा 'शकेब' - ज़रा सामने भी देख


मफ़ऊलु फाएलातु मुफ़ाईलु फाएलुन
221 2121 1221 212
बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ


शकेब साहब की इस ग़ज़ल को अलग अलग जगहों पर अलग अलग रूप में पढ़ा, इस लिये सब को इकट्ठा करते हुये पोस्ट किया है

2 टिप्‍पणियां:

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