लघुकथा - समझौता - सुरेश बरनवाल

दंगों में कत्लोगारत में शामिल थे वह दोनों। दोनों दूसरे धर्म के थे। इसलिए दोनों के दल एक-दूसरे पर हमला कर रहे थे। देर रात को जब पुलिस चारों तरफ़ फैल गई तो सभी दंगाई छिपते-छिपाते अपने-अपने घरों को जाने लगे। ऐसे में एक गली में अचानक वे दोनों अँधेरे में एक-दूसरे के सामने आ गए।

दोनों के चेहरों पर हिंसा फिर उतर आई।

दोनों ने अपने-अपने छिपे हथियार निकाल लिए।

पर उनके साथ अब उनके साथी नहीं थे। वे दोनों ही अकेले थे।

दोनों एक-दूसरे के हमले का इंतज़ार करते रहे पर किसी ने पहल नहीं की।

कुछ देर बाद एक ने हाथ से इशारा करते हुए अपना हथियार नीचे करके कहा-‘‘अपन दोनों एक-से हैं। दोनों एक-दूसरे को जाने देते हैं।’’

दूसरे ने एक पल सोचा फिर उसने भी अपना हथियार अपने कपड़ों में छिपा लिया।

अब पहले ने भी अपना हथियार अपने थैले में रख लिया।

दोनों एक-दूसरे के बिल्कुल नज़दीक से गुज़रे।

‘‘तू बच गया...!’’-पहला बोला।

‘‘तू भी।’’-दूसरा भी बोला।

गली के सिरे पर जाने पर दोनों एक-दूसरे की तरफ़ मुड़े।

‘‘यूँ बाक़ी भी बच सकते थे न!’’-पहले के मुँह से अचानक निकला।

दूसरे ने सिर झुका लिया।


(सौजन्य - योगराज प्रभाकर)

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