30 मार्च 2014

बच्ची की आबरू तक महफूज़ अब नहीं है - उर्मिला माधव

छोटी सी दास्ताँ है कह दो तो में सुनाऊँ??!
ग़र हो मुलाहिज़ा तो,आगे इसे बढाऊँ??...!

छोटी से एक बच्ची पैदा हुई ज़मीं पर,
हर सम्त तीरगी थी,न रौशनी कहीं पर,

बूढ़े पडोसी आये बोले कि क्या हुआ है??
रोते से सब लगें हैं क्या कोई मर गया है ??

घर के बुज़ुर्ग बोले न न ये सच नहीं है,
हँसने की अब हमारी औक़ात बस नहीं है

सब चीज़ ठीक ही है, कुछ भी गमीं नहीं है,
कुछ ख़ास भी नहीं है, न-ख़ास भी नहीं है,

दहलीज़ पर हमारी पैदा हुयी है बच्ची,
इतनी बड़ी मुसीबत किसको लगेगी अच्छी??

सकते में थे पडोसी, बोले कि क्या ग़ज़ब है!!
बच्ची के मामले में ये सोच भी अजब है !!

थोडा सा खाँस करके बोले बुज़ुर्ग हँस कर,
हर बात हो रही है इनसानियत से हट कर,

जीने का हक सभीको दुनिया में है बिरादर,
बच्ची हो याकि बच्चा इन्सान सब बराबर

घर के बुज़ुर्ग बोले माथे पे हाथ रख कर,
होता ही क्या है वैसे लफ़्ज़ों से बात ढक कर??

बच्ची की आबरू तक महफूज़ अब नहीं है,
परदे में रहके जीना, जीने का ढब नहीं है... 

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