22 जून 2013

SP/2/2/4 चन्द्र दरस कों सुन्दरी, घूँघट लियो उघारि -डा. श्याम गुप्त

नमस्कार..... 

वर्तमान आयोजन में भी दो नये साथी जुड़ चुके हैं हमारे साथ। इस मञ्च पर पुराने लोग लाभान्वित होते रहते हैं और नये लोगों के लिये मार्ग प्रशस्त होता रहता है। कल अरुण जी से बात हो रही थी, उन्हों ने बड़े ही मर्म की बात कही कि हमें अपने अग्रजों से प्राप्त जानकारियाँ नयी पीढ़ी को सुपुर्द करनी है, नहीं तो यह जानकारियाँ हमारे साथ ही विलुप्त हो जायेंगी, बहुत अच्छा विचार रखा है आप ने अरुण जी। 

सन 2010 से इस मञ्च पर छन्द-सेवा शुरू होने से ले कर अब तक न जाने कितने ही बंदों ने सलाह दी कि इस से बेहतर तो आप क़िताब लिखिये, क़िताब लाइब्रेरियों में जायगी, विभिन्न सरकारी विभागों में जायगी, अकादमियों में जायगी पुरस्कार वग़ैरह का रास्ता खुलेगा आदि आदि। अब उन भले-मानुसों को कौन समझाये कि अगर लाइब्रेरियों, सरकारी विभागों में पुस्तकों के पहुँचने से कार्य-सिद्धि सम्भव थी; तो दीर्घ-काल से विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अन्तर्जाल पर साहित्यिक प्रयत्न करने की आवश्यकता क्यूँ पड़ी। संग्रहालय और विभाग अपनी जगह हैं और अन्तर्जाल अपनी जगह। आने वाले साहित्य प्रेमियों को जानकारियाँ एक क्लिक पर मिल सकेंगी, इधर-उधर भटकने में खर्च होने वाला समय साहित्य की सेवा में लगा पायेंगे। तथा अनावश्यक रूप से उन्हें पराधीन रहने से भी मुक्ति मिलेगी।

विगत तीन सालों में जितने लोग इस मञ्च से लाभान्वित हुये हैं, स्वयं मञ्च भी लाभान्वित हुआ है, वह अब कागज़ों में दर्ज़ हो चुका है। समस्या-पूर्ति में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कर चुके साथियों को बताना चाहूँगा कि आप की पोस्ट्स आयोजन के उपरान्त भी निरन्तर पढ़ी जाती रहती हैं। विद्वतजन आइये आज की पोस्ट में पढ़ते हैं हम श्याम जी के दोहे:-

चन्द्र दरस कों सुन्दरी, घूँघट लियो उघारि
चित चकोर चितवत चकित, दो-दो चन्द्र निहारि

नित्य रूप रस जो पिए, प्रिय अँग-सँग रह श्याम ,
परमानन्द  मिले उसेजीवन  श्रेष्ठ  सकाम

घिरी परिजनों से प्रिया, बैठे हैं मन मार ,
पर नयनों से हो रहा, चितवन का व्यापार

माँ तेरे ही चित्र पर, नित प्रति पुष्प चढायँ
मिसरी सी वाणी मिले, मन्त्री पद पा जायँ

तेल पाउडर बेचते, झूठ बोल इठलायँ
बड़े महानायक बने, मिलें लोग हरषायँ

खींच-तान की ज़िन्दगी वे धनहीन बितायँ
खींच-तान की ज़िन्दगी, वे धन हेतु बितायँ

इक दूजे को लूटते, लूट मची चहुँ ओर
चोर सभी, समझें सभी, इक दूजे को चोर

धन साधन की रेल में, भीड़ खचाखच जाय
धक्का-मुक्की धन करे, ज्ञान कहाँ चढ़ पाय

अपनी लाज लुटा रही, द्रुपुद-सुता बाज़ार
इन चीरों का क्या करूँ, कृष्ण खड़े लाचार

ईश्वर अल्ला कब मिले हमें झगड़ते यार,
फिर मानव क्यों व्यर्थ ही, करता है तकरार

---दोहा..रौद्र, वात्सल्य, श्रृंगार .....

भौहें धनु-टंकार हैं, नैन  कटारी  बान ,
रौद्र रूप माँ ने किया, पुत्र प्रेम सनमान

ब्लॉग-जगत के अधिकतर ब्लॉगर श्याम जी से सु-परिचित हैं। बहुत सुन्दर दोहे प्रस्तुत किये हैं श्याम जी ने। पाठकों को इन दोहों में निहित रस व अलङ्कार का स्वयं आनन्द मिले इस लिये मैं कम लिख रहा हूँ। श्याम जी ने अपना काम कर दिया है, पाठक माई-बाप से प्रार्थना है कि वह अपने काम को अंज़ाम दें तब तक मैं तैयारी करता हूँ अगली पोस्ट की।

इस आयोजन की घोषणा सम्बन्धित पोस्ट पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
आप के दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें 
 
चलते-चलते अरुण निगम जी को उन की जीवन्त तथा रोचक टिप्पणियों हेतु बहुत-बहुत आभार। आप की आमद से आनन्द और बढ़ गया है। आप ने जिस अधिकार से आयोजन में देरी की शिकायत की वैसे ही अपना फर्ज़ समझते हुये रचनाओं पर अपने अमूल्य विचार भी प्रस्तुत कर रहे हैं। पुन: आभार।

13 टिप्‍पणियां:

  1. श्‍याम गंप्‍ता जी सशक्‍त लेखनी से निकल ेसभी दोहे प्रभावशाली हैं। बहुत बहुत बधाई।

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  2. अपनी लाज लुटा रही, द्रुपुद-सुता बाज़ार
    इन चीरों का क्या करूँ, कृष्ण खड़े लाचार
    bhot sundar hai waaaaaah

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  3. वाह आदरणीय वाह उत्तम कोटि की दोहावली प्रस्तुति की है आपने सभी दोहे अत्यंत मनोहारी हुए हैं, हार्दिक बधाई स्वीकारें.

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  4. इस छंद-प्रयास पर हार्दिक बधाई.
    शुभ-शुभ

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  5. आपकी यह रचना कल रविवार (23-06-2013) को ब्लॉग प्रसारण के "विशेष रचना कोना" पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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  6. चन्द्र दरस कों सुन्दरी, घूँघट लियो उघारि
    चित चकोर चितवत चकित, दो-दो चन्द्र निहारि
    श्रृंगार से परिपूर्ण

    सादर

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  7. शानदार दोहे कहे हैं श्याम जी ने। बहुत बहुत बधाई और
    अपनी लाज लुटा रही, द्रुपुद-सुता बाज़ार
    इन चीरों का क्या करूँ, कृष्ण खड़े लाचार
    इसके लिए विशेष बधाई

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  8. इन शानदार और लाजबाब दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय डॉ. श्याम जी.

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  9. धन्यवाद तिलक राज जी, अशोक जी,सत्य नारायण जी,धर्मेन्द्र , अरुण जी , सौरभ जी ..एवं यशोदा जी ...और ब्लॉग प्रसारण ...एवं नवीन जी.....सभी का बहुत बहुत आभार... ....

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  10. परन्तु २३-६-१३ के ब्लॉग प्रसारण अंक में तो यह रचना है ही नहीं कोइ अन्य है...

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  11. घिरी परिजनों से प्रिया, बैठे हैं मन मार ,
    पर नयनों से हो रहा, चितवन का व्यापार.........दृश्य बन गया जी ........वाह !!!

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  12. चन्द्र दरस कों सुन्दरी, घूँघट लियो उघारि
    चित चकोर चितवत चकित, दो-दो चन्द्र निहारि
    मन पुलकित करता हुआ,अति सुंदर अनुप्रास
    चित्त अचम्भित देख कर,शिल्प शब्द विन्यास

    घिरी परिजनों से प्रिया, बैठे हैं मन मार ,
    पर नयनों से हो रहा, चितवन का व्यापार
    नयनों से हो किस तरह,चितवन का व्यापार
    चार नयन लाचार हैं,परिजन नयन हजार

    तेल पाउडर बेचते, झूठ बोल इठलायँ
    बड़े महानायक बने, मिलें लोग हरषायँ
    मिलें लोग हरषायँ में,जमी नहीं कुछ बात
    बेगाना शामिल हुआ, हो जैसे बारात

    खींच-तान की ज़िन्दगी वे धनहीन बितायँ
    खींच-तान की ज़िन्दगी, वे धन हेतु बितायँ
    दोहा कैसे हो अगर, मिले नहीं तुक अंत
    मेरे नन्हें प्रश्न को, सुलझायें श्रीमंत

    धन साधन की रेल में, भीड़ खचाखच जाय
    धक्का-मुक्की धन करे, ज्ञान कहाँ चढ़ पाय
    धन साधन की रेल में, ज्ञान करे क्यों सैर
    सुनते आये हैं सदा, इन दोनों में बैर

    भौहें धनु-टंकार हैं, नैन कटारी बान ,
    रौद्र रूप माँ ने किया, पुत्र प्रेम सनमान
    भौहें धनु तो ठीक है, कैसे हो टंकार
    बान भला कैसे बनें, जब हैं नैन कटार

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  13. वाह !
    दोहे तो अच्छे लिखे हैं आदरणीय श्याम गुप्त जी !
    लेकिन चढायँ , जायँ , इठलायँ , हरषायँ , बितायँ , बितायँ ये क्या कर दिया ?
    ये नवीन जी की टाइपिंग-त्रुटियां तो नहीं हो सकती...
    असावधानीवश कुछ विरोधाभास भी हो गया है ,
    (अरूण जी ने इशारा कर भी दिया ...)

    बाकी आपको पढने का अपना आनंद है ।

    सादर...
    शुभकामनाओं सहित
    राजेन्द्र स्वर्णकार


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