स्मृति गीत :
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
मेरा जीवन वन प्रांतर सा
उजड़ा, नीरस, सूना-सूना.
हो गया अचानक मधुर-सरस
आशा-उछाह लेकर दूना.
उमगा-उछला बन मृग-छौना
जब तुम बसंत बन थीं आयीं..
उजड़ा, नीरस, सूना-सूना.
हो गया अचानक मधुर-सरस
आशा-उछाह लेकर दूना.
उमगा-उछला बन मृग-छौना
जब तुम बसंत बन थीं आयीं..
दिन में भी देखे थे सपने,
कुछ गैर बन गये थे अपने.
तब बेमानी से पाये थे
जग के मानक, अपने नपने.
बाँहों ने चाहा चाहों को
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुमसे पाया विश्वास नया.
अपनेपन का आभास नया.
नयनों में तुमने बसा लिया
जब बिम्ब मेरा सायास नया?
खुद को खोना भी हुआ सुखद
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
अधरों को प्यारे गीत लगे
भँवरा-कलिका मन मीत सगे.
बिन बादल इन्द्रधनुष देखा
निशि-वासर मधु से मिले पगे.
बरसों का साथ रहा पल सा
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जीवन रजनी-'मावस
नयनों में मन में है पावस.
हर श्वास चाहती है रुकना
ज्यों दीप चाहता है बुझना.
करता हूँ याद सदा वे पल
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
सुन रुदन रूह दुःख पायेगी.
यह सोच अश्रु निज पीता हूँ.
एकाकी क्रौंच हुआ हूँ मैं
व्याकुल अतीत में जीता हूँ.
रीता कर पाये कर फिर से
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जग-जीवन हुआ सजा
हर पल चाहूँ आ जाये कजा.
किससे पूछूँ क्यों मुझे तजा?
शायद मालिक की यही रजा.
मरने तक पल फिर-फिर जी लूँ
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*******
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
कुछ गैर बन गये थे अपने.
तब बेमानी से पाये थे
जग के मानक, अपने नपने.
बाँहों ने चाहा चाहों को
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुमसे पाया विश्वास नया.
अपनेपन का आभास नया.
नयनों में तुमने बसा लिया
जब बिम्ब मेरा सायास नया?
खुद को खोना भी हुआ सुखद
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
अधरों को प्यारे गीत लगे
भँवरा-कलिका मन मीत सगे.
बिन बादल इन्द्रधनुष देखा
निशि-वासर मधु से मिले पगे.
बरसों का साथ रहा पल सा
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जीवन रजनी-'मावस
नयनों में मन में है पावस.
हर श्वास चाहती है रुकना
ज्यों दीप चाहता है बुझना.
करता हूँ याद सदा वे पल
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
सुन रुदन रूह दुःख पायेगी.
यह सोच अश्रु निज पीता हूँ.
एकाकी क्रौंच हुआ हूँ मैं
व्याकुल अतीत में जीता हूँ.
रीता कर पाये कर फिर से
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जग-जीवन हुआ सजा
हर पल चाहूँ आ जाये कजा.
किससे पूछूँ क्यों मुझे तजा?
शायद मालिक की यही रजा.
मरने तक पल फिर-फिर जी लूँ
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*******
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.
http://hindihindi.in
अन्तिम पंक्तियां नि:
जवाब देंहटाएंशब्द कर देती हैं। बहुत ही श्रेष्ठ रचना।
आचार्य जी प्रणाम !!
जवाब देंहटाएंअद्भुत भावनात्मक गीत प्रस्तुत किया है आपने !
पहले छंद में जहां मैंने खुद को देखा ! वहीँ अंतिम छंद में अपने पितामह को पाया !!
बहुत ही श्रेष्ठ रचना !!!
सुन्दर कविता ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढिया रचना है।बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंमधुर भाव और लयबद्ध भी....
सादर.
sundar geet ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत।
जवाब देंहटाएंसादर
अत्यन्त श्रेष्ठ रचना, बार बार पढ़ने की इच्छा हो रही है..
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंअधरों को प्यारे गीत लगे
जवाब देंहटाएंभँवरा-कलिका मन मीत सगे.
बिन बादल इन्द्रधनुष देखा
निशि-वासर मधु से मिले पगे.
बरसों का साथ रहा पल सा
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
बहुत ही सुन्दर छंद है सभी .. प्रेम और श्रृंगार में पगे ... धाराप्रवाह ... भावमय ... जय हो आचार्य जी ...
बहुत सुन्दर गीत ...
जवाब देंहटाएंविप्रलम्भ श्रंगार को सजीव कर दिया आपने !! बहुत ही सुन्दर रचना !!
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी आपका आशीष पाकर धन्यता अनुभव हो रही है. अजित जी अपने रचना को सराहा तो सृजन सार्थक हो गया. शेखर जी, इस रचना के अंतिम पदों में माताजी के निधन के पश्चात् केवल १३ माह जी सके पूज्य पिताजी की मनोदशा अभिव्यक्त हुई है. मयंक जी आपकी गुण ग्राहकता को नमन. अरुण जी, बाली जी, विद्या जी, दर. गुप्त जी, यशवंत जी, मयंक जी, प्रवीण जी, सदा जी, दिगंबर नासवा जी, संगीता जी आप सबका बहुत-बहुत आभार. भाई नवीन चतुर्वेदी जी को धन्यवाद इस रचना और इसके पाठकों के मध्य सेतु बनने के लिये.
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