31 जुलाई 2014

दो कवितायें - सञ्जीव निगम

जब मौन को शब्द मिले .....



हमने  कुछ शब्द कहे - आपस में,
और फिर देर तक सन्नाटा पसरा रहा 
हमारे बीच में,
हम  मौन हो तकते रहे,
सामने बैठे हुए - फिर अचानक ,
धीरे से रखा उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर,
और सारा मौन मुखरित हो उठा.

और जब शब्दों से बना  मौन ...
कॉफ़ी हाउस के कोलाहल के बीच,
हम कर रहे थे बातें ,इसकी , उसकी ,
चीन की, जापान की,
सारे दुनिया जहान की ,
पर न उसने छुआ मेरा प्याला,
न मैंने हाथ लगाया उसके सैंडविच में,
इतने शोर शराबे में सिर्फ हमीं जानते थे कि 
घूँट घूँट कॉफ़ी के साथ, उतर रहा था सन्नाटा,
हमारे बीच में




सम्वेदनाएँ अभी मरी नहीं हैं

हर दिन जब हम एक दूसरे के पास से
चुपचाप गुज़रते हैं,
परिचय अपरिचय का धूपछाँही आभास लिए,
मेरे मन के छोटे से गमले में \
कितने ही सवालों की कोंपलें फूट पड़ती हैं.
कहीं ऐसे ही कुछ सवाल 
तुम्हारे मन में भी तो नहीं?

हर दिन जब हम एक दूसरे की ओर 
चले आ रहे होते हैं,
मुझे महसूस होता है कि 

मैं अच्छा और अच्छा ,
सुन्दर और सुन्दर होता जा रहा हूँ,

इस विश्वास के साथ कि 
मुझमे ऐसा बहुत कुछ है 
जो मुझे तुमसे जोड़ सकता है.
कहीं इसी जुड़ाव का विश्वास 
तुम्हारी कल्पनाओं में भी तो नहीं?


हर दिन जब घड़ी की सुस्त रफ़्तार सुईयाँ
बड़ी देर बाद ,
तुम्हारे आने के सुखद क्षण संजोने लगती हैं,
मेरे शरीर के भीतर एक सुनहली कंपकंपी 
रेशमी जाल  बुनने लगती है.
आँखों के आगे उगने लगता है तुम्हारा रूप,
अच्छा, और अच्छा,
सुन्दर ,और सुन्दर,
पवित्र ,और पवित्र बनकर.


कहीं ऐसे ही किसी मधुर आभास की 
चमक तुम्हारी आँखों में भी तो नहीं?


हाँ , यदि सचमुच ऐसा है तो
यह मानना पड़ेगा कि 
हमारी संवेदनाएं

अभी जिंदा हैं.


हमारी कल्पनाओं में
अभी चटख रंग बाकी हैं.
हमारे जिस्मों में
जीवन की मीठी गर्मी की तपन 
अभी शेष है.

और, अविश्वास,अजनबीपन व अनैतिकता से भरे 
इस बर्बर जंगल में रहते हुए भी ,


हम अभी तक मनुष्य हैं.

 सञ्जीव निगम

9821285194

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