सवैया
गङ्गा में पाप धुलें जग के पर पावन नीर मलीन न होगा
कर्ण सा स्वर्ण लुटाता रहे पर दानी कभी धनहीन न होगा
सौम्य-उदार-विनीत न हो धनवान कभी वो कुलीन न होगा
स्नेह की गागर से भरिये कभी ‘सागर’ ये जलहीन न होगा
मत्त-गयन्द सवैया
सात भगण + दो गुरू
मुक्तक
प्रसव का भार तो बस माँ ही वहन करती
है
वक्ष में दुग्ध का सिहराव सहन करती
है
इक जनानी ही धरा पर है धरोहर ऐसी
अपनी सन्तान पे अस्तित्व दहन करती
है
भर दे हृदय के घाव वो मरहम निकालिये
हारे-थके दिलों में बसे ग़म निकालिये
अब युद्ध की रण-नीति में बदलाव
लाइये
रण-दुन्दुभी से हो सके – सरगम
निकालिये
सागर त्रिपाठी – 9920052915
No comments:
Post a comment