ग़ज़ल - अजीब दिन हैं कि लगता है रात चल रही है - आफ़ताब हुसैन

 

 

अजीब दिन हैं कि लगता है रात चल रही है

जो हो चुकी है वही वारदात चल रही है 

 

दवाम-ए-वस्ल, हद-ए-मर्ग पर जो हो तो हो

कि ज़िंदगी तो बहुत बे-सबात चल रही है

 

हज़ार हर्फ़ गिरह हो के रह गए दिल में

कलाम ख़त्म हुआ और बात चल रही है

 

हवा-ए-मौसम-ए-जाँ तेरे दम-क़दम से है

मैं चल रहा हूँ कि तू मेरे साथ चल रही है

 

रुके जो दिल तो ज़माने की साँस रुक जाए

सो चल रहा है तो ये काइनात चल रही है

 

क़दम उठाते नहीं हैं कि डगमगाते हैं हम

हमारे सर पे वो तेग़-ए-सिरात चल रही है

 

चलो हुई तो है कुछ चहल-पहल सीने में भी

जनाज़ा जा रहा है या बरात चल रही है

 

गुज़र के आया हूँ इक शाम-ए-मर्ग रंग से मैं

अब एक सुबह-ए-क़यामत से बात चल रही है

 

रवाँ-दवाँ हूँ क़दम से क़दम मिलाए हुए

कि साथ-साथ रह-ए-मुशकिलात चल रही है


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