ग़ज़ल - जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया - नवीन जोशी 'नवा'


 

जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया

वहाँ हमारी ज़बाँ ने सुख़न उतार दिया

 

न जाने अब के ये कैसी बहार आई है

गुलों के जिस्मों से जिस ने चमन उतार दिया

 

उसी ने हम से छुपाई थी अपनी 'उर्यानी

वो जिस के वास्ते हम ने बदन उतार दिया

 

लिबास-ए-‘इश्क़ पहनने की ऐसी क्या ज़िद थी

जो दोस्ती का हसीं पैरहन उतार दिया

 

बिना बताए हमें इक ख़याल ने पहना

बिना लिहाज़ किए दफ़'अतन उतार दिया

 

हमें भी सर पे चढ़ाया था फ़ितरतन सब ने

हमें भी सब की तरह 'आदतन उतार दिया

 

हर एक लाश हमें बे-कफ़न नज़र आई

हमारी लाश से हम ने कफ़न उतार दिया


2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणी करने के लिए 3 विकल्प हैं.
1. गूगल खाते के साथ - इसके लिए आप को इस विकल्प को चुनने के बाद अपने लॉग इन आय डी पास वर्ड के साथ लॉग इन कर के टिप्पणी करने पर टिप्पणी के साथ आप का नाम और फोटो भी दिखाई पड़ेगा.
2. अनाम (एनोनिमस) - इस विकल्प का चयन करने पर आप की टिप्पणी बिना नाम और फोटो के साथ प्रकाशित हो जायेगी. आप चाहें तो टिप्पणी के अन्त में अपना नाम लिख सकते हैं.
3. नाम / URL - इस विकल्प के चयन करने पर आप से आप का नाम पूछा जायेगा. आप अपना नाम लिख दें (URL अनिवार्य नहीं है) उस के बाद टिप्पणी लिख कर पोस्ट (प्रकाशित) कर दें. आपका लिखा हुआ आपके नाम के साथ दिखाई पड़ेगा.

विविध भारतीय भाषाओं / बोलियों की विभिन्न विधाओं की सेवा के लिए हो रहे इस उपक्रम में आपका सहयोग वांछित है. सादर.